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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 147 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 147/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ये पा॒यवो॑ मामते॒यं ते॑ अग्ने॒ पश्य॑न्तो अ॒न्धं दु॑रि॒तादर॑क्षन्। र॒रक्ष॒ तान्त्सु॒कृतो॑ वि॒श्ववे॑दा॒ दिप्स॑न्त॒ इद्रि॒पवो॒ नाह॑ देभुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । पा॒यवः॑ । मा॒म॒ते॒यम् । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । पश्य॑न्तः । अ॒न्धम् । दुः॒ऽइ॒तात् । अर॑क्षन् । र॒रक्ष॑ । तान् । सु॒ऽकृतः॑ । वि॒श्वऽवे॑दाः । दिप्स॑न्तः । इत् । रि॒पवः॑ । न । अह॑ । दे॒भुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन्। ररक्ष तान्त्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। पायवः। मामतेयम्। ते। अग्ने। पश्यन्तः। अन्धम्। दुःऽइतात्। अरक्षन्। ररक्ष। तान्। सुऽकृतः। विश्वऽवेदाः। दिप्सन्तः। इत्। रिपवः। न। अह। देभुः ॥ १.१४७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 147; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् ते ये पश्यन्तः पायवो मामतेयमन्धं दुरितादरक्षन् तान् सुकृतो विश्ववेदा भवान् ररक्ष यतो दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (ये) (पायवः) रक्षकाः (मामतेयम्) ममतायाः प्रजायाः अपत्यम् (ते) तव (अग्ने) विद्वन् (पश्यन्तः) संप्रेक्षमाणाः (अन्धम्) अविद्यायुक्तम् (दुरितात्) दुष्टाचारात् (अरक्षन्) रक्षन्ति (ररक्ष) रक्षेत् (तान्) (सुकृतः) सुष्ठुकर्मकारिणः (विश्ववेदाः) यो विश्वं विज्ञानं वेत्ति सः (दिप्सन्तः) अस्मान् दम्भितुं हिंसितुमिच्छन्तः (इत्) अपि (रिपवः) अरयः (न) निषेधे (अह) विनिग्रहे (देभुः) दभ्नुयुः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये विद्याचक्षुषोऽन्धं कूपादिव जनानविद्याऽधर्माचरणाद्रक्षेयुस्तान् पितृवत्सत्कुर्युः। ये च व्यसनेषु निपातयेयुस्तान् दूरतो वर्जयेयुः ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् ! (ते) आपके (ये) जो (पश्यन्तः) अच्छे देखनेवाले (पायवः) रक्षा करनेवाले (मामतेयम्) प्रजा का अपत्य जो कि (अन्धम्) अविद्यायुक्त हो उसको (दुरितात्) दुष्ट आचरण से (अक्षरन्) बचाते हैं (तान्) उन (सुकृतः) सुकृती उत्तम कर्म करनेवाले जनों को (विश्ववेदः) समस्त विज्ञान के जाननेवाले आप (ररक्ष) पालें, जिससे (दिप्सन्तः) हम लोगों को मारने की इच्छा करते हुए (इत्) भी (रिपवः) शत्रुजन (न, अह) नहीं (देभुः) मार सकें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो विद्याचक्षु जन अन्धे को कूप से जैसे वैसे मनुष्यों को अविद्या और अधर्म के आचरण से बचावें, उनका पितरों के समान सत्कार करें और जो दुष्ट आचरणों में गिरावें, उनका दूर से त्याग करे रहें ॥ ३ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में प्रभु का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! आचार्य ! एवं प्रभो ! परमेश्वर ! (ये) जो (ते) तेरे अधीन, (पायवः) सूर्य के समान ज्ञानव्रत का पालन करने वाले, ( पश्यन्तः ) स्वयं सब पदार्थों को भली प्रकार देखते हुए ( अन्धं ) सुजांखे पुरुष जिस प्रकार अन्धे को बुरे मार्गों से बचा देते हैं उसी प्रकार ( अन्धं ) ज्ञानरहित पुरुष को ( दुरितात् ) दुष्ट आचरण से ( अरक्षन् ) बचावें । अथवा—(पायवः) ज्ञान के पिपासु जन (पश्यन्तः) देखते हुए, लोचनवान् होकर कामादि से अन्ध हुए ( मामतेयं ) ममता करने वाले अपने आत्मा को बुरे मार्ग से बचावें । और ( विश्ववेदाः ) समस्त ज्ञानों और ऐश्वर्यों का स्वामी आचार्य ( सुकृतः ) उत्तम आचरण करने वाले ( तान् ) उन सबकी ( ररक्ष ) रक्षा करे जिससे कि ( दिप्सन्तः ) नाशकारी ( रिपवः ) शत्रुगण, और काम, क्रोध, पाप युक्त कर्म और हीन पुरुष आदि ( अह ) भी ( न देभुः ) उन पर आघात नहीं कर सकें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे अंध माणसाला कूपातून बाहेर काढले जाते, तसे विद्याचक्षुवान लोकांनी माणसांना अविद्या व अधर्माच्या आचरणापासून वाचवावे. त्यांचा पितराप्रमाणे सत्कार करावा व दुष्ट आचरण करणाऱ्यापासून दूर राहावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, power and knowledge, the flames of your fire, brilliant teachers and warriors, are the guardians of humanity, seers and visionaries of the present and future generations, who guard the blind and the ignorant against evil and crime. O lord and master of world knowledge, protect all those who do good work so that even the deadly enemies of society may not be able to terrorize anyone.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The adorations to the scholar reinforced.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned Leader ! you know all the sciences; you also maintain group of pious people who being the wise guardians, pity and help spiritually blind (ignorant) persons, stuck to the evils. Under your protection, even sticking to their enemies are unable to do them harm.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who eradicate ignorance and unrighteous acts, take out a blind man from the well. Such people must be respected like parent. The misleading persons be kept at distance, and should not be associated in a bad cause.

    Foot Notes

    (मामतेयम् ) ममताया: अपत्यम् = An ignorant person attached to worldly objects. (अन्धम् ) अविद्यायुक्तम् = Ignorant. ( दिप्सन्तः ) अस्मान् दम्भितुं हिसितुं इच्छन्तः = Trying to harm us. Explaining मामतेयम् अन्धम् as the blind son of ममता, Sayanacharya gives a most absurd irrelevant and irrational story. But Prof. Wilson's note on this part of Sayana's commentary is worth quoting which corroborates Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation.

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