ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 148/ मन्त्र 3
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नित्ये॑ चि॒न्नु यं सद॑ने जगृ॒भ्रे प्रश॑स्तिभिर्दधि॒रे य॒ज्ञिया॑सः। प्र सू न॑यन्त गृ॒भय॑न्त इ॒ष्टावश्वा॑सो॒ न र॒थ्यो॑ रारहा॒णाः ॥
स्वर सहित पद पाठनित्ये॑ । चि॒त् । नु । यम् । सद॑ने । ज॒गृ॒भ्रे । प्रश॑स्तिऽभिः । द॒धि॒रे । य॒ज्ञिया॑सः । प्र । सु । न॒य॒न्त॒ । गृ॒भय॑न्तः । इ॒ष्टौ । अश्वा॑सः । न । र॒थ्यः॑ । र॒र॒हा॒णाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नित्ये चिन्नु यं सदने जगृभ्रे प्रशस्तिभिर्दधिरे यज्ञियासः। प्र सू नयन्त गृभयन्त इष्टावश्वासो न रथ्यो रारहाणाः ॥
स्वर रहित पद पाठनित्ये। चित्। नु। यम्। सदने। जगृभ्रे। प्रशस्तिऽभिः। दधिरे। यज्ञियासः। प्र। सु। नयन्त। गृभयन्तः। इष्टौ। अश्वासः। न। रथ्यः। ररहाणाः ॥ १.१४८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 148; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये यज्ञियासो जनाः प्रशस्तिभिर्नित्य इष्टौ सदने यं जगृभ्रे चिन्नु दधिरे तस्यालम्बेन रारहाणा रथ्योऽश्वासो न गृभयन्तः सन्तो यानानि सुप्रणयन्त ॥ ३ ॥
पदार्थः
(नित्ये) नाशरहिते (चित्) अपि (नु) सद्यः (यम्) पावकम् (सदने) सीदन्ति यस्मिन्नाकाशे तस्मिन् (जगृभ्रे) गृह्णीयुः (प्रशस्तिभिः) प्रशंसिताभिः क्रियाभिः (दधिरे) धरेयुः (यज्ञियासः) ये शिल्पाख्यं यज्ञमर्हन्ति ते (प्र) (सु) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नयन्त) प्राप्नुयुः (गृभयन्तः) ग्रहीता इवाचरन्तः (इष्टौ) गन्तव्यायाम् (अश्वासः) सुशिक्षितास्तुङ्गाः (न) इव (रथ्यः) रथेषु साधवः (रारहाणाः) गच्छन्तः। अत्र तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये नित्य आकाशे स्थितान् वाय्वग्न्यादिपदार्थानुत्तमाभिः क्रियाभिः कार्येषु योजयन्ति ते विमानादीनि यानानि रचयितुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यज्ञियासः) शिल्प यज्ञ के योग्य सज्जन (प्रशस्तिभिः) प्रशंसित क्रियाओं से (नित्ये) नित्य नाशरहित (सदने) बैठें जिस आकाश में और (इष्टौ) प्राप्त होने योग्य क्रिया में (यम्) जिस अग्नि का (जगृभ्रे) ग्रहण करें (चित्) और (नु) शीघ्र (दधिरे) धरें उसके आश्रय से (रारहाणाः) जाते हुए जो कि (रथ्यः) रथों में उत्तम प्रशंसावाले (अश्वासः) अच्छे शिक्षित घोड़े हैं उनके (न) समान और (गृभयन्तः) पदार्थों को ग्रहण करनेवालों के समान आचरण करते हुए रथों को (सु, प्र, नयन्त) उत्तम प्रीति से प्राप्त होवें ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो नित्य आकाश में स्थित वायु और अग्नि आदि पदार्थों को उत्तम क्रियाओं से कार्यों में युक्त करते हैं, वे विमान आदि यानों को बना सकते हैं ॥ ३ ॥
विषय
नित्य सदन में प्रभु का ग्रहण
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार कर्मोपस्तुति को धारण करनेवाले लोग (यम्) = जिस प्रभु को (नु चित्) = निश्चय से (नित्ये सदने) = नित्य सदन में (जगृभ्रे) = ग्रहण करते हैं। यह स्थूलशरीर तो नश्वर है ही, सूक्ष्मशरीर भी सदा नहीं रहता। कारणशरीर 'प्रकृति' रूप होने से नित्य है । जब हम साधना करते हुए स्थूल व सूक्ष्मशरीर से ऊपर उठकर कारणशरीर में पहुँचते हैं तब वहीं प्रभु का दर्शन होता है। स्थूलशरीर में रहता हुआ मनुष्य विषय-प्रवृत्त रहता है। सूक्ष्मशरीर में विचरनेवाला ज्ञानप्रधान जीवनवाला बनता है और कारणशरीर में पहुँचनेवाला व्यक्ति एकत्व का दर्शन करता हुआ प्रभु का साक्षात्कार करता है। सामान्यतः कह सकते हैं कि स्थूलशरीर में स्थित की विक्षिप्तावस्था होती