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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 126

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 126/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - दुन्दुभिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - दुन्दुभि सूक्त

    आ क्र॑न्दय॒ बल॒मोजो॑ न॒ आ धा॑ अ॒भि ष्टन दुरि॒ता बाध॑मानः। अप॑ सेध दुन्दुभे दु॒च्छुना॑मि॒त इन्द्र॑स्य मु॒ष्टिर॑सि वी॒डय॑स्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । क्र॒न्द॒य॒ । बल॑म् । ओज॑: । न॒: । आ । धा॒: । अ॒भि । स्त॒न॒ । दु॒:ऽइ॒ता । बाध॑मान: । अप॑ । से॒ध॒ । दु॒न्दु॒भे॒ । दु॒च्छुना॑म् । इ॒त: । इन्द्र॑स्य । मु॒ष्टि: । अ॒सि॒ । वी॒डय॑स्व ॥१२६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ क्रन्दय बलमोजो न आ धा अभि ष्टन दुरिता बाधमानः। अप सेध दुन्दुभे दुच्छुनामित इन्द्रस्य मुष्टिरसि वीडयस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । क्रन्दय । बलम् । ओज: । न: । आ । धा: । अभि । स्तन । दु:ऽइता । बाधमान: । अप । सेध । दुन्दुभे । दुच्छुनाम् । इत: । इन्द्रस्य । मुष्टि: । असि । वीडयस्व ॥१२६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 126; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे दुन्दुभे ! नक्कारे ! (बलम् आक्रन्दय) शत्रु की सेना को रुला। (नः) हमारे से (ओजः) बल को (आ धाः) आधान कर और (दुरितानि) दुष्ट चरित्रों को, पापों को (बाधमानः) बाधित करता हुआ (अभि स्तन) सर्वत्र अपना नाद कर, और (दुच्छुनाम) दुःख देने वाली शत्रु-सेना को (इतः) यहां से (अप सेध) दूर भगा दे तू (इन्द्रस्य) इन्द्र, राजा की (मुष्टिः असि) आगे बढ़ कर हृदय दहला देने वाली मुष्टि मुक्के या वज्र के समान है। (वीडयस्व) तू दृढ़ रह। अध्यात्मा में—दुच्छुना = दुष्प्रवृत्ति, इन्द्रस्य = आत्मा की, मुष्टिः = सर्व दुःख और अज्ञान को हरने वाली शक्ति है, तू आत्मा को वीर बना।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। वानस्पत्यो दुन्दुभिर्देवता। १, २ भुरिक् त्रिष्टुभौ, ३ पुरोबृहती विराड् गर्भा त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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