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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 148 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 148/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न यं रि॒पवो॒ न रि॑ष॒ण्यवो॒ गर्भे॒ सन्तं॑ रेष॒णा रे॒षय॑न्ति। अ॒न्धा अ॑प॒श्या न द॑भन्नभि॒ख्या नित्या॑स ईं प्रे॒तारो॑ अरक्षन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यम् । रि॒पवः॑ । न । रि॒ष॒ण्यवः॑ । गर्भे॑ । सन्त॑म् । रे॒ष॒णाः । रे॒षय॑न्ति । अ॒न्धाः । अ॒प॒श्याः । न । द॒भ॒न् । अ॒भि॒ऽख्या । नित्या॑सः । ई॒म् । प्रे॒तारः॑ । अ॒र॒क्ष॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यं रिपवो न रिषण्यवो गर्भे सन्तं रेषणा रेषयन्ति। अन्धा अपश्या न दभन्नभिख्या नित्यास ईं प्रेतारो अरक्षन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यम्। रिपवः। न। रिषण्यवः। गर्भे। सन्तम्। रेषणाः। रेषयन्ति। अन्धाः। अपश्याः। न। दभन्। अभिऽख्या। नित्यासः। ईम्। प्रेतारः। अरक्षन् ॥ १.१४८.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 148; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    यं रिपवो न रेषयन्ति यं गर्भे सन्तं रेषणा रिषण्यवो न रेषयन्ति नित्यासोऽभिख्याऽपश्यानेवान्धा न दभन् ये प्रेतार ईम् रक्षन् तं तान् सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (न) (यम्) (रिपवः) शत्रवः (न) (रिषण्यवः) आत्मनो रेषणामिच्छवः (गर्भे) मध्ये (सन्तम्) वर्त्तमानम् (रेषणाः) हिंसकाः (रेषयन्ति) हिंसयन्ति (अन्धाः) ज्ञानदृष्टिरहिताः (अपश्याः) ये न पश्यन्ति ते (न) इव (दभन्) दभ्नुयुः (अभिख्या) ये अभितः ख्यान्ति ते (नित्यासः) अविनाशिनः (ईम्) सर्वतः (प्रेतारः) प्रीतिकर्तारः (अरक्षन्) रक्षेयुः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यं रिपवो हन्तुं न शक्नुवन्ति यो गर्भेऽपि न क्षीयते स आत्मा वेदितव्यः ॥ ५ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्वदग्न्यादिगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्बोध्या ॥इत्यष्टचत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यम्) जिसको (रिपवः) शत्रुजन (न) नहीं (रेषयन्ति) नष्ट करा सकते वा (गर्भे, सन्तम्) मध्य में वर्त्तमान जिसको (रेषणाः) हिंसक (रिषण्यवः) अपने को नष्ट होने की इच्छा करनेवाले (न) नष्ट नहीं करा सकते वा (नित्यासः) नित्य अविनाशी (अभिख्या) सब ओर से ख्याति करने और (अपश्याः) न देखनेवालों के (न) समान (अन्धाः) ज्ञानदृष्टिरहित न (दभन्) नष्ट कर सकें जो (प्रेतारः) प्रीति करनेवाले (ईम्) सब ओर से (अरक्षन्) रक्षा करें उस अग्नि को और उनको सब सत्कारयुक्त करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसको रिपु जन नष्ट नहीं कर सकते हैं, जो गर्भ में भी नष्ट नहीं होता है, वह आत्मा जानने योग्य है ॥ ५ ॥इस सूक्त में विद्वान् और अग्नि आदि पदार्थों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानने योग्य है ॥यह एकसौ अड़तालीसवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    रिपुओं व रिषण्युओं से अपना रक्षण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार आत्मारूप शर को ब्रह्मरूप लक्ष्य में विद्ध करनेवाले और इस प्रकार (गर्भे सन्तम्) = प्रभु के गर्भ में निवास करनेवाले (यम्) = जिस उपासक को (रिपवः) = व्याधिरूप शत्रु (न रेषयन्ति) = हिंसित नहीं करते, उस उपासक को (रिषण्यवः) = मन को हिंसित करनेवाले कामादि शत्रु भी (रेषणा) = अपने विविध हिंसन प्रकारों से [न रेषयन्ति] हिंसित नहीं कर पाते। प्रभु में निवास करनेवाला न व्याधि-रूप रिपुओं से आक्रान्त होता है और न कामादिरूप (रिषण्यु) = हिंसकों से हिंसित होता है। वह इन रिपुओं व रिषण्युओं को समाप्त करनेवाला होता है । २. इनके विपरीत जो प्रभु से दूर रहते हैं वे (अन्धाः) = अज्ञानी (अपश्याः) = वस्तु तत्त्व को न देखनेवाले (अभिख्या:) = प्रातः-सायं गपशप करनेवाले [gossip ही जिनकी God - worship] होती है, ये (न दभन्) = व्याधियों व कामादि शत्रुओं को हिंसित नहीं कर पाते। (ईम्) = निश्चय से (नित्यासः) = अविचलित भक्तिवाले-अग्निहोत्रादि नित्यकर्मों में रत (प्रेतारः) = प्रकर्षेण गतिशील अथवा स्थूल व सूक्ष्मशरीर से ऊपर उठकर कारणशरीर में जानेवाले व्यक्ति ही (अरक्षन्) = अपने को रिपुओं व रिषण्युओं से रक्षित कर पाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुगर्भ में रहनेवाले को व्याधियाँ व आधियाँ हिंसित नहीं करतीं ।

