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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 138 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 138/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो देवता - पूषा छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः

    यस्य॑ ते पूषन्त्स॒ख्ये वि॑प॒न्यव॒: क्रत्वा॑ चि॒त्सन्तोऽव॑सा बुभुज्रि॒र इति॒ क्रत्वा॑ बुभुज्रि॒रे। तामनु॑ त्वा॒ नवी॑यसीं नि॒युतं॑ रा॒य ई॑महे। अहे॑ळमान उरुशंस॒ सरी॑ भव॒ वाजे॑वाजे॒ सरी॑ भव ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । ते॒ । पू॒ष॒न् । स॒ख्ये । वि॒प॒न्यवः॑ । क्रत्वा॑ । चि॒त् । सन्तः॑ । अव॑सा । बु॒भु॒ज्रि॒रे । इति॑ । क्रत्वा॑ । बु॒भु॒ज्रि॒रे । ताम् । अनु॑ । त्वा॒ । नवी॑यसीम् । नि॒ऽयुत॑म् । रा॒यः । ई॒म॒हे॒ । अहे॑ळमानः । उ॒रु॒ऽशं॒स॒ । सरी॑ । भ॒व॒ । वाजे॑ऽवाजे । सरी॑ । भ॒व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य ते पूषन्त्सख्ये विपन्यव: क्रत्वा चित्सन्तोऽवसा बुभुज्रिर इति क्रत्वा बुभुज्रिरे। तामनु त्वा नवीयसीं नियुतं राय ईमहे। अहेळमान उरुशंस सरी भव वाजेवाजे सरी भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। ते। पूषन्। सख्ये। विपन्यवः। क्रत्वा। चित्। सन्तः। अवसा। बुभुज्रिरे। इति। क्रत्वा। बुभुज्रिरे। ताम्। अनु। त्वा। नवीयसीम्। निऽयुतम्। रायः। ईमहे। अहेळमानः। उरुऽशंस। सरी। भव। वाजेऽवाजे। सरी। भव ॥ १.१३८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 138; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे पूषन् विद्वन् यस्य ये तव सख्ये क्रत्वाऽवसा सह विपन्यवो नियुतं रायो बुभुज्रिरे इति चित्सन्तः क्रत्वा यां नियुतं रायो बुभिज्रिरे तां नवीयसीं नियुतं रायोऽनु त्वा वयमीमहे। हे उरुशंस अस्माभिरहेडमानस्त्वं वाजेवाजे सरी भव धर्म्ये व्यवहारे च सरी भव ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (यस्य) (ते) तव (पूषन्) पुष्टिकारक (सख्ये) (विपन्यवः) विशेषेणात्मनः पनं स्तवनमिच्छवः। विपन्यव इति मेधाविना०। निघं० ३। १५। (क्रत्वा) प्रज्ञया (चित्) (सन्तः) (अवसा) रक्षणाद्येन (बुभुज्रिरे) (इति) अनेन प्रकारेण (क्रत्वा) (बुभुज्रिरे) भुञ्जते (ताम्) (अनु) (त्वा) त्वाम् (नवीयसीम्) अतिशयेन नूतनाम् (नियुतम्) असंख्यातम् (रायः) राज्यश्रियः (ईमहे) याचामहे (अहेळमानः) अनादृतः सन् (उरुशंस) उरु बहु शंसः प्रशंसा यस्य तत्संबुद्धौ (सरी) सरति जानाति यः स प्रशस्तो विद्यते यस्य सः (भव) (वाजेवाजे) संग्रामे संग्रामे (सरी) (भव) ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये धीमतां संगमित्रत्वाभ्यां नूतनां नूतनां विद्यां प्राप्नुवन्ति ते प्राज्ञा भूत्वा विजयिनो भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले विद्वन् ! (यस्य) जिस (ते) आपकी (सख्ये) मित्रता में (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि से (अवसा) रक्षा आदि के साथ (विपन्यवः) विशेषता से अपनी प्रशंसा चाहनेवाले जन (नियुतम्) असंख्यात (रायः) राज्यलक्ष्मियों को (बुभुज्रिरे) भोगते हैं (इति) इस प्रकार (चित्) ही (सन्तः) होते हुए (क्रत्वा) उत्तम बुद्धि से जिस असंख्यात राज्यश्री को (बुभुज्रिरे) भोगते हैं (ताम्) उस (नवीयसीम्) अतीव नवीन उक्त श्री को और (अनु) अनुकूलता से (त्वा) आपको हम लोग (ईमहे) माँगते हैं। हे (उरुशंस) बहुत प्रशंसायुक्त विद्वान् ! हम लोगों से (अहेडमानः) अनादर को न प्राप्त होते हुए आप (वाजेवाजे) प्रत्येक संग्राम में (सरी) प्रशंसित ज्ञाता जन जिसके विद्यमान ऐसे (भव) हूजिये और धर्मयुक्त व्यवहार में भी (सरी) उक्त गुणी (भव) हूजिये ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो बुद्धिमानों के सङ्ग और मित्रपन से नवीन-नवीन विद्या को प्राप्त होते हैं, वे प्राज्ञ उत्तम ज्ञानवान् होकर विजयी होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    दो सिद्धान्त

