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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 130

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 130/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त

    उन्मा॑दयत मरुत॒ उद॑न्तरिक्ष मादय। अग्न॒ उन्मा॑दया॒ त्वम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । मा॒द॒य॒त॒ । म॒रु॒त॒: । उत् । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ । मा॒द॒य॒ । अग्ने॑ । उत् । मा॒द॒य॒ । त्वम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उन्मादयत मरुत उदन्तरिक्ष मादय। अग्न उन्मादया त्वमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । मादयत । मरुत: । उत् । अन्तरिक्ष । मादय । अग्ने । उत् । मादय । त्वम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे (मरुतः) विद्वान् पुरुषो ! उस प्रेमी व्यक्ति अर्थात् पति या पत्नी को मेरे प्रेमाभिलाष में (उन्मादयत) प्रसन्न रखो, वह मेरे सिवाय किसी और की याद न रक्खे, मेरी स्मृति में ही मस्त रहे। हे (अन्तरिक्ष) अन्तर्यामी आत्मन् ! तू ही उस प्रेमपात्र को (उन्मादय) प्रेम में प्रसन्न रख। हे (अग्ने) परमात्मन् ! (त्वम् उन्मादय) प्रेम में उसे प्रसन्न रख जिससे (असौ माम् अनुशोचतु) वह मेरे प्रेम वियोग की चिन्ता में रहे और मुझे स्मरण करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। २, ३ अनुष्टुभौ। १ विराट् पुरस्ताद बृहती। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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