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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 159 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 159/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    ते मा॒यिनो॑ ममिरे सु॒प्रचे॑तसो जा॒मी सयो॑नी मिथु॒ना समो॑कसा। नव्यं॑नव्यं॒ तन्तु॒मा त॑न्वते दि॒वि स॑मु॒द्रे अ॒न्तः क॒वय॑: सुदी॒तय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । मा॒यिनः॑ । म॒मि॒रे॒ । सु॒ऽप्रचे॑तसः । जा॒मी इति॑ । सयो॑नी॒ इति॒ सऽयो॑नी । मि॒थु॒ना । सम्ऽओ॑कसा । नव्य॑म्ऽनव्यम् । तन्तु॑म् । आ । त॒न्व॒ते । दि॒वि । स॒मु॒द्रे । अ॒न्तरिति॑ । क॒वयः॑ । सु॒ऽदी॒तयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते मायिनो ममिरे सुप्रचेतसो जामी सयोनी मिथुना समोकसा। नव्यंनव्यं तन्तुमा तन्वते दिवि समुद्रे अन्तः कवय: सुदीतय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। मायिनः। ममिरे। सुऽप्रचेतसः। जामी इति। सयोनी इति सऽयोनी। मिथुना। सम्ऽओकसा। नव्यम्ऽनव्यम्। तन्तुम्। आ। तन्वते। दिवि। समुद्रे। अन्तरिति। कवयः। सुऽदीतयः ॥ १.१५९.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 159; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये सुप्रचेतसो मायिनः सुदीतयः कवयः समोकसा मिथुना सयोनी जामी प्राप्य विदित्वा वा दिवि समुद्रेऽन्तर्नव्यंनव्यं तन्तुं ममिरे ते सर्वाणि विद्यासुखान्यातन्वते ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (ते) (मायिनः) प्रशंसिता मायाः प्रज्ञा विद्यन्ते येषान्ते (ममिरे) निर्मिमते (सुप्रचेतसः) शोभनं प्रगतं चेतो विज्ञानं येषां ते (जामी) सुखभोक्तारौ (सयोनी) समाना योनिर्विद्या निमित्तं वा ययोस्तौ (मिथुना) द्वौ (समोकसा) समीचीनमोको निवसनं ययोस्तौ (नव्यंनव्यं) नवीनंनवीनं (तन्तुम्) वितृस्तं वस्तुविज्ञानं वा (आ, तन्वते) (दिवि) विद्युति सूर्ये वा (समुद्रे) अन्तरिक्षे सागरे वा (अन्तः) मध्ये (कवयः) विद्वांसः (सुदीतयः) शोभना दीप्तिर्विद्यादीप्तिर्येषां ते। अत्र छान्दसो वर्णलोपोवेति पलोपः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या आप्तावध्यापकोपदेशकावुपेत्य विद्याः प्राप्य भूमिविद्युतौ वा विदित्वा सर्वाणि विद्याकृत्यानि हस्तामलकवत्साक्षात्कृत्यान्यानुपदिशन्ति ते जगद्भूषका भवन्ति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (सुप्रचेतसः) सुन्दर प्रसन्नचित्त (मायिनः) प्रशंसित बुद्धि वा (सुदीतयः) सुन्दर विद्या के प्रकाशवाले (कवयः) विद्वान् जन (समोकसा) समीचीन जिनका निवास (मिथुना) ऐसे दो (सयोनी) समान विद्या वा निमित्त (जामी) सुख भोगनेवालों को प्राप्त हो वा जानकर (दिवि) बिजुली और सूर्य के तथा (समुद्रे) अन्तरिक्ष वा समुद्र के (अन्तः) बीच (नव्यंनव्यम्) नवीन नवीन (तन्तुम्) विस्तृत वस्तुविज्ञान को (ममिरे) उत्पन्न करते हैं (ते) वे सब विद्या और सुखों का (आ, तन्वते) अच्छे प्रकार विस्तार करते हैं ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य आप्त अध्यापक और उपदेशकों को प्राप्त हो विद्याओं को प्राप्त हो वा भूमि और बिजुली को जान समस्त विद्या के कामों को हाथ में आमले के समान साक्षात् कर औरों को उपदेश देते हैं, वे संसार को शोभित करनेवाले होते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    स्तुत्य कर्म व दीप्त जीवन

