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अथर्ववेद > काण्ड 8 > सूक्त 10 > पर्यायः 2

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  • अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - साम्न्यनुष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त

    ओष॑धीरे॒वास्मै॑ रथन्त॒रं दु॑हे॒ व्यचो॑ बृ॒हत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओष॑धी: । ए॒व । अ॒स्मै॒ । र॒थ॒मऽत॒रम् । दु॒हे॒ । व्यच॑: । बृ॒हत् ॥११.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओषधीरेवास्मै रथन्तरं दुहे व्यचो बृहत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओषधी: । एव । अस्मै । रथमऽतरम् । दुहे । व्यच: । बृहत् ॥११.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 2; मन्त्र » 9

    भावार्थ -
    (यः एवं वेद) जो इस प्रकार विराट् के गूढ़ रहस्य को जानता है (अस्मै) उसके लिये (रथन्तरं ओषधीः एव दुहे) ‘रथन्तर’ नाम स्तन ओषधियों को ही प्रदान और पूर्ण करता है, (बृहत् व्यचः) ‘बृहत्’ नाम स्तन ‘व्यचस्’ को प्रदान और पूर्ण करता है, (वासदेव्यं अपः) वामदेव्य स्तन अपः=जलों को प्रदान और पूर्ण करता है। और यज्ञायज्ञिय नाम का स्तन यज्ञ को प्रदान करता और पूर्ण करता है। संक्षेप से देवों और मनुष्यों के उपजीवक विराड् के अन्तरिक्ष में चार रूप हैं। ऊर्ज, स्वधा, सूनृता, इरावती। उनका वत्स इन्द्र, रस्सी गायत्री, स्तनमण्डल मेघ हैं। उस विराड रूप गौ के ४ स्तन हैं बृहत्, रथन्तर यज्ञायज्ञिय और वामदेव्य, उनसे चार प्रकार का दूध प्राप्त किया ओषधि, व्यचस्, अपः और यज्ञ। विराड् शक्ति के या द्यौ=आदित्य के अन्तरिक्ष में चार ऊर्ज=अन्न, स्वधा=प्राण और अन्न, सूनृता=उत्तम वाणि, वाक् विद्युद् गर्जना, इरावती=जलों या अन्नों से पूर्ण पृथिवी। वत्स इन्द्र=वायु या स्वतः जीव है। गायत्री=पृथिवी है अपने साथ उसे बांधे है। मेघ उसके स्तन मण्डल है। मेघों के ४ स्तन हैं १. बृहत् द्यौः, उससे व्यचः=अन्न उत्पन्न है। जैसा कालिदास ने लिखा है “दुदोह गां स यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम्’ (रघु०)। २. दूसरा स्तन रथन्तर है। रसतमं ह वै रथन्तरम् इत्याचक्षते परोक्षम्। श० ९। १। २।३॥ इयं वै पृथिवी रथन्तरम्। ऐ० ८। १॥ रथन्तर यह पृथिवी है। इससे नाना ओषधियां उत्पन्न हुई। (३) तीसरा स्तन ‘यज्ञायतिय’ है। पशवोऽन्नाद्यं यज्ञायज्ञीयं। तां० १५ । ९। १२। पशु और अन्नादि खानेवाले जन्तु ‘यज्ञायज्ञिय’ हैं। उनसे ‘यज्ञ’ उत्पन्न हुआ। (४) वामदेव्य चौथा स्तन अन्तरिक्ष है। अन्तरिक्षं वै वाम देव्यम्। ता० १५। १२। ५॥ उससे जलों की वर्षा हुई।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ त्रिपदा अनुष्टुप्। २ उष्णिग् गर्भा चतुष्पदा उपरिष्टाद् विराड् बृहती। ३ एकपदा याजुषी गायत्री। ४ एकपदा साम्नी पंक्तिः। ५ विराड् गायत्री। ६ आर्ची अनुष्टुप्। ८ आसुरी गायत्री। ९ साम्नो अनुष्टुप्। १० साम्नी बृहती। ७ साम्नी पंक्तिः। दशर्चं सूक्तम्॥

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