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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 148 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 148/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    द॒दा॒नमिन्न द॑दभन्त॒ मन्मा॒ग्निर्वरू॑थं॒ मम॒ तस्य॑ चाकन्। जु॒षन्त॒ विश्वा॑न्यस्य॒ कर्मोप॑स्तुतिं॒ भर॑माणस्य का॒रोः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒दा॒नम् । इत् । न । द॒द॒भ॒न्त॒ । मन्म॑ । अ॒ग्निः । वरू॑थम् । मम॑ । तस्य॑ चा॒क॒न् । जु॒षन्त॑ । विश्वा॑नि । अ॒स्य॒ । कर्म॑ । उप॑ऽस्तुतिम् । भर॑माणस्य । का॒रोः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ददानमिन्न ददभन्त मन्माग्निर्वरूथं मम तस्य चाकन्। जुषन्त विश्वान्यस्य कर्मोपस्तुतिं भरमाणस्य कारोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ददानम्। इत्। न। ददभन्त। मन्म। अग्निः। वरूथम्। मम। तस्य चाकन्। जुषन्त। विश्वानि। अस्य। कर्म। उपऽस्तुतिम्। भरमाणस्य। कारोः ॥ १.१४८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 148; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या भवन्तो योऽग्निर्विद्वान् मम तस्य च वरूथं मन्म ददानं चाकन् तन्नेद् ददभन्त। अस्य भरमाणस्य कारोर्विश्वानि कर्मोपस्तुतिं च भवन्तो जुषन्त ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (ददानम्) दातारम् (इत्) (न) निषेधे (ददभन्त) दभ्नुयुः (मन्म) विज्ञानम् (अग्निः) (वरूथम्) श्रेष्ठम् (मम) (तस्य) (चाकन्) कामयते (जुषन्त) सेवन्ताम् (विश्वानि) सर्वाणि (अस्य) (कर्म) कर्माणि (उपस्तुतिम्) उपगतां प्रशंसाम् (भरमाणस्य) (कारोः) शिल्पविद्यासाध्यकर्त्तुः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यो येभ्यो विद्या दद्यात् ते तस्य सेवां सततं कुर्युः। अवश्यं सर्वे वेदाभ्यासं च कुर्य्युः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! आप जो (अग्निः) विद्वान् (मम) मेरे और (तस्य) उसके (वरूथम्) उत्तम (मन्म) विज्ञान को (ददानम्) देते हुए उनकी (चाकन्) कामना करता है उसको (नेत्) नहीं (ददभन्त) मारो, (अस्य) इस (भरमाणस्य) भरण-पोषण करते हुए (कारोः) शिल्पविद्या से सिद्ध होने योग्य कामों को करनेवाले उनके (विश्वानि) समस्त (कर्म) कर्मों की (उपस्तुतिम्) समीप प्राप्त हुई प्रशंसा को आप (जुषन्त) सेवो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो जिनके लिये विद्या दें वे उसकी सेवा निरन्तर करें और अवश्य सब लोग वेद का अभ्यास करें ॥ २ ॥

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    विषय

    कर्मोपस्तुति का भरण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित अन्तर्मुख- यात्रा करनेवाले पुरुष (ददानम्) = सब कुछ देनेवाले प्रभु को (इत्) = निश्चय से (न ददभन्त) = हिंसित नहीं करते, अर्थात् अपने जीवन में प्रभु का विस्मरण नहीं करते, प्रातः सायं अवश्य ही प्रभु का ध्यान करते हैं। २. प्रभु का ध्यान करनेवाले (तस्य) = उस (मम) = मेरे (वरूथम्) = आच्छादन व रक्षण साधन के रूप में बने हुए (मन्म) = स्तोत्र को (अग्निः) = वे अग्रणी प्रभु (चाकन्) = चाहते हैं। मेरे द्वारा किया जानेवाला स्तोत्र मुझे प्रभु का प्रिय बनाता है और यह स्तोत्र मेरा (वरूथ) = कवच बनता है, यह मुझे वासनाओं के आक्रमण से बचाता है। ३. (अस्य) = इस (कर्मोपस्तुतिम्) = कर्त्तव्यकर्मों के करने से प्रभु की क्रियात्मक स्तुति को (भरमाणस्य) = धारण करनेवाले (कारो:) = कुशल, कर्मशील पुरुष के (विश्वानि) = सब स्तोत्र [मन्म] (जुषन्त) = प्रभु का प्रीतिपूर्वक स्तवन करते हैं। अकर्मण्य व केवल वाणी से स्तोत्रों का उच्चारण करनेवाले पुरुष के स्तोत्र प्रभु को प्रिय नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- कर्त्तव्यकर्मों को करने से ही प्रभु का सच्चा स्तवन होता है।

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    विषय

    गुरु शिष्यों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! ( वरूथं ) वरण करने योग्य, उत्तम ( मन्म ) विज्ञान ( ददानम् ) देने वाले पुरुष को ( न ददभन्त ) कभी पीड़ित नहीं किया करते । और ( तस्य मम ) उस मुझ विद्वान् के ( मन्म वरूथम् ) मनन करने योग्य श्रेष्ठ ज्ञान को ( अग्निः ) अंगों में विनय से झुकने वाला विनीत शिष्य ही (चाकन्) लेने की इच्छा करे। ( उपस्तुतिम् भरमाणस्य ) अति समीप प्राप्त शिष्य के प्रति उपदेश करने योग्य वाणी को धारण करने वाले (अस्य कारोः) इस क्रियाशील, कुशल पुरुष के (विश्वानि कर्म) समस्त कर्मों को ( जुषन्त ) प्रेम से ग्रहण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २ पङ्क्तिः । ५ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो ज्यांना विद्या देतो त्यांनी त्यांची सतत सेवा करावी व सर्व लोकांनी अवश्य वेदाचा अभ्यास करावा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Enemies cannot injure or violate Agni, fire power and the learned scientist, because it is the giver and it loves and desires the supreme good of me and everybody. All people love and esteem the celebration of the scientific and artistic versatility of this power and benefit from all the arts and crafts of the artist of this generous source of energy and beauty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The previous theme is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men, never harm the enlightened leader who loves the person disseminating the sublime knowledge to the people. You may lovingly accept all the good works and glories from me. I undertake to perform hard work to achieve it.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should serve constantly the person from whom you receive good education. All should study the Vedas well.

    Foot Notes

    ( ददभन्त ) दम्नुयुः – Kill or harm ( मन्म ) विज्ञानम् = Special knowledge. (कारो:) शिल्पविद्या साध्यकर्तुंः – The doer of the industrious work. ( चाकत्) कामयते – Desires or loves.

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