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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 138 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 138/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परुच्छेपो देवता - पूषा छन्दः - विराडत्यष्टिः स्वरः - मध्यमः

    अ॒स्या ऊ॒ षु ण॒ उप॑ सा॒तये॑ भु॒वोऽहे॑ळमानो ररि॒वाँ अ॑जाश्व श्रवस्य॒ताम॑जाश्व। ओ षु त्वा॑ ववृतीमहि॒ स्तोमे॑भिर्दस्म सा॒धुभि॑:। न॒हि त्वा॑ पूषन्नति॒मन्य॑ आघृणे॒ न ते॑ स॒ख्यम॑पह्नु॒वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्याः । ऊँ॒ इति॑ । सु । नः॒ । उप॑ । सा॒तये॑ । भु॒वः॒ । अहे॑ळमानः । र॒रि॒ऽवान् । अ॒ज॒ऽअ॒श्व॒ । श्र॒व॒स्य॒ताम् । अ॒ज॒ऽअ॒श्व॒ । ओ इति॑ । सु । त्वा॒ । व॒वृ॒ती॒म॒हि॒ । स्तोमे॑ऽभिः । द॒स्म॒ । सा॒धुऽभिः॑ । न॒हि । त्वा॒ । पू॒ष॒न् । अ॒ति॒ऽमन्ये॑ । आ॒घृ॒णे॒ । न । ते॒ । स॒ख्यम् । अ॒प॒ऽह्नु॒वे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्या ऊ षु ण उप सातये भुवोऽहेळमानो ररिवाँ अजाश्व श्रवस्यतामजाश्व। ओ षु त्वा ववृतीमहि स्तोमेभिर्दस्म साधुभि:। नहि त्वा पूषन्नतिमन्य आघृणे न ते सख्यमपह्नुवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्याः। ऊँ इति। सु। नः। उप। सातये। भुवः। अहेळमानः। ररिऽवान्। अजऽअश्व। श्रवस्यताम्। अजऽअश्व। ओ इति। सु। त्वा। ववृतीमहि। स्तोमेऽभिः। दस्म। साधुऽभिः। नहि। त्वा। पूषन्। अतिऽमन्ये। आघृणे। न। ते। सख्यम्। अपऽह्नुवे ॥ १.१३८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 138; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे पूषन्नजाश्व श्रवस्यतामजाश्वेव त्वं नोऽस्याः प्रज्ञायाः सातये ररिवानहेडमानः सूपभुवः। हे आघृणे पूषन्नहं ते तव सख्यं नापह्नुवे त्वा नह्यतिमन्ये ओ दस्म स्तोमेभिः साधुभिः सह वर्त्तमाना वयमु त्वा त्वां सुववृतीमहि ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अस्याः) प्रज्ञायाः (उ) वितर्के (सु) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (उप) (सातये) विभागाय (भुवः) भव। अत्र लुङि विकरणव्यत्ययेन शः प्रत्ययोऽडभावश्च (अहेळमानः) सत्कृतः सन् (ररिवान्) दाता (अजाश्व) अजा अश्वाश्च विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ (श्रवस्यताम्) आत्मनः श्रवो धनमिच्छताम् (अजाश्व) (ओ) सम्बोधने (सु) (त्वा) त्वाम् (ववृतीमहि) भृशं वर्त्तेमहि (स्तोमेभिः) स्तुतिभिः (दस्म) दुखोपक्षयितः (साधुभिः) सज्जनैः सह (नहि) (त्वा) त्वाम् (पूषन्) (अतिमन्ये) अतिमानं कुर्याम् (आघृणे) समन्ताद्देदीप्यमान (न) (ते) तव (सख्यम्) मित्रस्य भावं कर्म वा (अपह्नुवे) आच्छादयेयम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। धार्मिकैर्विद्वद्भिः सह प्रसिद्धं मित्रभावं वर्त्तित्वा बहुविधाः प्रज्ञाः सर्वैर्मनुष्यैः प्राप्तव्याः। न कदाचित् कस्यच्छिष्टस्य तिरस्कारः कर्त्तव्यः ॥ ४ ॥अत्र पुष्टिकर्त्तॄणां धार्मिकाणां च प्रशंसावर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥इत्यष्टत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले ! (अजाश्व) जिनके छेरी और घोड़े विद्यमान हैं ऐसे (श्रवस्यताम्) अपने को धन चाहनेवालों में (अजाश्व) जिनकी छेरी घोड़ों के तुल्य उनके समान हे विद्वन् ! आप (नः) हमारे लिये (अस्याः) इस उत्तम बुद्धि के (सातये) बाँटने को (ररिवान्) देनेवाले और (अहेडमानः) सत्कारयुक्त (सूप, भुवः) उत्तमता से समीप में हूजिये, हे (आघृणे) सब ओर से प्रकाशमान पुष्टि करनेवाले पुरुष ! मैं (ते) आपके (सख्यम्) मित्रपन और मित्रता के काम को (न)(अपह्नुवे) छिपाऊँ (त्वा) आपका (नहि, अतिमन्ये) अत्यन्त मान्य न करूँ किन्तु यथायोग्य आपको मानूँ (उ) और (ओ) हे (दस्म) दुःख मिटानेवाले (स्तोमेभिः) स्तुतियों से युक्त (साधुभिः) सज्जनों के साथ वर्त्तमान हम लोग (त्वा) आपको (सु, ववृतीमहि) अच्छे प्रकार निरन्तर वर्त्तें अर्थात् आपके अनुकूल रहें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। धार्मिक विद्वानों के साथ सिद्ध मित्रभाव को वर्त्त कर सब मनुष्यों को चाहिये कि बहुत प्रकार की उत्तम-उत्तम बुद्धियों को प्राप्त होवें और कभी किसी शिष्ट पुरुष का तिरस्कार न करें ॥ ४ ॥ इस सूक्त में पुष्टि करनेवाले विद्वान् वा धार्मिक सामान्य जन की प्रशंसा के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ अड़तीसवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    प्रभु की मित्रता

