ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 136/ मन्त्र 3
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
ज्योति॑ष्मती॒मदि॑तिं धार॒यत्क्षि॑तिं॒ स्व॑र्वती॒मा स॑चेते दि॒वेदि॑वे जागृ॒वांसा॑ दि॒वेदि॑वे। ज्योति॑ष्मत्क्ष॒त्रमा॑शाते आदि॒त्या दानु॑न॒स्पती॑। मि॒त्रस्तयो॒र्वरु॑णो यात॒यज्ज॑नोऽर्य॒मा या॑त॒यज्ज॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठज्योति॑ष्मतीम् । अदि॑तिम् । धा॒र॒यत् ऽक्षि॑तिम् । स्वः॑ऽवतीम् । आ । स॒चे॒ते॒ इति॑ । दि॒वेऽदि॑वे । जा॒गृ॒ऽवांसा॑ । दि॒वेऽदि॑वे । ज्योति॑श्मत् । क्ष॒त्रम् । आ॒शा॒ते॒ इति॑ । आ॒दि॒त्या । दानु॑नः । पती॑ । मि॒त्रः । तयोः॑ । वरु॑णः । या॒त॒यत्ऽज॑नः । अ॒र्य॒मा । या॒त॒यत्ऽज॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ज्योतिष्मतीमदितिं धारयत्क्षितिं स्वर्वतीमा सचेते दिवेदिवे जागृवांसा दिवेदिवे। ज्योतिष्मत्क्षत्रमाशाते आदित्या दानुनस्पती। मित्रस्तयोर्वरुणो यातयज्जनोऽर्यमा यातयज्जनः ॥
स्वर रहित पद पाठज्योतिष्मतीम्। अदितिम्। धारयत् ऽक्षितिम्। स्वःऽवतीम्। आ। सचेते इति। दिवेऽदिवे। जागृऽवांसा। दिवेऽदिवे। ज्योतिष्मत्। क्षत्रम्। आशाते इति। आदित्या। दानुनः। पती। मित्रः। तयोः। वरुणः। यातयत्ऽजनः। अर्यमा। यातयत्ऽजनः ॥ १.१३६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 136; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः किंवत्किं प्राप्तव्यमित्याह ।
अन्वयः
यथाऽऽदित्या दिवेदिवे स्वर्वतीं धारयत्क्षितिं ज्योतिष्मतीमदितिमासचेते तथा यातयज्जनोऽर्यमा वरुणो यातयज्जनो मित्रश्च दानुनस्पती जागृवांसा सभासेनेशौ दिवेदिवे ज्योतिष्मत् क्षत्रमाशाते तयोः प्रभावेण सर्वाः प्रजाः सेनाश्चाऽत्यन्तं सुखं प्राप्नुवन्ति ॥ ३ ॥
पदार्थः
(ज्योतिष्मतीम्) बहुतेजोयुक्ताम् (अदितिम्) दिवम् (धारयत्क्षितिम्) भूमिं धरन्तीम् (स्वर्वतीम्) बहुसुखकारिकाम् (आ) (सचेते) समवेतः (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (जागृवांसा) जागृतौ (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (ज्योतिष्मत्) बहुन्याययुक्तम् (क्षत्रम्) राज्यम् (आशाते) प्राप्नुतः (आदित्या) सूर्यप्राणौ (दानुनः) दानस्य (पती) पालयितारौ (मित्रः) सर्वप्राणः (तयोः) (वरुणः) वरः (यातयज्जनः) यातयन्तः प्रयत्नकारयितारो जना यस्य सः (अर्यमा) न्यायेशः (यातयज्जनः) पुरुषार्थवत्पुरुषः ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यप्राणवद्योगिवच्च सचेतना भूत्वा विद्याविनयधर्मैः सेनाः प्रजाश्च रञ्जयन्ति तेऽत्यन्तं यशः प्राप्नुवन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को किसके समान क्या पाना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जैसे (आदित्या) सूर्य और प्राण (दिवेदिवे) प्रतिदिन (स्वर्वतीम्) बहुत सुख करनेवाले (धारयत्क्षितिम्) और भूमि को धारण करते हुए (ज्योतिष्मतीम्) प्रकाशवान् (अदितिम्) द्युलोक का (आसचेते) सब ओर से सम्बन्ध करते हैं, वैसे (यातयज्जनः) जिसके अच्छे प्रयत्न करानेवाले मनुष्य हैं वह (अर्यमा) न्यायाधीश (वरुणः) श्रेष्ठ प्राण तथा (यातयज्जनः) पुरुषार्थवान् पुरुष (मित्रः) सबका प्राण और (दानुनः) दान की (पती) पालना करनेवाले (जागृवांसा) सब काम में जगे हुए सभा सेनाधीश (दिवेदिवे) प्रतिदिन (ज्योतिष्मत्) बहुत न्याययुक्त (क्षत्रम्) राज्य को (आशाते) प्राप्त होते (तयोः) उनके प्रभाव से समस्त प्रजा और सेनाजन अत्यन्त सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य, प्राण और योगीजन के समान सचेत होकर विद्या, विनय और धर्म से सेना और प्रजाजनों को प्रसन्न करते हैं, वे अत्यन्त यश पाते हैं ॥ ३ ॥