    पदार्थ

    १. हे (पूषन्) = पोषक परमात्मन् ! (यस्य ते सख्ये) = जिस तेरी मित्रता में (विपन्यवः) = विशिष्ट व्यवहार व स्तुतिवाले होते हुए लोग (क्रत्वा चित्) = कर्म के साथ ही (सन्तः) = होते हुए (अवसा) = रक्षण के हेतु से (बुभुज्रिरे) = इन सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करते हैं। प्रभुभक्त बिना कर्म के खाना पसन्द नहीं करता, वह कर्म करके ही खाना ठीक समझता है। दूसरी बात यह कि वह शरीरादि के रक्षण के हेतु से इन वस्तुओं का उपभोग करता है। उसके उपभोग का आधार स्वाद व विलास नहीं होता। निजू उन्नति के लिए स्वाद के दृष्टिकोण से न खाकर आवश्यकता के दृष्टिकोण से खाया जाए और सामाजिक कल्याण के लिए प्रत्येक व्यक्ति शक्ति के अनुसार कर्म करके ही खाने का व्रत ले । (इति) = इस सामाजिक उन्नति के विचार से ही ये (क्रत्वा) = कर्म से कर्म करके ही (बुभुज्रिरे) = खाते हैं। (ताम्) = कर्म करके रक्षण के दृष्टिकोण से खाने की वृत्तिरूप इस (नवीयसीम्) = तेरी प्रशस्त स्तुति के (अनु) = पश्चात् (त्वा) = आपसे (नियुतम्) = नियत संख्याक-खूब अधिक (रायः) = धनों को (ईमहे) = माँगते हैं। 'कर्म करके ही खाना' तथा 'जितना रक्षण के लिए आवश्यक है, उतना ही खाना' –इन बातों को जीवन में लाना सच्चा प्रभु-स्तवन है। ऐसा ही व्यक्ति असंख्याक धनों का पात्र बनता है। भोगविलास की वृत्तिवाले के लिए तो धन-अभिशाप बन जाते हैं। ३. हे (उरुशंस) = खूब स्तवन किये जानेवाले प्रभो! (अहेळमानः) = हम पर क्रोध न करते हुए आप सरी भव हमें प्राप्त होओ। वाजेवाजे प्रत्येक संग्राम में (सरी भव) = हमें प्राप्त होओ। आपको ही तो इन संग्रामों में हमें विजय प्राप्त करानी है। आपके बिना इन काम- क्रोधादि प्रबल शत्रुओं को हम कभी भी न जीत पाएँगे।

    भावार्थ

    -

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    विषय

    पूषा नाम प्रजापोषक अधिकारी राजा के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    हे (पूषन् ) सबके पोषक स्वामिन् ! ( यस्य ते सख्ये ) जिस आपके मित्र भाव से ( सन्तः ) रहते हुए ( विपन्यवः ) विद्वान् आप के उपासक जन ( क्रत्वा ) अपने ज्ञान सामर्थ्य ( चित्) तथा ( अवसा ) रक्षा सामर्थ्य से सदा पालित होते और ( इति ) इसी प्रकार इस संसार को ( क्रत्वा ) ज्ञान और क्रिया सामर्थ्य से ( बुभुज्रिरे ) भोग करते हैं । ( त्वा ) उस तुझको प्राप्त होकर हम लोग भी ( तां ) उस ( नवीयसी ) नयी से नयी ( रायः नियुतं ) ऐश्वर्य की, लक्षों की सम्पदा को ( ईमहे ) तुझसे मांगते हैं, तुझसे प्राप्त किया चाहते हैं । हे ( उरुशंस ) अति स्तुति योग्य ! तू ( अहेडमानः ) हमारा अनादर और हम पर क्रोध न करता हुआ ( सरी ) स्वयं उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों का स्वामी ( भव ) हो और ( वाजे वाजे ) प्रत्येक संग्राम में ( सरी ) शत्रु पर प्रयाण करने वाला, युद्धयायी ( भव ) हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ पूषा देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २ विराडत्यष्टिः ४ भुरिगष्टिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे बुद्धिमानांची संगती व मैत्री करून नवनवीन विद्या प्राप्त करतात ते प्राज्ञ बनून विजयी होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pusha, lord giver of health and joy, by virtue of your friendship, being strong of intelligence yajnic performance and self-protection, people enjoy a good self-image and self-esteem. And as thus they esteem themselves by their performance and enjoy life, we pray to you for the latest and countless forms of the wealth of life. Lord of health and joy, kind and favourable, universally adored, accept us as good friends and soldiers and be with us in every battle of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme to adore Pushan is elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned nourisher of man! through your friendliness and wise and fame-seeking persons, we enjoy all sorts of wealth in abundance because of your protection and through our own intellect and good deeds. We also seek such admirable and ever-new wealth (of wisdom and material prosperity). Because of being never overlooked by us, O Pūshan, you deserve our ample praise and thus stand by our side in all the battles and in right dealings, with learned followers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who acquire new knowledge with the association and friendship of wisemen, they also become wise and similarly become ever victorious.

    Foot Notes

    (विपन्यव:) ! विशेषणात्मनः पनं स्तवनमिच्छव: = Desiring name and fame. (अहेडमान:) अननादृतः = Never insulted (सरी ) संरति जानाति यःस प्रशस्तो विद्यते यस्य सः = Having learned followers.

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