    पदार्थ

    १. हे (अजाश्व) = (अज+अश्व) कभी उत्पन्न न होनेवाले अथवा गति द्वारा सब मलों को दूर करनेवाले, सर्वत्र व्याप्त [अश् व्याप्तौ, अज गतिक्षेपणयोः] प्रभो! आप (अस्याः) = [अस्यै] इस (सातये) = गतमन्त्र में वर्णित असंख्यात धन की प्राप्ति के लिए (नः) = हमारे लिए (ऊ) = निश्चय से (सु उप भुवः) = अच्छी प्रकार प्राप्त होओ। (अहेळमान:) = हमारे प्रति क्रोध न करते हुए आप (ररिवान्) = धनों को खूब देनेवाले होओ। हे (अजाश्व) = गतिशील, व्यापक प्रभो! आप (श्रवस्यताम्) = ज्ञान की कामना करनेवाले हमारे समीप होओ। आपके सान्निध्य में ही तो हमारी ज्ञान ज्योति दीप्त होगी । २. हे (दस्म) = हमारे सब दुःखों को नष्ट करनेवाले प्रभो ! (साधुभिः स्तोमेभिः) = लोकहित के कार्यों को सिद्ध करनेवाले स्तवनों से हम (ऊ) = निश्चय से (त्वा) = आपको (सु) = उत्तमता से (आववृतीमहि) = अपनी ओर आवृत करते हैं। 'सर्वभूतहिते रताः ' व्यक्ति ही तो आपके सच्चे उपासक होते हैं। ३. हे (आघृणे) = सर्वतो दीप्त (पूषन्) = पोषक प्रभो ! मैं (त्वा) = आपसे (नहि अति मन्ये) = अधिक किसी को नहीं मानता हूँ आपको ही सर्वोपरि जानता हूँ। ऐसा जानता हुआ मैं (ते सख्यम्) = आपकी मित्रता को (न अपह्नवे) = ओझल नहीं होने देता, आपको सर्वदा मित्र के रूप में देखता हूँ। आपकी मित्रता से ही तो मैं सब शत्रुओं को जीत सकूँगा और आवश्यक धनों को प्राप्त करूँगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की मित्रता में ही कल्याण है।

