ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 177/ मन्त्र 4
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒यं य॒ज्ञो दे॑व॒या अ॒यं मि॒येध॑ इ॒मा ब्रह्मा॑ण्य॒यमि॑न्द्र॒ सोम॑:। स्ती॒र्णं ब॒र्हिरा तु श॑क्र॒ प्र या॑हि॒ पिबा॑ नि॒षद्य॒ वि मु॑चा॒ हरी॑ इ॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । य॒ज्ञः । दे॒व॒ऽयाः । अ॒यम् । मि॒येधः॑ । इ॒मा । ब्रह्मा॑णि । अ॒यम् । इ॒न्द्र॒ । सोमः॑ । स्ती॒र्णम् । ब॒र्हिः । आ । तु । श॒क्र॒ । प्र । या॒हि॒ । पिब॑ । नि॒ऽसद्य॑ । वि । मु॒च॒ । हरी॒ इति॑ । इ॒ह ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं यज्ञो देवया अयं मियेध इमा ब्रह्माण्ययमिन्द्र सोम:। स्तीर्णं बर्हिरा तु शक्र प्र याहि पिबा निषद्य वि मुचा हरी इह ॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। यज्ञः। देवऽयाः। अयम्। मियेधः। इमा। ब्रह्माणि। अयम्। इन्द्र। सोमः। स्तीर्णम्। बर्हिः। आ। तु। शक्र। प्र। याहि। पिब। निऽसद्य। वि। मुच। हरी इति। इह ॥ १.१७७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 177; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविद्वद्विषयमाह ।
अन्वयः
हे शक्रेन्द्र अयं देवया यज्ञोऽयं मियेधोऽयं सोमस्त्विदं स्तीर्णं बर्हिर्निसद्येमा ब्रह्माणि प्रायाहि। इं सोमं पिब इह हरी स्वीकृत्य दुःखं विमुच ॥ ४ ॥
पदार्थः
(अयम्) (यज्ञः) राजधर्मशिल्पकार्य्यसङ्गत्युन्नतः (देवयाः) देवान् दिव्यान् गुणान् विदुषो वा याति प्राप्नोति येन सः (अयम्) (मियेधः) मियेन प्रक्षेपणेनैधः प्रदीपनं यस्य सः (इमा) इमानि (ब्रह्माणि) धनानि। ब्रह्मेति धनना०। निघं० २। १०। (अयम्) (इन्द्र) सभेश (सोमः) महौषधिरस ऐश्वर्य्यं वा (स्तीर्णम्) आच्छादितम् (बर्हिः) उत्तमासनम् (आ) (तु) (शक्र) शक्तिमान् (प्र) (याहि) प्राप्नुहि (पिब)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (निसद्य) उपविश्य (वि) (मुच) त्यज। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। वा छन्दसीति उपधानकारलोपः। (हरी) विद्युतो धारणाकर्षणावश्वौ। हरि इतीन्द्रस्येत्यादिष्टोपयोजनना०। निघं० १। १५। (इह) अस्मिन् जगति ॥ ४ ॥
भावार्थः
सर्वैर्जनैर्व्यवहारे प्रयत्य यदा राजा स्नातको विद्यावयोवृद्धश्चागच्छेत्तदाऽऽसनादिभिः सत्कृत्य प्रष्टव्यः, स तान् प्रति यथोचितं धर्म्यं विद्याप्रापकं वचो ब्रूयाद्यतो दुःखहानिसिद्धिर्विद्युदादिपदार्थसिद्धिश्च स्यात् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा और विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (शक्र) शक्तिमान् (इन्द्र) सभापति ! (अयम्) यह (देवयाः) जिससे दिव्य गुण वा उत्तम विद्वानों को प्राप्त होना होता वह (यज्ञः) राजधर्म और शिल्प की सङ्गति से उन्नति को प्राप्त हुआ यज्ञ वा (अयम्) यह (मियेधः) जिसकी पदार्थों के डारने से वृद्धि होती वह (अयम्) यह (सोमः) बड़ी बड़ी ओषधियों का रस वा ऐश्वर्य (तु) और यह (स्तीर्णम्) ढंपा हुआ (बर्हिः) उत्तम आसन है (निसद्य) इस आसन पर बैठ (इमा) इन (ब्रह्माणि) धनों को (प्रायाहि) उत्तमता से प्राप्त होओ। इस उक्त ओषधि को (पिब) पी, (इह) यहाँ (हरी) बिजुली के धारण और आकर्षणरूपी घोड़ों को स्वीकार कर और दुःख को (विमुच) छोड़ ॥ ४ ॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को व्यवहार में अच्छा यत्न कर जब राजा, ब्रह्मचारी तथा विद्या और अवस्था से बढ़ा हुआ सज्जन आवे तब आसन आदि से उसका सत्कार कर पूछना चाहिए। वह उनके प्रति यथोचित धर्म के अनुकूल विद्या की प्राप्ति करनेवाले वचन को कहे जिससे दुःख की हानि सुख की वृद्धि और बिजुली आदि पदार्थों की भी सिद्धि हो ॥ ४ ॥
