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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
    सूक्त - अथर्वा देवता - देवगणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    इड॑या॒ जुह्व॑तो व॒यं दे॒वान्घृ॒तव॑ता यजे। गृ॒हानलु॑भ्यतो व॒यं सं॑ विशे॒मोप॒ गोम॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इड॑या । जुह्व॑त: । व॒यम् । दे॒वान् । घृ॒तऽव॑ता । य॒जे॒ । गृ॒हान् । अलु॑भ्यत: । व॒यम् । सम् । वि॒शे॒म॒ । उप । गोऽम॑त: ॥१०.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इडया जुह्वतो वयं देवान्घृतवता यजे। गृहानलुभ्यतो वयं सं विशेमोप गोमतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इडया । जुह्वत: । वयम् । देवान् । घृतऽवता । यजे । गृहान् । अलुभ्यत: । वयम् । सम् । विशेम । उप । गोऽमत: ॥१०.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 11

    भावार्थ -
    गृहस्थ पुरुषों को सदाचार का उपदेश करते हैं । (इडया) अन्न और भूमि से उत्पन्न हुए पवित्र पदार्थों का (जुह्वतः) दान प्रतिदान और अग्नि में आहुति देते हुए (वयं) हम (देवान्) देवगण अग्नि, वायु, जल आदि पदार्थों और विद्वान् पुरुषों को (घृतवता) घृत आदि पोषणकारी पदार्थों से (यजे) उनको संगत कर पुष्टिकारक करूं और उनका आदर करूं और (वयं) हम सब (गोमतः) गौ आदि पशुओं से सम्पन्न (गृहान्) गृहों में (अलुभ्यतः) एक दूसरे के पदार्थों का लोभ न करते हुए, निर्लोभ होकर (उप सं विशेम) परस्पर मिल कर एक दूसरे के समीप रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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