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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 178 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 178/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    न घा॒ राजेन्द्र॒ आ द॑भन्नो॒ या नु स्वसा॑रा कृ॒णव॑न्त॒ योनौ॑। आप॑श्चिदस्मै सु॒तुका॑ अवेष॒न्गम॑न्न॒ इन्द्र॑: स॒ख्या वय॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । घ॒ । राजा॑ । इन्द्रः॑ । आ । द॒भ॒त् । नः॒ । या । नु । स्वसा॑रा । कृ॒णव॑न्त । योनौ॑ । आपः॑ । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । सु॒ऽतुकाः॑ । अ॒वे॒ष॒न् । गम॑त् । नः॒ । इन्द्रः॑ । स॒ख्या । वयः॑ । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न घा राजेन्द्र आ दभन्नो या नु स्वसारा कृणवन्त योनौ। आपश्चिदस्मै सुतुका अवेषन्गमन्न इन्द्र: सख्या वयश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। घ। राजा। इन्द्रः। आ। दभत्। नः। या। नु। स्वसारा। कृणवन्त। योनौ। आपः। चित्। अस्मै। सुऽतुकाः। अवेषन्। गमत्। नः। इन्द्रः। सख्या। वयः। च ॥ १.१७८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 178; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा इन्द्रो राजा नोऽस्मान्नादभत्तथा वयं नु तं घ मा हिंसेम। यथा या स्वसारा योनौ बन्धुं न हिंस्यात्तां तथा तद्वद्वयं कञ्चिदपि न हिंस्याम यथा विद्वांसो हिंसां न कुर्वन्ति तथा सर्वे न कृणवन्त यथेन्द्रोऽस्मै सख्या वयश्च सुतुका आपोऽवेषंश्चिदिव नोऽस्मान् गमत्तथैतं वयमपि प्राप्नुयाम ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (न) निषेधे (घ) एव। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (राजा) विद्याविनयाभ्यां राजमानः (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः (आ) समन्तात् (दभत्) हिंस्यात् (नः) अस्मान् (या) ये (नु) सद्यः (स्वसारा) भगिन्याविव (कृणवन्त) कुरुत (योनौ) गृहे (आपः) जलानि (चित्) इव (अस्मै) (सुतुकाः) सुष्ठु आदात्र्यः (अवेषन्) व्याप्नुवन्ति (गमत्) प्राप्नुयात् (नः) अस्मान् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (सख्या) मित्रस्य कर्म्माणि (वयः) जीवनम् (च) ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाप्ता दयालवः कञ्चन न हिंसन्ति तथा सर्व आचरन्तु ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्त (राजा) विद्या और विनय से प्रकाशमान राजा (नः) हम लोगों को (न)(आ, दभत्) मारे न दण्ड देवे वैसे हम लोग (नु) भी उसको (घ) ही मत दुःख देवें, जैसे (या) जो (स्वसारा) दो बहिनियों के समान दो स्त्री (योनौ) घर में बन्धु को मारें वैसे उनके समान हम किसीको न मारें, जैसे विद्वान् जन हिंसा नहीं करते हैं वैसे सब लोग न (कृणवन्त) करें, जैसे (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (अस्मै) इस सज्जन के लिये (सख्या) मित्रपन के काम (वयः) जीवन (च) और (सुतुकाः) सुन्दर ग्रहण करनेवाली स्त्री (आपः) जलों को (अवेषन्) व्याप्त होती हैं (चित्) उनके समान (नः) हम लोगों को (गमत्) प्राप्त हो वैसे उनको हम भी प्राप्त होवें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शास्त्रज्ञ धर्मात्मा दयालु विद्वान् किसीको नहीं मारते, वैसे सब आचरण करें ॥ २ ॥