विषय
ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग
पदार्थ
१. (अयं यज्ञः) = यह यज्ञ (देवयाः) = देवों को प्राप्त करानेवाला है, दिव्य गुणों को प्राप्त कराके यह उस महादेव की ओर ले जानेवाला है। (अयम्) = यह (मियेध:) = [sacrificial offering] देवयज्ञ की आहुतियाँ हैं । (इमा ब्रह्माणि) = ये स्तोत्र हैं और हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (अयं सोमः) = यह सोम है, अर्थात् हे प्रभो! आपके निर्देशों के अनुसार मैंने [क] दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाले यज्ञात्मक कर्मों को अपनाया है, [ख] अग्निहोत्रादि में आहुतियाँ देकर हविरूप भोजन ही किया है, [ग] स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए, [घ] आपके स्मरण के द्वारा सोम [वीर्य] का शरीर में ही पान [रक्षण] किया है। २. इस प्रकार इन सब कार्यों को करते हुए (बर्हिः स्तीर्णम्) = मैंने इस वासना-शून्य हृदयरूप आसन को बिछाया है, अतः (शक्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! आप तु-निश्चय से (आ प्रयाहि) = इस हृदय-आसन पर आसीन होने के लिए आइए ही। ३. आप ही इस आसन पर (निषद्य) = आसीन होकर (पिब) = मेरे इस सोम का पान कीजिए। आपको ही इस सोम का रक्षण करना है। आपके हृदय में आसीन होने पर वहाँ काम का प्रवेश असम्भव हो जाता है और इस प्रकार सोम का रक्षण हो पाता है । (इह) = इस जीवन में (हरी) = मेरे इन्द्रियाश्वों को विमुच सब विषय बन्धनों से मुक्त कीजिए ।
भावार्थ
भावार्थ - श्रेष्ठ कर्म, अग्रिहोत्र, स्तोत्र, सोमरक्षण, वासनाशून्य हृदय- ये प्रभु-प्राप्ति के साधन हैं।
विषय
बलवान् नायकों का आह्वान, शासक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(अयं यज्ञः) यह ‘यज्ञ’ अर्थात् सबका उचित आदर सत्कार, सज्जनों का सत्संग और उत्तम व्यवस्था करने हारा राजा और राज्य (देवयाः) देव, दिव्य गुणवान् विद्वानों, दिव्य गुणों को प्राप्त कराने और उनको उचित मान, दान देने हारा है । (अयं) यह शस्त्रादि फेंकने योग्य आयुधों, अस्त्रों से अति प्रदीप्त होने वाला, सेनापति है । ( इमा ) ये ( ब्रह्माणि ) नाना धनैश्वर्य हैं । हे ( इन्द्र ) शत्रुहन्तः ! ( अयम् सोमः ) यह महान् ऐश्वर्य, या उत्तम औषधि रस या सबको सन्मार्ग में चलाने हारा ब्राह्मणवर्ग है । यह ( बर्हिः ) राज्यवृद्धि करने वाला प्रजाजन ( स्तीर्णम् ) दूर तक फैला हुआ अथवा यह विछा हुआ उत्तम आसनवत् है । हे (शक्र) शक्तिशालिन् ! तू ( नि सद्य ) इस पर विराज कर ( प्र याहि ) आगे बढ़ और ( प्र पिब) अच्छी प्रकार इसका पालन कर और उपभोग कर। ( इह ) इसी राष्ट्र में ( हरी ) रथ के दो अश्वों के समान राष्ट्र को वहन करने वाले, योग्य कार्यसञ्चालक सेनापति और न्यायाधीश दोनों को (विमुच) विविध, भिन्न भिन्न क्षेत्र में युक्तकर, उनको स्वतन्त्रता से कार्य करने दे । (२) आत्मा सर्वोपास्य होने से ‘यज्ञ’ है। विद्वानों द्वारा या प्राणों से संगत होने से ‘देवयाः’ है । प्राणबलों से शरीर को धारण करने में वा अति पवित्र होने से वह ‘मियेध्य’ है । ये अन्न ‘ब्रह्म’ है । यह उनसे उत्पन्न ‘सोम’ वीर्य है । अन्न से बढ़ने हारा शरीर बर्हि है। शक्तिमान् आत्मा उसका उपभोग करता है । वह इस देह में प्राण अपान दोनों