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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - अदितिः छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - आदित्यगण सूक्त

    वाज॑स्य॒ नु प्र॑स॒वे मा॒तरं॑ म॒हीमदि॑तिं॒ नाम॒ वच॑सा करामहे। यस्या॑ उ॒पस्थ॑ उ॒र्वन्तरि॑क्षं॒ सा नः॒ शर्म॑ त्रि॒वरू॑थं॒ नि य॑च्छात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाज॑स्य । नु । प्र॒ऽस॒वे । मा॒तर॑म् । म॒हीम् । अदि॑तिम् । नाम॑ । वच॑सा । क॒रा॒म॒हे॒ । यस्या॑: । उ॒पऽस्थे॑ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । सा । न॒: । शर्म॑ । त्रि॒ऽवरू॑थम् । नि । य॒च्छा॒त् ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजस्य नु प्रसवे मातरं महीमदितिं नाम वचसा करामहे। यस्या उपस्थ उर्वन्तरिक्षं सा नः शर्म त्रिवरूथं नि यच्छात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वाजस्य । नु । प्रऽसवे । मातरम् । महीम् । अदितिम् । नाम । वचसा । करामहे । यस्या: । उपऽस्थे । उरु । अन्तरिक्षम् । सा । न: । शर्म । त्रिऽवरूथम् । नि । यच्छात् ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 6; मन्त्र » 4

    भावार्थ -

    (वाजस्य) अन्न के (प्रसवे) उत्पन्न करने के कार्य में (महीम्) विशाल, (अदितिम्) अखण्डित, समस्थलवाली (महीम्) पृथिवी को (वचसा) वेदोपदेश के अनुसार (नाम) ही (करामहे) तैयार करते हैं। (यस्याः) जिसकी (उपस्थे) गोद में (उरु) यह विशाल (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष, जल, या मेघ है। (सा) वह (नः) हमें (त्रि-वरूथम्) तीन मंजिला (शर्म) गृह (नियच्छात्) बनाने के लिए अनुकूल हो। अध्यात्म में—वाज=ज्ञानबल के उत्पन्न करने में हम उस परम महती, अखण्ड ब्रह्मशक्ति की वाणी द्वारा स्तुति करते हैं, जिसके आश्रय पर यह विशाल अन्तरिक्ष खड़ा है। वह हमें (त्रि-वरूथं) तीनों तापों से बचाने वाला मोक्ष सुख प्रदान करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अथर्वा ऋषिः। यजुर्वेदे १ प्रजापतिर्ऋषिः, २ वामदेवः। ऋग्वेदे गोतमो । राहूगण ऋषिः। अदितिर्देवता । त्रिष्टुप्। १ भुरिक्। ३, ४ विराड्-जगत्यौ। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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