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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 95/ मन्त्र 3
सूक्त - कपिञ्जलः
देवता - गृध्रौ
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
आ॑तो॒दिनौ॑ नितो॒दिना॒वथो॑ संतो॒दिना॑वु॒त। अपि॑ नह्याम्यस्य॒ मेढ्रं॒ य इ॒तः स्त्री पुमा॑ञ्ज॒भार॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽतो॒दिनौ॑ । नि॒ऽतो॒दिनौ॑ । अथो॒ इति॑ । स॒म्ऽतो॒दिनौ॑ । उ॒त । अपि॑ । न॒ह्या॒मि॒। अ॒स्य॒ । मेढ्र॑म् । य: । इ॒त: । स्त्री । पुमा॑न् । ज॒भार॑ ॥१००.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आतोदिनौ नितोदिनावथो संतोदिनावुत। अपि नह्याम्यस्य मेढ्रं य इतः स्त्री पुमाञ्जभार ॥
स्वर रहित पद पाठआऽतोदिनौ । निऽतोदिनौ । अथो इति । सम्ऽतोदिनौ । उत । अपि । नह्यामि। अस्य । मेढ्रम् । य: । इत: । स्त्री । पुमान् । जभार ॥१००.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 95; मन्त्र » 3
विषय - जीव के आत्मा और मनकी ऊर्ध्वगति।
भावार्थ -
ये दोनों मरण काल में शरीर से निकलते समय इस शरीर में (आ-तोदिनौ) सर्वत्र व्यथा उत्पन्न करते हैं, (नि-तौदिनौ) खूब ही तीव्र वेदना उत्पन्न करते हैं, (नि-तौदिनौ) समस्त अंगों में व्यथा उत्पन्न किया करते हैं। (यः) जो भी जीव (स्त्री) चाहे वह स्त्री हो और (पुमान्) चाहे वह पुरुष हो तो भी (इतः) इस लोक से (जभार*) दूसरे लोक में जाता है। मैं मृत्यु रूप व्यवस्थापक ईश्वर (अस्य) इस शरीरधारी प्राणी के (मेढम्) लिंग भाग को (अपि नह्यामिम) बांध देता हूं। मरणासन्न जीव को जीवन के अन्तिम समय मूत्र नहीं आता।
‘तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवतः इदं च परलोकस्थानं च। सान्ध्यं तृतीयं स्थानं तस्मिन् सन्ध्ये स्थाने पश्यति’ इत्यादि बृहदारण्यक उप० ४। ३। ९॥ कौशिक सूत्रकार ने मण्डूक का शिर काटने इस मन्त्र का विनियोग किया है। ठीक है। मनोविज्ञान और जीवनविज्ञान के जानने के लिये मेंडक का सिर काट कर नाड़ी और प्राणों की गति के उत्तम निरीक्षण करने की विधि वर्तमान के वैज्ञानिकों के अनुसार प्राचीन काल में भी थी। जिसको सायणादि ने नहीं समझा।
टिप्पणी -
*हृ गतौ इत्यस्य ‘जभार’ गच्छामीत्यर्थः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कपिञ्जल ऋषिः। गृध्रौ देवते। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥
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