ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 177/ मन्त्र 5
ऋषि: - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ओ सुष्टु॑त इन्द्र याह्य॒र्वाङुप॒ ब्रह्मा॑णि मा॒न्यस्य॑ का॒रोः। वि॒द्याम॒ वस्तो॒रव॑सा गृ॒णन्तो॑ वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठओ इति॑ । सुऽस्तु॑तः । इ॒न्द्र॒ । या॒हि॒ । अ॒र्वाङ् । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । मा॒न्यस्य॑ । का॒रोः । वि॒द्याम॑ । वस्तोः॑ । अव॑सा । गृ॒णन्तः॑ । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओ सुष्टुत इन्द्र याह्यर्वाङुप ब्रह्माणि मान्यस्य कारोः। विद्याम वस्तोरवसा गृणन्तो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठओ इति। सुऽस्तुतः। इन्द्र। याहि। अर्वाङ्। उप। ब्रह्माणि। मान्यस्य। कारोः। विद्याम। वस्तोः। अवसा। गृणन्तः। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१७७.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 177; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ओ इन्द्र यथा वयं मान्यस्य कारोर्ब्रह्माणि वस्तोरुपविद्याम यथा वावसा गृणन्तः सन्त इषं वृजनं जीरदानुञ्च विद्याम तथा त्वं सुष्टुतोऽर्वाङ्याहि ॥ ५ ॥
पदार्थः
(ओ) सम्बोधने (सुष्टुतः) सुष्ठु प्रशंसितः (इन्द्र) धनप्रद सभेश (याहि) प्राप्नुहि (अर्वाङ्) अर्वाचीनमञ्चन् (उप) (ब्रह्माणि) धनानि (मान्यस्य) सत्कर्त्तुं योग्यस्य (कारोः) कारकस्य (विद्याम) जानीयाम (वस्तोः) प्रतिदिनम् (अवसा) रक्षणाद्येन (गृणन्तः) स्तुवन्तः (विद्याम) विजानीयाम (इषम्) प्राप्तिम् (वृजनम्) सद्गतिम् (जीरदानुम्) जीवात्मानम् ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये धनमाप्नुयुस्ते परेषां सत्कारं कुर्युः। ये क्रियाकुशलाः शिल्पिन ऐश्वर्य्यमाप्नुयुस्ते सर्वैः सत्कर्त्तव्याः स्युः। यथा यथा विद्यादिसद्गुणा अधिकाः स्युस्तथा तथा निरभिमानिनो भवन्तु ॥ ५ ॥अत्र राजादिविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्या ॥इति सप्तसप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (1)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(ओ, इन्द्र) हे धन देनेवाले सभापति ! जैसे हम लोग (मान्यस्य) सत्कार करने योग्य (कारोः) कार करनेवाले के (ब्रह्माणि) धनों को (वस्तोः) प्रतिदिन (उप, विद्याम) समीप में जानें वा जैसे (अवसा) रक्षा आदि के साथ (गृणन्तः) स्तुति करते हुए हम लोग (इषम्) प्राप्ति (वृजनम्) उत्तम गति और (जीरदानुम्) जीवात्मा को (विद्याम) जानें वैसे आप (सुष्टुतः) अच्छे प्रकार स्तुति को प्राप्त हुए (अर्वाङ्) (याहि) सम्मुख आओ ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो धन को प्राप्त हों वे औरों का सत्कार करें, जो क्रियाकुशल शिल्पीजन ऐश्वर्य को प्राप्त हों वे सबको सत्कार करने योग्य हों, जैसे जैसे विद्या आदि अच्छे गुण अधिक हों वैसे वैसे अभिमानरहित हों ॥ ५ ॥।यहाँ राजा आदि विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ सतहत्तरवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्यांच्याजवळ धन असेल त्यांनी इतरांचा सत्कार करावा. जे क्रियाकुशल शिल्पी लोक ऐश्वर्य प्राप्त करतात त्यांचा सर्वांनी सत्कार करावा. जसजसे विद्या इत्यादी चांगले गुण अधिक होतील तसतसे अभिमानरहित व्हावे. ॥ ५ ॥
English (1)
Meaning
Indra, lord of light and life, ruler of the world, thus happily invoked and celebrated, come here and appreciate the mantric secret and revelations of the artist and value the holy materials produced by him so that we too, singing songs of thanks and celebration, may progress with due protection day by day and be blest with food and energy, the right path of living and the breath and spirit of life and light divine.
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