विषय
ज्योतिष्मती, अदिति व स्वर्वती क्षिति
पदार्थ
१. मनुष्य को चाहिए कि वह (क्षितिम्) = [क्षेत्रम्] शरीर को (धारयत्) = धारण करे। कैसे शरीर को ? (ज्योतिष्मतीम्) = विज्ञानमयकोश में ज्ञान से परिपूर्ण शरीर को, (अ-दितिम्) = अन्नमय व प्राणमयकोश में न खण्डित होनेवाले अर्थात् स्वस्थ शरीर को (स्वर्वतीम्) = मनोमयकोश में (स्वयं राजते 'स्वर') स्वयं शासन की भावनावाले को । वस्तुतः मित्र और वरुण अर्थात् प्राणापान (दिवेदिवे) = प्रतिदिन ऐसे ही शरीर को (आ सचेते) = सर्वथा समवेत करते हैं। प्राणापान की साधना से ऐसा ही शरीर प्राप्त होता है ये मित्र और वरुण-प्राणापान (दिवेदिवे) = प्रतिदिन -सदा (जागृवांसा) = जागरणशील हैं। अन्य इन्द्रियाँ थककर सो जाती हैं, परन्तु प्राणापान जागते ही रहते हैं। २. ये प्राणापान (ज्योतिष्मत् क्षत्रम्) = ज्ञान के प्रकाश से युक्त बल (आशाते) = व्याप्त करते हैं। इनकी साधना से मस्तिष्क ज्योतिर्मय होता है तो शरीर बल सम्पन्न बनता है। (आदित्या) = सब अच्छाइयों का आधान करनेवाले ये प्राणापान हैं [आदानात् आदित्यः], (दानुनः पती) = [दाप् लवने] सब प्रकार के खण्डन से ये बचानेवाले हैं। ३. (तयो:) = इनमें (मित्रः) = प्राण तथा (वरुण:) = अपान भी (यातयत् जनः) = [स्व-स्व- व्यपार नियोजितसर्वजन:- सा०] सब लोगों को अपने-अपने कार्य में प्रेरित करनेवाले हैं। मित्र और वरुण के साथ होनेवाला (अर्यमा) = काम-क्रोधादि शत्रुओं का नियमन भी [अरीन् यच्छति] (यातयज्जनः) = लोगों को अपने-अपने व्यपार में प्रेरित करता है। मित्र, वरुण व अर्यमा को अपनाने पर, अर्थात् प्राणापान की साधना के द्वारा काम-क्रोधादि को वश में करने पर हम अपने-अपने कार्यों में सुचारुरूपेण प्रवृत्त होते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान की साधना होने पर यह शरीर नगरी 'ज्योतिष्मती, अदिति व वर्चस्विनी' बनती है। ज्ञान व शक्ति को प्राप्त करके हम स्वकार्यप्रवृत्त बने रहते हैं ।
विषय
सूर्यचन्द्रादिवत् व्यवस्थापकों का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( आदित्याः ) अदिति अर्थात् आकाश में रहने वाले सूर्य और चन्द्र जिस प्रकार ( धारयत्-क्षितिं ) पृथ्वी को धारण करने वालो ( स्वर्वतीम् ) प्रकाश और ताप से युक्त या सूर्य से युक्त ( ज्योतिष्मतीम् ) ज्योतिर्मय ग्रह नक्षत्रों से युक्त ( अदितिं ) अविनाशी अखण्ड आकाश को ( दिवे दिवे ) प्रतिदिन ( जागृवांसा ) सदा जागृत नियम पूर्वक (आ सचेते) प्राप्त होते हैं उसी प्रकार (मित्रः वरुणः) मित्र और वरुण सर्वस्नेही, सभाधीश, और दुष्टों का वारक सेनापति दोनों ( दिवे दिवे ) प्रतिदिन ( जागृवांसा ) सदा जागते हुए, नित्य सावधान रह कर, ( स्वर्वतीम् ) सुखजनक ऐश्वर्यों से युक्त ( ज्योतिष्मतीम् ) ज्योतिर्युक्त रत्नों को धारण करने वाली ( धारयत्-क्षितिं ) निवास करने वाले प्राणियों और मनुष्यों को धारण करने वाली (अदितिं) पृथिवी को ( आसचेते ) अच्छी प्रकार से धारण करें। वे दोनों ( दानुनस्पती ) दान देने योग्य ऐश्वर्य और दानशील जनों और शत्रु के बल के जोड़ने वाले वीर पुरुषों के पालक ( आदित्या ) अदिति, अर्थात् अखण्ड पृथ्वीराज्य के स्वामी, वे