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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - रात्रिः, धेनुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    इ॒यमे॒व सा या प्र॑थ॒मा व्यौच्छ॑दा॒स्वित॑रासु चरति॒ प्रवि॑ष्टा। म॒हान्तो॑ अस्यां महि॒मानो॑ अ॒न्तर्व॒धूर्जि॑गाय नव॒गज्जनि॑त्री ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । ए॒व । सा । या । प्र॒थ॒मा । वि॒ऽऔच्छ॑त् । आ॒सु । इत॑रासु । च॒र॒ति॒ । प्रऽवि॑ष्टा । म॒हान्त॑: । अ॒स्या॒म् । म॒हि॒मान॑: । अ॒न्त: । व॒धू: । जि॒गा॒य॒ । न॒व॒ऽगत् । जनि॑त्री ॥१०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयमेव सा या प्रथमा व्यौच्छदास्वितरासु चरति प्रविष्टा। महान्तो अस्यां महिमानो अन्तर्वधूर्जिगाय नवगज्जनित्री ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । एव । सा । या । प्रथमा । विऽऔच्छत् । आसु । इतरासु । चरति । प्रऽविष्टा । महान्त: । अस्याम् । महिमान: । अन्त: । वधू: । जिगाय । नवऽगत् । जनित्री ॥१०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (इयम् एव) यह ही वधू (सा) वह है (या) जो (प्रथमा) गुणों में सब से श्रेष्ठ होने के कारण (इतरासु) अन्य घर की (आसु) स्त्रियों के बीच में (वि औच्छत्) अपने गुणों का विशेष प्रकाश करती हुई (प्रविष्टा) उनके हृदयों में प्रविष्ट होकर (चरति) विचरती है, रहती है। (अस्यां) इस नवोढ़ा स्त्री में (महान्तः) बड़े भारी (महिमानः) महत्वपूर्ण यश हैं। वह (वधूः) नववधू (अन्तः) अन्तःपुर में (नवगत्) नव २, नये २ रूप को धारण करने हारी या अपने नव पति से संगत होकर (जनित्री) प्रजा को उत्पन्न करती हुई (जिगाय) सब से उत्कृष्ट होकर रहे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अष्टका देवताः । ४, ५, ६, १२ त्रिष्टुभः । ७ अवसाना अष्टपदा विराड् गर्भा जगती । १, ३, ८-११, १३ अनुष्टुभः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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