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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 130

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 130/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त

    अ॒सौ मे॑ स्मरता॒दिति॑ प्रि॒यो मे॑ स्मरता॒दिति॑। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सौ । मे॒ ।स्म॒र॒ता॒त् । इति॑ । प्रि॒य: । मे॒ । स्म॒र॒ता॒त् । इति॑ । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असौ मे स्मरतादिति प्रियो मे स्मरतादिति। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असौ । मे ।स्मरतात् । इति । प्रिय: । मे । स्मरतात् । इति । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (असौ) वह प्रियतमा स्त्री (मे) अपने मुझ प्रियतम पति का (स्मरतात्) स्मरण करे (इति) इस प्रकार पति निरन्तर अपनी स्त्री के विषय में चिन्तन करे और (मे प्रियः) मेरा प्रियतम पति (मे स्मरतात्) मेरा स्मरण करे (इति) इस प्रकार पत्नी निरन्तर अपने पति के विषय में चिन्तन करे। हे (देवाः) विद्वान् पुरुषो ! (स्मरं प्र हिणुत) स्त्री पुरुषों में इस प्रकार के परस्पर स्मरण कराने वाले प्रेम भाव को जागृत करो। जिससे (असौ) वह दूरदेशस्थ प्रेमी (माम्) मुझ प्रेमपात्र को (अनु शोचतु) वियोग में भी स्मरण करे और मेरे दुःख से दुःखी हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। स्मरो देवता। २, ३ अनुष्टुभौ। १ विराट् पुरस्ताद बृहती। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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