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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 138 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 138/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परुच्छेपो देवता - पूषा छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    प्र हि त्वा॑ पूषन्नजि॒रं न याम॑नि॒ स्तोमे॑भिः कृ॒ण्व ऋ॒णवो॒ यथा॒ मृध॒ उष्ट्रो॒ न पी॑परो॒ मृध॑:। हु॒वे यत्त्वा॑ मयो॒भुवं॑ दे॒वं स॒ख्याय॒ मर्त्य॑:। अ॒स्माक॑माङ्गू॒षान्द्यु॒म्निन॑स्कृधि॒ वाजे॑षु द्यु॒म्निन॑स्कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । हि । त्वा॒ । पू॒ष॒न् । अ॒जि॒रम् । न । याम॑नि । स्तोमे॑भिः । कृ॒ण्वे । ऋ॒णवः॑ । यथा॑ । मृधः॑ । उष्ट्रः॑ । न । पी॒प॒रः॒ । मृधः॑ । हु॒वे । यत् । त्वा॒ । म॒यः॒ऽभुव॑म् । दे॒वम् । स॒ख्याय॑ । मर्त्यः॑ । अ॒स्माक॑म् । आ॒ङ्गू॒षाम् । द्यु॒म्निनः॑ । कृ॒धि॒ । वाजे॑षु । द्यु॒म्निनः॑ । कृ॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र हि त्वा पूषन्नजिरं न यामनि स्तोमेभिः कृण्व ऋणवो यथा मृध उष्ट्रो न पीपरो मृध:। हुवे यत्त्वा मयोभुवं देवं सख्याय मर्त्य:। अस्माकमाङ्गूषान्द्युम्निनस्कृधि वाजेषु द्युम्निनस्कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। हि। त्वा। पूषन्। अजिरम्। न। यामनि। स्तोमेभिः। कृण्वे। ऋणवः। यथा। मृधः। उष्ट्रः। न। पीपरः। मृधः। हुवे। यत्। त्वा। मयःऽभुवम्। देवम्। सख्याय। मर्त्यः। अस्माकम्। आङ्गूषाम्। द्युम्निनः। कृधि। वाजेषु। द्युम्निनः। कृधि ॥ १.१३८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 138; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे पूषन् यथा त्वं मृध ऋणव उष्ट्रो न मृधः पीपरस्तथा स्तोमेभिर्यामन्यजिरं न त्वा प्रकृण्वे त्वामहं हुवे यत् सख्याय मयोभुवं दैवं त्वा मर्त्योऽहं दुवे ततोऽस्माकमाङ्गूषान् वीरान् द्युम्निनः कृधि। वाजेषु द्युम्निनो हि कृधि ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकर्षे (हि) (त्वा) त्वाम् (पूषन्) पुष्टिकर्त्तः (अजिरम्) ज्ञानवन्तम् (न) इव (यामनि) यातरि (स्तोमेभिः) स्तुतिभिः (कृण्वे) करोमि (ऋणवः) प्राप्नुयाः (यथा) (मृधः) संग्रामान् (उष्ट्रः) (न) इव (पीपरः) पारये। अत्र लुङि बहुलं छन्दसीत्यडभावः। (मृधः) संग्रामान् (हुवे) स्पर्द्धे (यत्) यतः (त्वा) त्वाम् (मयोभुवम्) सुखकारकम् (देवम्) कान्तारम् (सख्याय) सखित्वाय (मर्त्यः) मनुष्यः (अस्माकम्) (आङ्गूषान्) प्राप्तविद्यान् (द्युम्निनः) यशस्विनः (कृधि) कुरु (वाजेषु) संग्रामेषु (द्युम्निनः) प्रशस्तकीर्त्तिमतः (कृधि) ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्या धीमतो विद्यार्थिनो विद्यावतः कुर्युः शत्रून् विजयेरन् ते कीर्त्या माननीयाः स्युः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले ! (यथा) जैसे आप (मृधः) संग्रामों को (ऋणवः) प्राप्त करो अर्थात् हम लोगों को पहुँचाओ वा (उष्ट्रः) उष्ट्र के (न) समान (मृधः) संग्रामों को (पीपरः) पार कराओ अर्थात् उनसे उद्धार करो वैसे (स्तोमेभिः) स्तुतियों से (यामनि) पहुँचानेवाले व्यवहार में (अजिरम्) ज्ञानवान् अर्थात् अति प्रवीण के (न) समान (त्वा) आपको (प्र, कण्वे) प्रशंसित करता हूँ और आपको मैं (हुवे) हठ से बुलाता हूँ, (यत्) जिस कारण (सख्याय) मित्रपन के लिये (मयोभुवम्) सुख करनेवाले (देवम्) मनोहर (त्वा) आपको (मर्त्यः) मरण धर्म मनुष्य मैं हठ से बुलाता हूँ इस कारण (अस्माकम्) हमारे (आङ्गूषान्) विद्या पाये हुए वीरों को (द्युम्निनः) यशस्वी (कृधि) करो और (वाजेषु) संग्रामों में (द्युम्निनः) प्रशंसित कीर्त्तिवाले (हि) ही (कृधि) करो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य बुद्धिमान् विद्यार्थियों को विद्यावान् करें, शत्रुओं को जीतें, वे अच्छी कीर्त्ति के साथ माननीय हों ॥ २ ॥

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    विषय

    'स्तवन की वृत्ति, ज्ञान व शक्ति'

