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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - रात्रिः, धेनुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    यां दे॒वाः प्र॑ति॒नन्द॑न्ति॒ रात्रिं॑ धे॒नुमु॑पाय॒तीम्। सं॑वत्स॒रस्य॒ या पत्नी॒ सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । दे॒वा: । प्र॒ति॒ऽनन्द॑न्ति । रात्रि॑म् । धे॒नुम् । उ॒प॒ऽआ॒य॒तीम् । स॒म्ऽव॒त्स॒रस्य॑ । या । पत्नी॑ । सा । न॒: । अ॒स्तु॒ । सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली ॥१०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां देवाः प्रतिनन्दन्ति रात्रिं धेनुमुपायतीम्। संवत्सरस्य या पत्नी सा नो अस्तु सुमङ्गली ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । देवा: । प्रतिऽनन्दन्ति । रात्रिम् । धेनुम् । उपऽआयतीम् । सम्ऽवत्सरस्य । या । पत्नी । सा । न: । अस्तु । सुऽमङ्गली ॥१०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 2

    भावार्थ -

    गृहपत्नी नवबधू को रात्रि और गौ से उपमा देकर उसका वर्णन करते हैं । (यां) जिस (रात्रिं) रमण करने योग्य सब को प्रसन्न करने एवं सुख देने हारी रात्रि के समान और (उप आयतीम्) स्वामी के पास प्रेम से स्वयं आने हारी, (धेनुं) नाना सुखों को उत्पन्न करने हारी गौ के समान गार्हस्थ्य सुख को प्राप्त कराने हारी वधू को (देवाः) विद्वान् पुरुष (प्रतिनन्दन्ति) देख कर बहुत प्रसन्न होते हैं (या) जो (संवत्सरस्य) उत्तम रीति से वत्स = बालकों को अन्नादि से पुष्ट करने हारे अपने स्वामी के गृह की पत्नी अर्थात् स्वामिनी होकर रहती है वह (नः) हमारे समाज के लिये (सुमङ्गली) उत्तम शुभ मङ्गल करने हारी हो । नवोढ़ा को आशीर्वाद दिया जाता है ‘सुमङ्गलीरियं वधूः इमां सभेत पश्यत ।’ अन्यत्र भी “सुमङ्गली प्रतरणी गृहाणां सुशेवा पत्ये वशुराय शम्भूः।” (अथर्व० १०। २। २६)

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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