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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 79/ मन्त्र 3
आग॒न्रात्री॑ स॒ङ्गम॑नी॒ वसू॑ना॒मूर्जं॑ पु॒ष्टं वस्वा॑वे॒शय॑न्ती। अ॑मावा॒स्यायै ह॒विषा॑ विधे॒मोर्जं॒ दुहा॑ना॒ पय॑सा न॒ आग॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒ग॒न् । रात्री॑ । स॒म्ऽगम॑नी । वसू॑नाम् । ऊर्ज॑म् । पु॒ष्टम् । वसु॑ । आ॒ऽवे॒शय॑न्ती । अ॒मा॒ऽवा॒स्या᳡यै । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ । ऊर्ज॑म् । दुहा॑ना । पय॑सा । न॒: । आ । अ॒ग॒न् ॥८४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आगन्रात्री सङ्गमनी वसूनामूर्जं पुष्टं वस्वावेशयन्ती। अमावास्यायै हविषा विधेमोर्जं दुहाना पयसा न आगन् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अगन् । रात्री । सम्ऽगमनी । वसूनाम् । ऊर्जम् । पुष्टम् । वसु । आऽवेशयन्ती । अमाऽवास्यायै । हविषा । विधेम । ऊर्जम् । दुहाना । पयसा । न: । आ । अगन् ॥८४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 79; मन्त्र » 3
विषय - स्त्री के कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(वसूनां) वास करने हारे गृह के प्राणियों को (सं-गमनी) एकत्र मिलाकर रखनेवाली, (पुष्टम्) पुष्टिकारक (ऊर्जम्) अन्नरस को और (वसु) धन को (आ वेशयन्ती) प्रदान करती हुई, (रात्री) रमण, आनन्द, हर्ष को प्रदान करने वाली गृहपत्नी (आ अगन्) आती है। उस (अमा-वास्यायै) सहवास करनेहारी गृहपत्नी को हम (हविषा) अन्न आदि उत्तम पदार्थों से (विधेम) प्रसन्न करें। वह (ऊर्जं दुहाना) अन्नरस प्रदान करती हुई (पयसा) दूध के पुष्टिकारक पदार्थों के साथ (नः) हमें (आ अगन्) प्राप्त हो।
आध्यात्म पक्ष में—योगियों को रमण करानेवाली (वसूनां संगमनी) मुक्त जीवों को एकत्र वास देनेवाली, मुक्तिरूप रात्रि तक (ऊर्जम्) ब्रह्मानन्दरस रूप धन का प्रदान करती हुई प्राप्त होती है। उस अमावास्या को जिसमें जीव और ब्रह्म एकत्र वास करते हैं अपने ज्ञान हवि से परिचर्या कर (पयसा) ब्रह्मज्ञान के साथ (ऊर्जम्) ब्रह्मरस प्रदान करती हुई प्राप्त होती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ता अमावास्या देवता। १ जगती। २, ४ त्रिष्टुभः। चतुर्ऋचं सूक्तम्।
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