सूर्य के समान तेजस्वी, वा पृथ्वी माता के दो पुत्रों के समान (ज्योतिष्मत् क्षत्रम्) न्यायप्रकाश, ऐश्वर्य और तेज से युक्त बलवीर्य, और राज्य को ( आशाते ) प्राप्त हों । ( तयोः ) उनके अधीन ( अर्यमा ) दुष्ट पुरुषों को नियमन करने में समर्थ न्यायाधीश ( यातयज्जनः ) दुष्टों को पीड़ा देने वाले पुरुषों का स्वामी होकर ( यातयज्जनः ) समस्त राष्ट्रवासी जनों को सन्मार्ग में प्रेरणा करने वाला हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-७ परुच्छेप ऋषिः ॥ १-५ मित्रावरुणौ । ६—७ मन्त्रोक्ता देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ६ स्वराडत्यष्टिः । २ निचृदष्टिः । ४ भुरिगष्टिः । ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्य, प्राण व योगी यांच्याप्रमाणे जागृत राहून विद्या, विनय व धर्माने सेना व प्रजा यांना प्रसन्न करतात. ते अत्यंत यश प्राप्त करतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mitra and Varuna, centripetal and centrifugal powers of cosmic energy, which are the Adityas, children of Aditi, infinite and inviolable power of the omnipotent Lord, sustain the beautiful and paradisal indivisible earth joined with the self-luminant heaven day by day constantly. Ever wakeful are they, day in and day out, without a wink of sleep. They are supporters and protectors of the generous and motivated people and they pervade, unite and maintain the grand order of the earth and the world. Aryama, cosmic dynamics, ordains and harmonises the powers of the two, Mitra and Varuna, inspires the human creation and impels the entire universe of the Lord’s creation.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should learned persons achieve like whom is told in the third Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the sun and the Prana uphold the bright and happiness-conferring heaven, which is the upholder of the earth, in the same manner the President of the Assembly and commander-in-chief of the army who are like the sun and Prana are vigilant every day. They are protectors of munificence. They are animators or inspires of mankind, making all men industrious. All these three including the dispenser of justice are animators of mankind, prompting all to become industrious. They rule over a State which is full of the light of justice.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अदितिम् ) दिवम् = The heaven. ( आदित्या ) सूर्यप्राणौ = The sun and the Prana. ( याततज्जना ) यातयन्तः प्रयत्न कारयितारो जना - यस्य Whose men are industrious, For the meaning of अदिति as दिवम् | There is the authority of the Veda itself in अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षम् ( ऋ० १. ८९, १० ) ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who being like the sun and the Prana, like great Yogis, being ever alert or vigilant please their subjects and army with knowledge, humility and Dharma (righteousness ) get good reputation..
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