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    विषय

    पूषा के ‘अजाश्व’ होने का कारण ।

    भावार्थ

    हे ( अजाश्व ) बकरियों और अश्वों के स्वामिन् ! पशुओं से समृद्ध ! अथवा हे ( अजाश्व ) शत्रुओं को उखाड़ फेकने वाले अश्व सैन्य के स्वामिन् ! हे ( अजाश्व ) वेगवान् अश्वों वाले ! तू ( अस्याः ) इस पृथ्वी के ( सातये ) राज्य प्राप्त करने के लिये (नः) हमारा (अहेडमानः) तिरस्कार न करता हुआ ( श्रवस्यताम् ) धन, अन्न, यश और ज्ञान की इच्छा करने वालों को ( ररिवान् ) इष्ट फल दान करता हुआ ( नः ) हमारे ( उ सु उप भुवः ) सदा समीप रहे । हे ( ओ दस्म ) दर्शनीय ! हे शत्रुओं के नाशकारिन् ! हम लोग ( त्वा ) तुझ को ही ( साधुभिः स्तोमेभिः ) उत्तम उत्तम स्तुति वचनों और कार्यसाधन में समर्थ वीर संघों सहित ( त्या ववृतीमहि ) तुझे प्राप्त करें, तेरे समीप रहें । हे (पूषन्) सर्वपोषक ! (त्वां न हि अतिमन्ये) मैं तेरा कभी तिरस्कार न करूं, तेरी आज्ञा का कभी उल्लंघन न करूं । हे ( आघृणे ) सब प्रकार से प्रकाशमान ! तेजस्विन् ! हे दयालो ! मैं ( ते सख्यम् ) तेरे मित्रभाव को कभी ( न अपन्हुवे ) लुप्त न होने दूं । और तेरे ( सख्यं न अपन्हुवे ) मित्र भाव को कभी न छुपाऊं, प्रत्युत उसको सर्वत्र प्रकट करूं । इति द्वितीय वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः॥ पूषा देवता ॥ छन्दः– १, ३ निचृदत्यष्टिः । २ विराडत्यष्टिः ४ भुरिगष्टिः॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. धार्मिक विद्वानांबरोबर मित्रत्वाने वागून सर्व माणसांनी पुष्कळ प्रकारची उत्तम प्रज्ञा प्राप्त करावी व कधीही सभ्य पुरुषाचा तिरस्कार करू नये. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Pusha, lord of nature and fastest motion, lord of goats and horses, we pray, be close with us for the gift of this wealth and intelligence, be kind and generous, richest of the masters of food, wealth and power. With our best and holiest songs of praise and prayer, O lord of riches and generosity, destroyer of suffering, we pray, we may always abide by you. Lord of light and showers of nourishment, we never offend your majesty, we never neglect or disregard your friendship. We are with you, pray be with us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again in the praise of Pushan.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Pushan! you possess animals goats and horses. You are respected and never overlooked by us; hence benign to us. We seek your wealth of all kinds for the distribution and dissemination of this intelligence or knowledge. We are always a liberal donor. We have recourse to you with pious praises. O thrasher of all misfortunes! I never offended you in any way. O Pūshan, shining all-round due to your virtue, I never disregard and conceal your friendship.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All persons should acquire every kind of intelligence by maintaining friendship with right type of learned persons. No good person should ever be humiliated by any one.

    Foot Notes

    ( श्रवस्यताम् ) आत्मन: श्रवः धनमिच्छताम् = Desirous of getting wealth of kinds. (अपन्हुवे) आच्छाद्येयम् = May conceal or disregard. (आघृणे) समन्ताद् देदीप्यमानः = Shinning well on all sides on account of virtues.

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