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    विषय

    क्रियाशील मैत्र जीवन

    पदार्थ

    १. (नः) = हमें (घ) = निश्चय से (राजा) = इस विश्व का शासक (इन्द्रः) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (न आदभत्) = हिंसित न करे। हमें प्रभु नष्ट न करे (या) = जो (नु) = निश्चय से (स्वसारा) = [स्व+सृ] आत्मतत्त्व की ओर सरण करनेवाले अथवा अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्त होनेवाले पति-पत्नी (योनौ) = अपने घर में कृण्वन्त कार्यों को करते हैं। घर को उत्तम बनाने के लिए कार्यों में प्रवृत्त रहनेवाले पति-पत्नी हिंसित नहीं होते। २. (सुतुका:) = उत्तम वृद्धि के कारणभूत (आपः) = रेत: कण (चित्) = निश्चय से (अस्मै) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (अवेषन्) = शरीर में व्याप्त होनेवाले होते हैं रेत: कणों के शरीर में व्याप्त होने से शरीर नीरोग बनता है तथा बुद्धि तीव्र होकर प्रभु-दर्शन के योग्य बनती है। ३. (न:) = हमारे लिए (इन्द्रः) = यह परमैश्वर्यशाली प्रभु (सख्या) = मित्रताओं को (वयः च) = और उत्तम जीवन को (गमत्) = प्राप्त कराएँ । हम जीवन में [मैत्र] सबके साथ मित्रतावाले हों। ईर्ष्या-द्वेष से भरा हुआ जीवन कोई जीवन नहीं है। सबके प्रति मित्रतावाला जीवन ही सुजीवन है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम अपने घरों में क्रियाशील जीवन बिताते हुए प्रभु से अहिंसित हों, रेतः कणों का रक्षण करें, सबके साथ मित्रता से वर्तें ।

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    विषय

    उत्तम स्वामी राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( राजा ) बल और विद्या से प्रकाशमान, सब का स्वामी, राजा ( इन्द्रः ) सूर्य और विद्युत् के समान तेजस्वी होकर भी ( नः ) हम ( न आदभत् ) उन प्रजाओं को पीड़ित न करे ( या ) जो प्रजाएं ( स्वसारा ) उसकी बहनों के समान उसकी बन्धु होकर वा उसकी शरण में स्वयं आकर ( योनौ ) एक ही स्थान या देश में ( कृणवन्त ) नाना कार्य व्यवहार करती हैं। ( अस्मै ) इस राजा के हित के लिये ही ( आपः चित् ) शरीर या आत्मा के लिये प्राणों के समान प्रिय होकर ( सुतुकाः ) उत्तम पुरुष के लिये उत्तम केश वाली स्त्रियों के समान, उत्तम सुख भोग देने हारी प्रजाएं ( अवेषन् ) देश भर में व्यापें, फैलकर रहें । (इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् पुरुष, देह में आत्मा और घर में पति के समान, हमारे प्रति ( सख्या ) मित्र भाव से और ( नः ) हमें (वयः च) अन्न और बल आदि प्रदान करे। (२) अध्यात्म में ‘योनि’ देह। प्राणगण स्वयं अनायास वा आत्मा के बल से चलने वाले होने से ‘स्वसा’ हैं । वे ही आपोमय होने से ‘आपः’ हैं । उत्तम देह पालक होने से ‘सुतुक’ हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, २ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । २ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे शास्त्रज्ञ, धर्मात्मे, दयाळू, विद्वान कुणाचेही हनन करीत नाहीत तसे सर्वांनी आचरण करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May Indra, lord of life, action and success, we pray, suppress us not any way, nor negate what our sisters achieve in the home or in the yajna on the vedi. Instead, let the lord of the world, we pray, make the waters of life flow free for us, and let our achievements rise high for his sake. May Indra, we pray, bless us with health and the good life and grant us the favour of divine friendship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The praise to Indra is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as the Indra (President of the Assembly or the Commander of the Army) does not harm us, we may not also harm others in any way. The sisters live lovingly in a home but do not harm each other and their relations. Same way we also not harm each other. All enlightened persons do not harm any one, and the others should emulate them. The Indra (President of the Assembly) extends to such person his friendship and longevity alongwith his happiness-linked compassion. Same way, may he bestow, has happiness linked compassion. Same way, may be bestow upon us also his friendly regard and long life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Foot Notes

    (राजा) विद्याविनयाभ्यां राजमानः = Shining with knowledge and happiness. (सुतुका:) सुष्ठु आदात्न्य: = Harbingers of happiness.

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