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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 136 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 136/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    अद॑र्शि गा॒तुरु॒रवे॒ वरी॑यसी॒ पन्था॑ ऋ॒तस्य॒ सम॑यंस्त र॒श्मिभि॒श्चक्षु॒र्भग॑स्य र॒श्मिभि॑:। द्यु॒क्षं मि॒त्रस्य॒ साद॑नमर्य॒म्णो वरु॑णस्य च। अथा॑ दधाते बृ॒हदु॒क्थ्यं१॒॑ वय॑ उप॒स्तुत्यं॑ बृ॒हद्वय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अद॑र्शि । गा॒तुः । उ॒रवे॑ । वरी॑यसी । पन्थाः॑ । ऋ॒तस्य॑ । सम् । अ॒यं॒स्त॒ । र॒श्मिऽभिः॑ । चक्षुः॑ । भग॑स्य । र॒श्मिऽभिः॑ । द्यु॒क्षम् । मि॒त्रस्य॑ । साद॑नम् । अ॒र्य॒म्णः । वरु॑णस्य । च॒ । अथ॑ । द॒धा॒ते॒ इति॑ । बृ॒हत् । उ॒क्थ्य॑म् । वयः॑ । उ॒प॒ऽस्तुत्य॑म् । बृ॒हत् । वयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदर्शि गातुरुरवे वरीयसी पन्था ऋतस्य समयंस्त रश्मिभिश्चक्षुर्भगस्य रश्मिभि:। द्युक्षं मित्रस्य सादनमर्यम्णो वरुणस्य च। अथा दधाते बृहदुक्थ्यं१ वय उपस्तुत्यं बृहद्वय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदर्शि। गातुः। उरवे। वरीयसी। पन्थाः। ऋतस्य। सम्। अयंस्त। रश्मिऽभिः। चक्षुः। भगस्य। रश्मिऽभिः। द्युक्षम्। मित्रस्य। सादनम्। अर्यम्णः। वरुणस्य। च। अथ। दधाते इति। बृहत्। उक्थ्यम्। वयः। उपऽस्तुत्यम्। बृहत्। वयः ॥ १.१३६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 136; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं प्राप्य कीदृशा भवन्तीत्याह ।

    अन्वयः

    येनोरवे वरीयसी गातुरदर्शि यत्र सूर्य्यस्य रश्मिभिरिव रश्मिभिस्सह चक्षुर्ऋतस्य भगस्य पन्थाः समयंस्त मित्रस्यार्य्यम्णो वरुणस्य द्युक्षं सादनं समयंस्ताथ वयो बृहदिव ये वय उपस्तुत्यं बृहदुक्थ्यं दधति यौ दधाते ते सुखं प्राप्नुवन्ति ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अदर्शि) (गातुः) भूमिः (उरवे) विस्तृताय (वरीयसी) अतिशयेन वरा (पन्थाः) मार्गः (ऋतस्य) जलस्य (सम्) (अयंस्त) उपयच्छति (रश्मिभिः) किरणैः (चक्षुः) नेत्रम् (भगस्य) सूर्यस्येव धनस्य। भग इति धनना०। निघं० २। १०। (रश्मिभिः) किरणैः (द्युक्षम्) द्युलोकस्थम् (मित्रस्य) सुहृदः (सादनम्) सीदन्ति यस्मिँस्तत्। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (अर्यम्णः) न्यायाधीशस्य (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (च) (अथ) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दधाते) (बृहत्) महत् (उक्थ्यम्) वक्तुं योग्यम् (वयः) पक्षिणः (उपस्तुत्यम्) (बृहत्) (वयः) कमितारः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यप्रकाशेन पृथिव्यां मार्गा दृश्यन्ते तथैवोत्तमानां विदुषां सङ्गेन सत्या विद्याः प्रकाश्यन्ते यथा पक्षिण उत्तममाश्रयं प्राप्यानन्दन्ति तथा सद्विद्याः प्राप्य जनाः सदा सुखयन्ति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या पाकर कैसे होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जिससे (उरवे) बहुत बड़े के लिए (वरीयसी) अतीव श्रेष्ठ (गातुः) भूमि (अदर्शि) दीखती वा जहाँ सूर्य के (रश्मिभिः) किरणों के समान (रश्मिभिः) किरणों के साथ (चक्षुः) नेत्र (ऋतस्य) जल और (भगस्य) सूर्य के समान धन का (पन्था) मार्ग (समयंस्त) मिलता वा (मित्रस्य) मित्र (अर्यम्णः) न्यायाधीश और (वरुणस्य) श्रेष्ठ पुरुष का (द्युक्षम्) प्रकाशलोकस्थ (सादनम्) जिसमें स्थिर होते वह घर प्राप्त होता (अथ) अथवा जैसे (वयः) बहुत पखेरू (बृहत्) एक बड़े काम को वैसे जो (वयः) मनोहर जन (उपस्तुत्यम्) समीप में प्रशंसनीय (बृहत्) बड़े (उक्थ्यम्) और कहने योग्य काम को धारण करते (च) और जो दो मिलकर किसी काम को (दधाते) धारण करते, वे सब सुख पाते हैं ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य के प्रकाश से भूमि पर मार्ग दीखते हैं, वैसे ही उत्तम विद्वानों के सङ्ग से सत्य विद्याओं का प्रकाश होता है वा जैसे पखेरू उत्तम आश्रय स्थान पाकर आनन्द पाते हैं, वैसे उत्तम विद्याओं को पाकर मनुष्य सब कभी सुख पाते हैं ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रकाशमय जीवन