    पदार्थ

    १. (ते) = वे (मायिनः) = प्रज्ञावाले (सुप्रचेतसः) = उत्कृष्ट प्रज्ञानवाले आराधक शरीर व मस्तिष्क को (ममिरे) = निर्मित करते हैं, बनाते हैं। ये शरीर और मस्तिष्क (जामी) = भगिनियों के समान हैं, परस्पर सम्बन्धवाले हैं। शरीर का प्रभाव मस्तिष्क पर तथा मस्तिष्क का प्रभाव शरीर पर पड़ता ही है। (सयोनी) = ये मस्तिष्क व शरीर समान उत्पत्तिस्थानवाले हैं - दोनों का निर्माण करनेवाला प्रभु एक ही है। (मिथुना) = ये द्वन्द्वात्मक हैं, परस्पर संगत हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं। शरीर मस्तिष्क का पूरण करता है और मस्तिष्क शरीर का । (समोकसा) = ये समान गृहवाले हैं, अलगअलग रहनेवाले नहीं। शरीर न रहे तो मस्तिष्क ने कहाँ रहना, मस्तिष्क न रहे तो शरीर की समाप्ति है। इस प्रकार प्रज्ञावाले, समझदार लोग मस्तिष्क व शरीर दोनों के उत्थान का ध्यान करते हैं । २. शरीर व मस्तिष्क को ठीक करके ये (नव्यं नव्यम्) = स्तुत्य और अधिक स्तुत्य (तन्तुम्) = कर्म- तन्तुओं को आतन्वते विस्तृत करते हैं और ये (कवयः) = क्रान्तदर्शी, तत्त्वज्ञानी पुरुष (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश में तथा (समुद्रे) = [स+मुद्] सदा आनन्दमय प्रभु में (अन्तः) = अन्दर निवास करते हुए (सुदीतयः) = उत्तम दीप्तिवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष शरीर व मस्तिष्क दोनों का उत्तम सुधार करते हुए स्तुत्य कर्मों को करते हैं तथा ज्ञान व प्रभु में विचरते हुए दीप्त जीवनवाले होते हैं ।

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    विषय

    ईश्वर के स्वरूप का चिन्तन कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    पुत्रों के कर्त्तव्य ! ( ते ) वे ( मायिनः ) बुद्धिमान् ( सुप्रचेतसः ) उत्तम सुन्दर ज्ञान और चित्त वाले ( कवयः ) क्रान्तदर्शी, दीर्घदर्शी, ( सुदीतयः ) उत्तम दीप्ति और तेज से युक्त ( समुद्रे ) अन्तरिक्ष में सूर्य की किरणों के समान ( जामी ) परस्पर समान रूप से पुत्रोत्पादन में समर्थ, बन्धु होकर ( मिथुना ) जोड़े जोड़े बन कर (समोकसा) एक ही स्थान में घर बना कर रहते हुए, (नव्यं नव्यं) नये नये ( तन्तुं ) प्रजातन्तु को ( दिवि ) अपनी कामनानुरूप पुत्रैषणा के निमित्त ( आ तन्वते ) उत्पन्न करें । अथवा ( दिवि नव्यं-नव्यं तन्तुम् ) वे जोड़े जोड़े युगल दम्पति होकर नये नये यज्ञ को सुख और मोक्ष प्राप्त करने के निमित्त करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः- १ विराट् जगती । २, ३, ५ निचृज्जगती । ४ जगती च ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे आप्त, अध्यापक व उपदेशकाकडून विद्या प्राप्त करतात. भूमी व विद्युतला जाणून संपूर्ण विद्या हस्तमलकावत् साक्षात करून इतरांना उपदेश करतात, ते जगाला शोभिवंत करतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those are poets and scientists of brilliance and vision possessed of wondrous power and intelligence, of equal knowledge and interest, loving together and working together as a family team like brother and sister, who study and measure the depths and interior of the oceans of earth and the heavens of light, create the warp and woof of ever expanding new knowledge and find new paths over the seas and in the skies and space.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Path of happiness is indicated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The area of happiness is outlined here. The intelligent highly learned, brightly shining (on account of their knowledge) wise poets are qualified for such a step. Equally the teachers and preachers also enjoy the happiness, because both are rooted in the Vidya or wisdom. They also dwell together or know earth and energy measures. Such people also generate new and ever new vast knowledge about the sun or the lightning in the firmament or the ocean.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons become admired, who approach absolutely truthful teachers and preachers. They after having received the knowledge of all sciences or having known the attributes and functions of the earth and energy teach them to others, realizing all the knowledge and actions.

    Foot Notes

    (मायिनः ) प्रशंसिताः माया: प्रज्ञा : विद्यन्ते येषां ते -- Possessing good intellect. ( सयोनी) समाना योनिविद्या निमितं वा यया ते = Having the same origin from Vidya or wisdom. ( तन्तुम् ) विस्तृतं वस्तु विज्ञानं वा = Vast substance or knowledge.

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