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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 95

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 2
    सूक्त - कपिञ्जलः देवता - गृध्रौ छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अ॒हमे॑ना॒वुद॑तिष्ठिपं॒ गावौ॑ श्रान्त॒सदा॑विव। कु॑र्कु॒रावि॑व॒ कूज॑न्तावु॒दव॑न्तौ॒ वृका॑विव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । ए॒नौ॒ । उत् । अ॒ति॒ष्ठि॒प॒म् । गावौ॑ । श्रा॒न्त॒सदौ॑ऽइव । कु॒र्कु॒रौऽइ॑व । कूज॑न्तौ । उ॒त्ऽअव॑न्तौ । वृकौ॑ऽइव ॥१००.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमेनावुदतिष्ठिपं गावौ श्रान्तसदाविव। कुर्कुराविव कूजन्तावुदवन्तौ वृकाविव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । एनौ । उत् । अतिष्ठिपम् । गावौ । श्रान्तसदौऽइव । कुर्कुरौऽइव । कूजन्तौ । उत्ऽअवन्तौ । वृकौऽइव ॥१००.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (श्रान्तसदौ गावौ इव) थककर या हारकर बैठे हुए बैलों को जिस प्रकार उनका गाड़ीवान् पुनः उनकी पूंछ मरोड़कर फिर उठाता है, और जिस प्रकार (कूजन्तौ) गुर्राते हुए (कुर्कुरौ-इव) कुत्ते ऊपर को उछलते हैं, और जिस प्रकार (उत्-अवन्तौ) ऊपर को झपटते हुए (वृकौ-इव) भेड़िये उछलते हैं, उसी प्रकार, (अहं) मैं परमात्मा, शरीर के जीर्ण हो जाने पर (एनौ) इन दोनों जीव और मन को (उत्-अतिष्ठिपम्) उपर को बैंच लेता हूं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कपिञ्जल ऋषिः। गृध्रौ देवते। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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