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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 80

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 80/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - पौर्णमासी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पूर्णिमा सूक्त

    पौ॑र्णमा॒सी प्र॑थ॒मा य॒ज्ञिया॑सी॒दह्नां॒ रात्री॑णामतिशर्व॒रेषु॑। ये त्वां य॒ज्ञैर्य॑ज्ञिये अ॒र्धय॑न्त्य॒मी ते॒ नाके॑ सु॒कृतः॒ प्रवि॑ष्टाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पौ॒र्ण॒ऽमा॒सी । प्र॒थ॒मा । य॒ज्ञिया॑ । आ॒सी॒त् । अह्ना॑म् । रात्री॑णाम् । अ॒ति॒ऽश॒र्व॒रेषु॑ । ये । त्वाम् । य॒ज्ञै: । य॒ज्ञि॒ये॒ । अ॒र्धय॑न्ति । अ॒मी इति॑ । ते । नाके॑ । सु॒ऽकृत॑:। प्रऽवि॑ष्टा: ॥८५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पौर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पौर्णऽमासी । प्रथमा । यज्ञिया । आसीत् । अह्नाम् । रात्रीणाम् । अतिऽशर्वरेषु । ये । त्वाम् । यज्ञै: । यज्ञिये । अर्धयन्ति । अमी इति । ते । नाके । सुऽकृत:। प्रऽविष्टा: ॥८५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 80; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (पौर्णमासी) पूर्ण ब्रह्म की सर्वव्यापिनी और सबकी उत्पादिका शक्ति (प्रथमा) सबसे पूर्ण और सबसे अधिक श्रेष्ठ (यज्ञिया) यज्ञ, परमात्मा की वह शक्ति (आसीत्) है, जो (अह्नान्) दिनों और (रात्रीणाम्) रातों के समय में (अतिशर्वरेषु) और शर्वरी = महाप्रलय कालों को भी अतिक्रमण करके वर्तमान रहती है। हे (यज्ञिये) यज्ञमय परमेश्वर की उत्पादक शक्ते ! (ये) जो (त्वां) तुझको (यज्ञैः) यज्ञों, प्रजापति की नाना शक्तियों के अनुकरणों द्वारा (अर्धयन्ति) समृद्ध करते, ब्रह्म की ही महिमा को बढ़ाते हैं (ते) वे (सुकृतः) पुण्यात्मा लोग (नाके) परम सुखमय लोक में (प्रविष्टाः) प्रविष्ट होते हैं। ईश्वर के गुणों को अपने भीतर धारण कर अपने आत्मा को उन्नत करके परोपकार के कार्य करनेवाले महात्मा लोग उस उत्पादक प्रभु का साक्षात् करते और मुक्ति लाभ करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। पौर्णमासी प्रजापतिर्देवता। १, ३, ४ त्रिष्टुप्। ४ अनुष्टुप्।चतुर्ऋचं सूक्तम्।

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