है, सूक्ष्मशरीर में स्थित की 'सम्प्रज्ञात समाधि' की स्थिति होती है और कारणशरीर में स्थित पुरुष 'असम्प्रज्ञात समाधि' में पहुँच जाता है। यहाँ वह एकदम निर्विषय हुआ हुआ प्रभु का दर्शन करता है। २. इसी प्रभु को (यज्ञियासः) = यज्ञशील लोग (प्रशस्तिभिः) = स्तुतियों के द्वारा (दधिरे) = धारण करते हैं । (गृभयन्तः) = यज्ञों का ग्रहण करनेवाले ये ऋत्विज् (इष्टौ) = यज्ञों में, अर्थात् यज्ञों के करने पर (सु) = उत्तमता से (उ) = निश्चय से (प्रनयन्त) = अपने को प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार (न) = जैसे कि (रथ्यः) = रथ में जुतनेवाले (अश्वासः) = घोड़े (रारहाणः) = वेगवाले होते हुए स्वामी को लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु-दर्शन के लिए आवश्यक है कि हम स्थूल व सूक्ष्मशरीर से ऊपर उठकर कारणशरीर में पहुँचें और यज्ञमय जीवनवाले बनें।
विषय
गुरु शिष्यों के कर्तव्य ।
भावार्थ
( रथ्यः अश्वासः गृभयन्तः न ) रथ में लगे उत्तम अश्व रासों द्वारा सुंसयत होकर जिस प्रकार रथ में स्थित पुरुष को ( इष्टौ सु प्र नयन्त ) प्राप्त करने योग्य देश में ले जाते हैं उसी प्रकार (यज्ञियासः) विद्या का दान और आदान करने में कुशल पुरुष ( यं ) जिसको ( नित्ये चित् सदने ) नित्य, स्थिर आश्रय या आसन पर स्थापित करके (जगृभ्रे) उसको गुरु रूप से ग्रहण या स्वीकर करते हैं और ( प्रशस्तिभिः ) और उत्तम वाणियों उत्तम शासन क्रियाओं द्वारा (दधिरे) धारण करते हैं ऐसे शिष्य को विद्वान् लोग ( गृभयन्तः ) अपने अधीन ग्रहण करते हुए, ( रारहाणाः ) ज्ञान का प्रदान करते हुए ( इष्टौ ) अभिलाषा करने योग्य और इष्ट, उपास्य और दातव्य विद्या मार्ग में ( सु प्र नयन्त ) अच्छी प्रकार आगे ही आगे ले जावें, उसे उन्नत करें। शिष्य जन को विद्वान् लोग उत्तम शासनों द्वारा ग्रहण करें, धारण करें और आगे सन्मार्ग पर बढ़ावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २ पङ्क्तिः । ५ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे नित्य आकाशात स्थित असलेल्या वायू व अग्नी इत्यादी पदार्थांना उत्तम क्रियेत युक्त करतात ते विमान इत्यादी यानांना बनवू शकतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the high-priests of yajna (in the field of science and meditation) take up Agni, fire energy, in the laboratory, workshop, the eternal space and the cave of the mind, develop it with laudable means for advancement, and harness it for desired purposes, going forward as by chariot drawn by trained horses.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
We must develop scientific outlook.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The performers of the Yajna in the form of varied functional activities lay hold of the Agni (power) in the eternal sky with a peculiar process and uphold it. By it's proper utilization, moving here and there, they manufacture aircrafts and other carriers, and move surftly like the fast harnessed horses. Such horses bear the rider to his destination.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who utilize properly the wind, fire and other elements existent in the sky eternal, can manufacture aero planes and other vehicles.
Foot Notes
(यज्ञियास:) ये शिल्पाख्यं यज्ञमर्हन्ति ते – Those who perform the Yajna in the form of industrial works.
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