को स्वतन्त्रता से गति करने देता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ स्वरः—१—४ धैवतः । ५ पञ्चमः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्व माणसांनी प्रयत्नपूर्वक चांगला व्यवहार ठेवला पाहिजे. जेव्हा राजा, ब्रह्मचारी व वयोवृद्ध सज्जन येतील तेव्हा आसन इत्यादींनी त्यांचा सत्कार केला पाहिजे. त्यांच्याशी यथोचित धर्मानुकूल विद्येची प्राप्ती होईल अशी वाणी वापरावी. ज्यामुळे दुःखाची हानी, सुखाची वृद्धी व विद्युत इत्यादी पदार्थांची सिद्धी व्हावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, generous and powerful lord ruler of the world, this is the yajna that leads to divine heights of existential success. This is the yajna that grows by holy inputs of fragrant materials. These are the materials and mantric formulas of libation. And this is the soma of the celebration of success. The vedi is covered round with holy grass for seats. Lord of potency and generosity, come, release the horses, sit and drink of the soma of celebration and success.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The king, Brahmachari and learned should be received respectfully.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mighty Indra (President of the Assembly)! the Yajna for a king includes the duties of technical progress and association with the wise. It leads to achievement of divine virtues. In this Yajna, the fuel is kindled by putting the oblations of Ghee and Samagri (various fragrant and nourishing ingredients) which destroys diseases and misery. These are the riches. This is the juice of Soma and other nourishing herbs or great prosperity. A beautiful seat has been laid for you. Please take your seat and accept gift of our prayers. Drink this Soma. Take your speedy carriers and vehicles to distant places. They are powerful and attractive, and able to dispel all sufferings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Whenever a king, and Snataka (graduate of the Gurukula) an old man and experienced comes, he should be honored by giving the proper seat etc. and his level of knowledge should be measured. He should give proper answers and instructions to ward off all miseries and the knowledge of energy etc. may be sought from shim.
Foot Notes
(यज्ञः) राजधर्म शिल्पकार्यसङ्गत्युन्नतः – Yajna in the form of the discharge of the duties of a king, technical progress and association with the wise etc. ( मियेध:) मियेन प्रक्षेपेण एध: प्रदीपनं यस्य सः = Which grows by putting the oblation of heated butter etc. (ब्रह्माणि) धनानि । ब्रह्मेति धननाम (NG. 2-10 ) ( बर्हि:) उत्तमासनम् = Good Seat. ( हरी) विद्युतो धारणाकर्षणौ अश्वौ । हरी इतीन्द्रस्य – इत्यादिष्टोपयोजननाम (NG. 1-15) The word ब्रह्म means wealth ब्रह्मेति धननाम (NG. 2-10) means. It also may mean the Vedic mantras or prayers. Following ब्रह्म वै मन्त्रः ( Shuth 7.1.1.5. ) वेदो ब्रह्म ( Jaiminiupnsd 4.25.3).
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