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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - वृश्चिकादयः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त

    न ते॑ बा॒ह्वोर्बल॑मस्ति॒ न शी॒र्षे नोत म॑ध्य॒तः। अथ॒ किं पा॒पया॑ऽमु॒या पुच्छे॑ बिभर्ष्यर्भ॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ते॒ । बा॒ह्वो: । बल॑म् । अ॒स्ति॒ । न । शी॒र्षे । न । उ॒त । म॒ध्य॒त: । अथ॑ । किम् । पा॒पया॑ । अ॒मु॒या । पुच्छे॑ । बि॒भ॒र्षि॒ । अ॒र्भ॒कम् ॥५८.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न ते बाह्वोर्बलमस्ति न शीर्षे नोत मध्यतः। अथ किं पापयाऽमुया पुच्छे बिभर्ष्यर्भकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । ते । बाह्वो: । बलम् । अस्ति । न । शीर्षे । न । उत । मध्यत: । अथ । किम् । पापया । अमुया । पुच्छे । बिभर्षि । अर्भकम् ॥५८.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    हे वृश्चिक आदि कीट ! (ते) तेरी (बाह्वोः) बाहुओं में (बलं न अस्ति) बल नहीं है, (न शीर्षे) न सिर में बल है (उत) और (मध्यतः न) बीच भाग में भी बल नहीं है। (अथ) तो फिर (अमुया) इस (पापया) पापमय, दूसरे को कष्ट पहुंचाने वाली वृत्ति से (किं) क्या (पुच्छे) पूंछ में (अर्भकम्) छोटासा विषैला कांटा या थोड़ा सा विष (बिभर्षि) रक्खे हुए है। जिनकी पूंछ में विष है वे कीट सब उसी जाति के हैं जिनके बाहु, सिर और बीच के भाग में बल नहीं होता, प्रत्युत पापबुद्धि से प्रेरित होकर वे अपने पूंछ के थोड़े से विष से भी बहुतसा विनाश किया करते हैं। कदाचित् विष-पुच्छ सर्प भी होते हों जिनका कि यह वर्णन हो। अगले मन्त्र में ‘शकोट’ का पुनः वर्णन है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः वृश्चिकादयो देवताः। २ वनस्पतिर्देवता। ४ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १-३, ५-८, अनुष्टुप्। ४ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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