    पदार्थ

    १. (गातुः) = निरन्तर गमनशील, (वरीयसी) = उत्कृष्ट उषा (उरवे) = विस्तार के लिए (अदर्शि) = दृष्टिगोचर हुई है, अर्थात् उषा के आते ही यह आकाश विस्तारवाला हो गया है। रात्रि के अन्धकार में तो यह संकुचित सा हो गया था। (ऋतस्य) = सूर्य का [सृ गतौ ॠ गतौ] (पन्थाः) = मार्ग (रश्मिभिः) = किरणों से (समयंस्त) = संगत हुआ है, अर्थात् सूर्य की किरणों ने सारे आकाश मार्ग को प्रकाश से भर दिया है। (भगस्य) = [भज सेवायाम्] सेवनीय प्रातः कालीन सूर्य की (रश्मिभिः) = किरणों से (चक्षुः) = आँख [समयंस्त संगत] हई है. २. जिस प्रकार बाह्यजगत में प्रकाश हो गया है, उसी प्रकार मेरा यह शरीर भी (मित्रस्य वरुणस्य च अर्यम्णः) = मित्र, वरुण और अर्यमा का (द्युक्षं सादनम्) = ज्योतिर्मय निवासस्थान बने [द्यु+क्षि-निवास]। मेरे मन में सबके प्रति स्नेह की भावना हो [मित्र], मैं द्वेष से सदा दूर रहूँ [वरुण] तथा काम-क्रोधादि दोषों के नियमन की मेरी वृत्ति हो [अर्यमा]। राग-द्वेषादि के कारण मेरा हृदयाकाश मलिन न हुआ रहे। ३. (अथ) = अब ये मित्र और वरुण (बृहत्) = वृद्धि को प्राप्त होनेवाले (उक्थ्यम्) = स्तुत्य (वयः) = जीवन को (उपस्तुत्यं बृहद् वयः) = सचमुच प्रशंसनीय वर्धमान शक्तिवाले जीवन को (दधाते) = धारण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा और सूर्य जैसे बाह्यजगत् को प्रकाशमय बनाते हैं, उसी प्रकार मेरा अन्तर्जगत् भी मित्र, वरुण व अर्यमा का प्रकाशमय निवास स्थान बने। मेरा जीवन प्रशस्त हो।

