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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - धेनुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    प्र॑थ॒मा ह॒ व्यु॑वास॒ सा धे॒नुर॑भवद्य॒मे। सा नः॒ पय॑स्वती दुहा॒मुत्त॑रामुत्तरां॒ समा॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒थ॒मा । ह॒ । वि । उ॒वा॒स॒ । सा । धे॒नु: । अ॒भ॒व॒त् । य॒मे । सा । न॒: । पय॑स्वती । दु॒हा॒म् । उत्त॑राम्ऽउत्तराम् । समा॑म् ॥१०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रथमा ह व्युवास सा धेनुरभवद्यमे। सा नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रथमा । ह । वि । उवास । सा । धेनु: । अभवत् । यमे । सा । न: । पयस्वती । दुहाम् । उत्तराम्ऽउत्तराम् । समाम् ॥१०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    अष्टका रूप से पत्नी के स्वरूप का वर्णन करते हैं—हे (यमे) ब्रह्मचर्य आदि का पालन करने हारी ब्रह्मचारिणी ! (प्रथमा) सबसे प्रथम, श्रेष्ठ कुमारी रूप से जो स्त्री अपने पति के गृह में (ह) निश्चय से (वि उवास) विशेष रूप से वास करती है (सा) वही उसके घर की (धेनुः) गौ के समान समस्त कार्यों में सुख की देने हारी (अभवत्) होती है । (नः) हमारे घरों में भी उसी प्रकार (सा) वह पत्नी (पयस्वती) वर्धनशील सुखों के देने हारी होकर (उत्तरां उत्तरां समाम्) ज्यों २ वर्ष पर वर्ष बीतते जायं त्यों त्यों (दुहाम्) घर को सुखों से भरती जाय ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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