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    विषय

    विद्यार्थी का बल । पक्षान्तर में आत्मा का अविनाशी रूप ।

    भावार्थ

    विद्यार्थी का बल । जिस प्रकार ( गर्भे सन्तं ) काष्ठादि के गर्भ में लगे अग्नि को ( रेषणाः न रेषयन्ति ) बड़े आन्धी के झंकारे भी नहीं नष्ट कर सकते उसी प्रकार ( यं ) जिस ब्रह्मचारी को ( गर्भे सन्तं ) सावित्री के गर्भ में या विद्या के ग्रहण काल में ( सन्तं ) विद्यमान अग्नि स्वरूप तेजस्वी को (न रिपवः) न भीतरी शत्रु, काम, क्रोध, लोभ आदि व्यसन, और (न) नाहीं ( रिषण्यवः ) हिंसा करने वाली, नाशकारिणी ( रेषणाः ) आत्मा की नाशक प्रवृत्तियें ( रेषयन्ति ) विनाश करें और जिस प्रकार अग्नि को ( अन्धाः अपश्या अभिख्या न दभन् ) अन्धे, न देखने वाले, दृष्टि विहीन, केवल बात बनाने वाले लोग नहीं नाश कर सकते । उसी प्रकार उसको ( अन्धा अपश्याः ) मोहादि से अन्धे हुए और अच्छी प्रकार न देखने वाले ( अभिख्याः ) निन्दक जन भी ( न दभन् ) नष्ट न कर सकें। (ईम्) उसकी सब प्रकार से (नित्यासः) स्थिर, ध्रुव (प्रेतारः) उसके आगे आगे जाने वाले शिष्यजन या गुरुजन ( अरक्षन् ) रक्षा करें । अध्यात्म में—उस आत्मा को शत्रु हिंसक आदि नाश नहीं कर सकते । अन्धे, मोहान्ध असम्य-दृष्टि जन देख नहीं सकते, आगे बढ़ने वाले ज्ञानी ही उसको रक्षा करते हैं । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, २ पङ्क्तिः । ५ स्वराट् पङ्क्तिः । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्याला शत्रू नष्ट करू शकत नाहीत. जो गर्भातही नष्ट होत नाही, तो आत्मा जाणण्यायोग्य आहे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Existing as it is in the womb of Eternity, no enemies, no designers of evil, no destroyers, no attacks, can damage it. The blind and the ignorant hurt it not, they cannot suppress it. Those who know, those who love, value and cooperate, permanently protect and promote it.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Significance of spiritualism is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    No violent and malicious enemies can kill this Agni (i.e. the soul). It is within and therefore nobody could try to slay. A blind (intellectually) or ignorant person cannot realize its glory or real nature. It is only the wise men who realize its eternity and therefore love it and, preserve its purity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! You should know this soul which can never be killed and which being within, cannot be destroyed.

    Foot Notes

    (रिषण्यवः) आत्मनो रेषणामिच्छवः = Desiring to kill the Atma or soul. (रेषणा:) हिसका: - Violent persons (अन्धा:) ज्ञानदृष्टिरहिताः = Devoid of the sight of wisdom, blind intellectually. Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have erroneously understood Agni. In fact, the reference here is to the soul. They take it only to mean the fire, about which these epithets and descriptions are not applicable. Sayanacharya seems to hint at it vaguely but has missed the point.

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