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    विषय

    शासकों को न्यायोचित व्यवहार का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( उरवे ) महान् पराक्रमशाली पुरुष के लिये ही यह ( वरीयसी ) अति श्रेष्ठ, वरण करने योग्य बड़ी भारी ( गातुः ) भूमि ( अदर्शि ) देख पड़ती है । ( भगस्य रश्मिभिः ) सूर्य की किरणों से जिस प्रकार ( चक्षुः सम् अयस्त ) चक्षु युक्त होता है और शक्तिशाली हो जाता है और ( ऋतस्य पन्थाः ) सत्य ज्ञान का मार्ग भी (रश्मिभिः) सूर्य की किरणों से ( सम् अयंस्त ) प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार ( भगस्य ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर की ( रश्मिभिः ) ज्ञानमय किरणों से ( चक्षुः ) भीतरी नेत्र युक्त होते और ( ऋतस्य ) सत्य ज्ञान सुख और ब्रह्म का ( पन्थाः ) मार्ग भी ( रश्मिभिः ) उन ज्ञानमय किरणों से ( सम् अयंस्त ) उपलब्ध हो जाता है। उसी प्रकार ( भगस्य ) सबसे सेवन योग्य, सबको सुख देने वाले ऐश्वर्यवान् और स्वतः ऐश्वर्य के ( रश्मिभिः ) वशकारी या मनोमोहक साधनों से ( चक्षुः ) लोगों को आंख, और विवेक चक्षु भी ( सम् अयंस्त ) भली प्रकार बंध जाती है ( ऋतस्य ) धन और अन्न, जीविका का ( पन्थाः ) मार्ग (सम् अयंस्त) सुसंयत हो जाता है। अथवा ( रश्मिभिः ) बन्धनों से धन के कारण ( ऋतस्य ) सत्य विवेक का मार्ग ( सम् अयंस्त ) संयत या रुद्ध हो जाता है । ( मित्रस्य ) सबके स्नेही प्राण के समान जीवनप्रद ( अर्यम्णः ) शत्रुओं को नियम में बांधने वाले और सर्व श्रेष्ठ, न्यायकारी और ( वरुणस्य च ) सर्व श्रेष्ठ और दुःखों और दुष्टों के वाले पुरुष का ( सादनम् ) आसन, पद ( द्युक्षम् ) अन्तरिक्ष के समान ऊंचा और सूर्य के समान तेजो युक्त हो । ( अथा ) और मित्र और वरुण, न्यायाधीश और राजा दोनों ही ( वृहद् उक्थ्यम् ) बड़े भारी, प्रशंसनीय (वयः) बल को ( दुधाते ) धारण करें और ( वृहत् उपस्तुत्यं वयः ) बड़े स्तुति योग्य, दीर्घ आयु और ज्ञान को भी धारण करें। अथवा, उक्त मित्र, अर्यमा और वरुण तीनों ( वयः ) पक्षियों के समान स्वतन्त्रचारी होकर, ( वयः ) प्रज्ञा के सुख सौभाग्य की कामना करते हुए ज्ञानवान् होकर ( वृहत् ) बड़े भारी ( उक्थ्यं ) वेद ज्ञान और (बृहत् उपस्तुत्यं) बड़े भारी स्तुति योग्य यश को ( दधाते ) धारण करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-७ परुच्छेप ऋषिः ॥ १-५ मित्रावरुणौ । ६—७ मन्त्रोक्ता देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ६ स्वराडत्यष्टिः । २ निचृदष्टिः । ४ भुरिगष्टिः । ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्यप्रकाशात भूमीवरील मार्ग दिसतो तसेच उत्तम विद्वानांच्या संगतीने सत्य विद्या प्रकट होते. जशी पाखरे उत्तम स्थानाचा आश्रय घेऊन आनंद प्राप्त करतात. तसेच उत्तम विद्या प्राप्त करून माणसे नेहमी सुख मिळवितात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The great earth is lit for a wide range of activities for the day. The path of Rtam, divine truth of Law and yajna is revealed by the rays of the sun, bright as the rays themselves, as the eye of the lord of world’s wealth has opened with the sun. The heavenly seats of Mitra, Aryama and Varuna, lords of love, justice and freedom, are bright on high. The divinities of nature bear and bring for humanity admirable food, health and long age. The noblest of humanity bear and offer holy offerings to the divinities of yajna with faith and holy chants of Vedic hymns.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are men after getting what is told in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    This earth is seen fine or beautiful for a person of great might. As by the rays of the sun the eyes of men are opened and the path of true knowledge of external objects including that of water is clear, so by the rays of knowledge of the Divine Adorable Sun ( God) the internal eyes of men are opened enabling them to acquire true knowledge. The seat of Mitra ( a man who looks upon all beings as his friends) (Varuna-an excellent, most acceptable person dispeller of all darkness ), and Aryama ( dispenser of justice or a judge) is very high, being in the world of light, in the sky so to speak. As the birds move freely, so those persons who desire the welfare of all and are always engaged in the performance of admirable and praise worthy great works, enjoy happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( धुक्षम् ) धुलोकस्थम् = Seated in the heaven or exalted, being in the light of knowledge ( गातुः ) भूमि:= earth. ( वय: ) १ पक्षिण: २ कमितार: = 1 Birds 2 Desiring welfare of all. (अर्यम्णः ) न्यायाधीशस्य = Of a dispenser of justice or judge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As by the light of the sun, all paths on the earth are clearly seen, in the same manner, all true knowledge is manifested by the association of good and highly learned persons. As the birds enjoy happiness by taking shelter in a good place, in the same manner, men enjoy happiness by acquiring good knowledge.

    Translator's Notes

    वयः is from वी-गतिव्याप्ति प्रजन कान्त्यसन खादनेषु here the meaning of कान्ति or desire has been taken.यज्ञो वा अर्यमा ( तैत्तिरीय २, ३, ५, ४ अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति ( तैत्तिरीय १.१.२.४ ) अर्यान्-श्रेष्ठान् मिमीते इति । Hence the word अर्यमा is used for a respectable liberal dispenser of justice or giver. न्यायं ददातीति गातुरिति पृथिवी नाम ( निघ० १. १ )

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