अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त
इ॒यं वी॒रुन्मधु॑जाता मधु॒श्चुन्म॑धु॒ला म॒धूः। सा विह्रु॑तस्य भेष॒ज्यथो॑ मशक॒जम्भ॑नी ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । वी॒रुत् । मधु॑ऽजाता । म॒धु॒ऽश्चुत् । म॒धु॒ला । म॒धू: । सा । विऽह्रु॑तस्य । भे॒ष॒जी । अथो॒ इति॑ । म॒श॒क॒ऽजम्भ॑नी ॥५८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं वीरुन्मधुजाता मधुश्चुन्मधुला मधूः। सा विह्रुतस्य भेषज्यथो मशकजम्भनी ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । वीरुत् । मधुऽजाता । मधुऽश्चुत् । मधुला । मधू: । सा । विऽह्रुतस्य । भेषजी । अथो इति । मशकऽजम्भनी ॥५८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
विषय - विषचिकित्सा।
भावार्थ -
(इयम्) यह (वीरुत्) लता, ओषधि (मधु-जाता) मधु = पृथिवी से उत्पन्न है, (मधु-ला) मधु = आनन्द गुण को प्राप्त कराने वाली, (मधु-श्चुत्) मधुर रस को चुभाने वाली (मधूः) मधु ही है, वह (विह्रुतस्य) विशेष रूप से कुटिलगामी सर्पों के विषम विष की भी (भेषजी) उत्तम चिकित्सा है, (अथो) और (मशकजम्भनी) मच्छर आदि विषैले कीटों का भी नाश करती है।
सायण ने ‘मधु’ शब्द से मधुक औषधि ली है—वह क्या है इस सें संदेह है। क्योंकि वह बहुतों का नाम है। परन्तु हमारी सम्मति में यह स्वतः ‘मधु’ = शहद है। मधु के गुण राजनिघण्टु में—‘छर्दिर्हिक्काविषश्वासकासशोषातिसारजित्’ मधु = वमन, हिचकी, विषवेग, सांस, दमा, खांसी और तपेदिक अतिसार आदि का नाश करता है
उष्णैविरुध्यते सर्वं विषान्वयतया लघु।
उष्णार्त्तरुक्षैरुष्णैर्वा तन्निहन्ति तथा विषम्।
मधु ऊष्ण स्वभाव के पदार्थों से मिलकर हानि उत्पन्न करता है, वह स्वयं विष हो जाता है, इसलिये वह उस समय विष का भी नाश करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः वृश्चिकादयो देवताः। २ वनस्पतिर्देवता। ४ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १-३, ५-८, अनुष्टुप्। ४ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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