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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
    सूक्त - वामदेवः देवता - द्यावापृथिव्यौ, विश्वे देवाः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - दुःखनाशन सूक्त

    एक॑शतं॒ विष्क॑न्धानि॒ विष्ठि॑ता पृथि॒वीमनु॑। तेषां॒ त्वामग्र॒ उज्ज॑हरुर्म॒णिं वि॑ष्कन्ध॒दूष॑णम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽशतम् । विऽस्क॑न्धानि । विऽस्थि॑ता । पृ॒थि॒वीम् । अनु॑ । तेषा॑म् । त्वाम् । अग्रे॑ । उत् । ज॒ह॒रु॒: । म॒णिम् । वि॒स्क॒न्ध॒ऽदूष॑णम् ॥९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकशतं विष्कन्धानि विष्ठिता पृथिवीमनु। तेषां त्वामग्र उज्जहरुर्मणिं विष्कन्धदूषणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽशतम् । विऽस्कन्धानि । विऽस्थिता । पृथिवीम् । अनु । तेषाम् । त्वाम् । अग्रे । उत् । जहरु: । मणिम् । विस्कन्धऽदूषणम् ॥९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे मनुष्य (विष्कन्धानि) प्रबल स्कन्ध वाले हिंसक जन्तुओं की (एकशतं) एकसौ एक या सैकड़ों जातियां (पृथिवीम् अनु) पृथिवी पर विचरती हैं (तेषाम् अग्रे) उनके बीच मुख्याधिकारी (त्वां) तुझको (मणिम्) उनको शिरोमणि रूप से उन पर वश करने हारा (उत्-जहरुः) अधिष्ठाता रूप से स्थापित किया है। तू स्वयं (विष्कन्धदूषणम्) उन प्रबल जन्तुओं को वश करने में समर्थ हैं । इस अन्तिम मन्त्र में विष्कन्ध और दूषण ये दो शब्द प्रबल हिंसक जीव और उनके वश करने के उपायों के अतिरिक्त सेनानिवेश और उनके वश करने के उपाय पर भी प्रकाश डालते हैं । जिस प्रकार पशुओं को वश करने का उपाय कहा गया इसी प्रकार हिंसक पुरुषों की छावनी को भी, उन्हें परस्पर फोड़ कर उनको वश कर लेना चाहिये । संक्षेप से शत्रु-वश करने के लिये इतनी नीतियों का उपदेश किया है (१) बैलों के समान उनका मदकारी अंश निकाल देने से शत्रु वश में हो जाएंगे, (२) गैंडे के समान या मोटे कन्धे वाले पशु के समान दृढ व्यवस्था से बांधलो, (३) जिस शत्रु के पास अन्न न रहे उसको भूखा मार कर फिर अन्न दो और इस प्रकार उसे वश करो, (४) सदा किसी पर बन्धन मत रक्खो, नहीं तो वानर और कुत्तों की सी चीर फाड़ होती रहेंगी । इसलिये उनको अन्नादि पदार्थ देकर उनसे बदले में काम ले और व्यापार विनियम द्वारा उनको बांधे रहे, (५) यदि उत्पात करे तब उन पर तर्जना करे और बन्धन लगा दे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः । द्यावावृथिव्यौ उत विश्वे देवा देवताः । १, ३ ५, अनुष्टुभः । ४ चतुष्पदा निचृद् बृहती । ६ भुरिक् । षडृचं सूक्तम् ॥

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