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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 52/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - सांमनस्यम्, अश्विनौ
छन्दः - जगती
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
सं जा॑नामहै॒ मन॑सा॒ सं चि॑कि॒त्वा मा यु॑ष्महि॒ मन॑सा॒ दैव्ये॑न। मा घोषा॒ उत्स्थु॑र्बहु॒ले वि॒निर्ह॑ते॒ मेषुः॑ पप्त॒दिन्द्र॒स्याह॒न्याग॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । जा॒ना॒म॒है॒ । मन॑सा । सम् । चि॒कि॒त्वा । मा । यु॒ष्म॒हि॒ । मन॑सा । दैव्ये॑न । मा । घोषा॑: । उत् । स्थु॒: । ब॒हु॒ले । वि॒ऽनिर्ह॑ते । मा । इषु॑: । प॒प्त॒त् । इन्द्र॑स्य । अह॑नि । आऽग॑ते ॥५४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सं जानामहै मनसा सं चिकित्वा मा युष्महि मनसा दैव्येन। मा घोषा उत्स्थुर्बहुले विनिर्हते मेषुः पप्तदिन्द्रस्याहन्यागते ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । जानामहै । मनसा । सम् । चिकित्वा । मा । युष्महि । मनसा । दैव्येन । मा । घोषा: । उत् । स्थु: । बहुले । विऽनिर्हते । मा । इषु: । पप्तत् । इन्द्रस्य । अहनि । आऽगते ॥५४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 52; मन्त्र » 2
विषय - परस्पर मिलकर रहने का उपदेश।
भावार्थ -
हम लोग (मनसा) चित्त से सदा (सं जानामहै) आपस में मिल कर, सहमति करके रहा करें, और (सं चिकित्वा) उत्तम रीति से आपस के सब मामलों को समझ बूझ कर (दैव्येन) विद्वानों के (मनसा) मननशील चित्त के अनुसार होकर आपस में (मा युष्महि) फूट फूट कर, जुदा न रहें और (बहुले) बड़े (विनिर्हते) युद्धों के निमित्त (घोषाः) हाहाकार के शब्द (मा उत् स्थुः) न उठा करें, और (अहनि आ-गते) युद्ध के दिन के उपस्थित हो जाने पर भी (इन्द्रस्य) इन्द्र अर्थात् राजा का (इषुः) बाण (मा पप्तत्) युद्ध के निमित्त न चले या (इन्द्रस्य इषुः) राजा के बाण, या ऐश्वर्यवानों के बाण गरीबों पर न पड़ें। हम मिल कर रहें, समझ बूझ कर विचार कर आपस में न फूटें, महायुद्ध संसार में न हों. युद्ध-दिन के उपस्थित हो जाने पर भी राजाओं के शस्त्रास्त्र एक दूसरे पर न गिरें या ऐश्वर्यवान् पुरुषों के गरीबों पर आक्रमण न हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। सांमनस्यकारिणावश्विनौ देवते। १ ककुम्मती अनुष्टुप् जगती। द्वयृचं सूक्तम्॥
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