    पदार्थ

    १. हे (पूषन्) = पोषक प्रभो ! (हि) = निश्चय से (त्वा) = तुझे (यामनि) = इस जीवन-यात्रा में (स्तोमेभिः) = स्तुतियों के द्वारा (अजिरं न प्र कृण्वे) = एक स्फूर्ति-सम्पन्न [agile] अश्व की भाँति करता हूँ। जैसे एक मनुष्य घोड़े से यात्रा पूर्ण करता है, उसी प्रकार हे पूषन् ! मैं तेरे व्रत का पालन करता हुआ जीवन यात्रा को पूर्ण करता हूँ। २. हे पूषन् ! मैं तेरा स्तवन करता हूँ (यथा) = जिससे (मृधः) = संग्रामों को (ऋणवः) = आप प्राप्त होते हो। काम-क्रोधादि के साथ चलनेवाले हमारे संग्रामों में उपस्थित होकर आप हमारे सहायक होते हो। (उष्ट्रः न) = जैसे ऊँट हमें कठिनता से पार करने योग्य रेगिस्तानों के पार पहुँचाता है, इसी प्रकार आप (मृधः पीपरः) = इन संग्रामों में हमें पार पहुँचाते हैं। आपकी सहायता के बिना इन संग्रामों में विजय सम्भव नहीं है। ३. (मर्त्यः) = मरणधर्मा मैं (मयोभुवं देवं त्वा) = कल्याण-उत्पादक प्रकाशस्वरूप आपको (यत्) = जब (सख्याय) = मित्रता के लिए हुवे पुकारता हूँ तब आप (अस्माकम् आङ्कषान्) = उच्च स्वर से उच्चारणीय हमारे इन स्तोत्रों को (द्युम्निना कृधि) = ज्योतिर्मय कीजिए। वाजेषु इन संग्रामों में आप हमें (द्युम्निनः कृधि) = [द्युम्न energy, strength, power] शक्तिशाली कीजिए। आपकी कृपा से हम ज्ञानपूर्वक स्तवन करें तथा शक्तिशाली बनकर संग्रामों में विजयी हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवनयात्रा में प्रभु हमें विघ्नरूप शत्रुओं के पार पहुँचाएँगे। प्रभुकृपा से हमें स्तवन की वृत्ति, ज्ञान व शक्ति प्राप्त हो। ये तीनों बातें हमें विजयी बनानेवाली होंगी।

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    विषय

    पूषा नाम प्रजापोषक अधिकारी राजा के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    ( यामनि अजिरं न ) वेग से गमन करने के निमित्त जिस प्रकार वेग से जाने वाले अश्व को लिया जाता है उसी प्रकार हे ( पूषन् ) सर्वपोषक राजन् ! ( यामनि ) युद्ध के प्रयाण के लिये ( अजिरं ) शत्रुओं को उखाड़ फेंकने और उस पर बाण आदि अस्त्रों के फेंकने में समर्थ ( त्वा ) तुझको ( स्तोमेभिः ) स्तुति करने योग्य उत्तम बलवान् सेना समूहों सहित ( कृण्वे ) अधिकारवान् करता हूं । ( यथा ) जिससे तू ( मृधः ) संग्रामकारियों को ( ऋणवः ) प्राप्त करे । और संग्रामों को जा सके । ( उष्ट्रः न ) ऊंट जिस प्रकार बड़े बड़े रेगिस्तानों को पार करा देता है उसी प्रकार तू भी ( उष्ट्रः ) शत्रुओं को दग्ध करने और राष्ट्र में बसने वाली प्रजा को पालन करने में समर्थ होकर ( मृधः ) हिंसाकारी शत्रुओं और सेनाओं और संग्रामों को ( पीपरः ) पार कर । ( यत् ) जिस ( त्वा ) तुझको मैं ( मर्त्यः ) मरणधर्मा मनुष्य ( मयो भुवं ) सुख शान्तिजनक ( देवम् ) दानशील, महादानी और विजिगीषु जान कर ( सख्याय ) मित्रता के लिये ( हुवे ) स्वीकार करता हूं वह तू ( अस्माकम् ) हमारे (आङ्गूषान्) विद्वान् पुरुषों को ( द्युम्निनः ) तेजस्वी, धनसम्पन्न ( कृधि ) बना । और ( वाजेषु ) संग्रामों को विजय करने और अन्न और ज्ञानों को उपलब्ध करने में भी हमारे ( आङ्गूषान् ) विद्वानों को ( द्युम्निनः ) ऐश्वर्यवान् और तेजस्वी बना ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ पूषा देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २ विराडत्यष्टिः ४ भुरिगष्टिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे बुद्धिमान विद्यार्थ्यांना विद्वान करतात, शत्रूंना जिंकतात ती उत्तम कीर्तिमान व माननीय ठरतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pusha, lord of nourishment, health and protection, I celebrate you with songs of praise as a fast and intelligent traveller on the path of life. Just as warriors go to battle and win, just as camels cross the desert, so do you help us get over the battles of life. As I am mortal, I invoke you and pray, lord of peace, indeed an embodiment of peace and joy, brilliant and generous, for help and friendship on the journey. Inspire our prayers and wise men with power and spiritual strength in the serious business of life, give us the wealth of victory in the battles of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Praise to Pushan is further added.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Pushan (Nourisher of man)! I exalt you with praises and you like a true wiseman in all my dealings may come to our battles and may take us like a camel across the combat. I, a mortal being invoke you; you are the divine bestower of happiness on us. We seek your friendship. Do make our learned persons glorious and renowned in all the battles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Persons who build students intelligent and highly learned and prepare them conquer the enemies in all battles, become worthy of respect and fame.

    Foot Notes

    (अजिरम् ) ज्ञानवन्तम् = wise and learned. (आंगूषान्) प्राप्त विद्यान् = Learned. (ऋणव:) प्राप्नुयो: = Approach or come. (दयुम्निनः ) प्रशस्तकीर्तिमत: २. यशस्विन् = Glorious and renowned.

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