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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त

    अ॒यं यो व॒क्रो विप॑रु॒र्व्यङ्गो॒ मुखा॑नि व॒क्रा वृ॑जि॒ना कृ॒णोषि॑। तानि॒ त्वं ब्र॑ह्मणस्पत इ॒षीका॑मिव॒ सं न॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । य: । व॒क्र: । विऽप॑रु: । विऽअ॑ङ्ग: । मुखा॑नि । व॒क्रा । वृ॒जि॒ना । कृ॒णोषि॑ । तानि॑ । त्वम् । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । इ॒षीका॑म्ऽइव । सम् । न॒म॒: ॥५८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं यो वक्रो विपरुर्व्यङ्गो मुखानि वक्रा वृजिना कृणोषि। तानि त्वं ब्रह्मणस्पत इषीकामिव सं नमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । य: । वक्र: । विऽपरु: । विऽअङ्ग: । मुखानि । वक्रा । वृजिना । कृणोषि । तानि । त्वम् । ब्रह्मण: । पते । इषीकाम्ऽइव । सम् । नम: ॥५८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    विषों को वश करने की रीति लिखते हैं—हे (ब्रह्मणः स्पते) वेदविद्या के विद्वन् ! (यः) जो (अयं) यह (वक्रः) टेढ़ा मेढ़ा (वि-परुः) सन्धिस्थानों में नाना प्रकार की चेष्टा करता हुआ (वि-अङ्गः) अङ्गों में विकार दिखाता हुआ, छटपटाता हुआ, काले नाग से काटा हुआ पुरुष (वृजिना) वर्जन करने योग्य या बलपूर्वक, असाध्य रूप से (मुखानि) मुखों को (वक्रा) टेढ़े मेढ़े (कृणोषि) करता है, (तानि) उनको (स्वं) तू (इषीकाम्-इव) सींक के समान (सं नमः) झुका दे या सीधा कर दे। अथवा—यह मंत्र सर्प काटे पुरुष पर न लगकर सर्प पर भी लगता हैं (अयं यः) यह जो सर्प (वि-परुः) नाना पोरुओं वाला, (वि-अङ्गः) विचित्र शरीर का (वृजिना) दुःखदायी प्रहार करने वाले, (मुखानि) मुखों को (वक्रा) टेढ़े करता है, फुंफकार फुंफकार कर मारता है। हे (ब्रह्मणस्पते) विद्वन् ! (त्वं) तू (तानि) उसके इन सब मुखों को (इषी कामिव सं नमः) सींक के समान झुका देता है। अर्थात् तेरे विचार और औषधिबल से वह नाग अपने फन को धरती पर झुका लेता है। दि भाष्यकारों ने उक्त मन्त्र की पूर्व रीति से व्याख्या की है। हमें दूसरी सहमत है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः वृश्चिकादयो देवताः। २ वनस्पतिर्देवता। ४ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १-३, ५-८, अनुष्टुप्। ४ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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