ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 178/ मन्त्र 4
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा नृभि॒रिन्द्र॑: सुश्रव॒स्या प्र॑खा॒दः पृ॒क्षो अ॒भि मि॒त्रिणो॑ भूत्। स॒म॒र्य इ॒षः स्त॑वते॒ विवा॑चि सत्राक॒रो यज॑मानस्य॒ शंस॑: ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । नृऽभिः॑ । इन्द्रः॑ । सु॒ऽश्र॒व॒स्या । प्र॒ऽखा॒दः । पृ॒क्षः । अ॒भि । मि॒त्रिणः॑ । भू॒त् । स॒ऽम॒र्ये । इ॒षः । स्त॒व॒ते॒ । विऽवा॑चि । स॒त्रा॒ऽक॒रः । यज॑मानस्य । शंसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा नृभिरिन्द्र: सुश्रवस्या प्रखादः पृक्षो अभि मित्रिणो भूत्। समर्य इषः स्तवते विवाचि सत्राकरो यजमानस्य शंस: ॥
स्वर रहित पद पाठएव। नृऽभिः। इन्द्रः। सुऽश्रवस्या। प्रऽखादः। पृक्षः। अभि। मित्रिणः। भूत्। सऽमर्ये। इषः। स्तवते। विऽवाचि। सत्राऽकरः। यजमानस्य। शंसः ॥ १.१७८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 178; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या नृभिः सहेन्द्रः सुश्रवस्या पृक्षः प्रखादो मित्रिणोऽऽभि भूत् विवाचि सत्राकरो यजमानस्य शंसः समर्य्ये इषः स्तवतयेव ॥ ४ ॥
पदार्थः
(एव) निश्चये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नृभिः) वीरैः पुरुषैः सह (इन्द्रः) सेनेशः (सुश्रवस्या) शोभनान्नेच्छया (प्रखादः) अतिभक्षकः (पृक्षः) ज्ञापयितुमिष्टमन्नम् (अभि) आभिमुख्ये (मित्रिणः) मित्राणि यस्य सन्ति तस्य (भूत्) भवेत् (समर्य्ये) सम्यगर्य्ये वणिजि (इषः) अन्नानि (स्तवते) प्रशंसति (विवाचि) विविधविद्यासुशिक्षायुक्ते (सत्राकरः) सत्रा सत्यं करोतीति (यजमानस्य) दातुः (शंसः) प्रशंसकः ॥ ४ ॥
भावार्थः
ये उद्योगिनः सत्यवादिनः सत्योपदेशं कुर्वन्ति ते नायका भवन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(नृभिः) वीर पुरुषों के साथ (इन्द्रः) सेनापति (सुश्रवस्या) उत्तम अन्न की इच्छा से (पृक्षा) दूसरे को बता देने को चाहा हुआ अन्न उसको (प्रखादः) अतीव खानेवाला और (मित्रिणः) मित्र जिसके वर्त्तमान उसके (अभि, भूत्) सम्मुख हो तथा (विवाचि) नाना प्रकार की विद्या और उत्तम शिक्षायुक्त वीर जन के निमित्त (सत्राकरः) सत्य व्यवहार करने और (यजमानस्य) देनेवाले की (शंसः) प्रशंसा करनेवाला (समर्य्ये) उत्तम बणियें के निमित्त (इषः) अन्नों की (स्तवते) स्तुति प्रशंसा करता (एव) ही है ॥ ४ ॥
भावार्थ
जो उद्योगी और सत्यवादी जन सत्योपदेश करते हैं, वे नायक, अधिपति और अग्रगामी होते हैं ॥ ४ ॥
विषय
प्रभु-भक्तों के सम्पर्क में
पदार्थ
१. (एव) = गत मन्त्र के अनुसार 'जेता, श्रोता' आदि बननेवाला पुरुष (नृभिः) = उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले इन प्राणों के द्वारा-इनकी साधना करता हुआ (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय बनता है। प्राणसाधना हमें इन्द्रियों को वश में करने की शक्ति देती है। यह इन्द्र (सुश्रवस्या) = उत्तम ज्ञान की कामना से (पृक्ष:) = हविरूप अन्नों को ही (प्रखादः) = प्रकर्षेण खानेवाला होता है। इन हविरूप अन्नों के सेवन से इसकी बुद्धि सात्त्विक बनती है। सात्त्विक बुद्धिवाला बनकर यह (मित्रिणः अभि) = उस महान् मित्र प्रभु की ओर जानेवाले पुरुषों की ओर (भूत्) = जानेवाला-प्रभु-भक्तों का संग करनेवाला होता है। २. यह (समर्ये) = इस जीवन-संग्राम में (इषः स्तवते) = प्रभु-प्रेरणाओं का स्तवन करता है, प्रभु का स्तवन करता हुआ प्रेरणाओं को प्राप्त करता है, (विवाचि) = विशिष्ट ज्ञान-वाणियों के होने पर (सत्राकरः) = यज्ञों को समन्तात् करनेवाला होता है। वेदोपदिष्ट यज्ञों को करता है और (यजमानस्य) = उस महान् यज्ञकर्ता-यज्ञरूप प्रभु का (शंसः) = स्तवन करनेवाला बनता है। यज्ञों को करता हुआ उन यज्ञों को प्रभु के अर्पण करता है। उन यज्ञों को प्रभु की शक्ति से होता हुआ समझता है। अहंकार न होने से उसके यज्ञ पवित्र बने रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम जितेन्द्रिय बनकर ज्ञान की कामना से सात्त्विक अन्न का ही सेवन करें; ज्ञानपूर्वक यज्ञों को करते हुए उन यज्ञों को प्रभु- शक्ति से होता हुआ जानें ।
विषय
उत्तम स्वामी राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता राजा ( नृभिः ) अपने नायकों के साथ मिलकर (सुश्रवस्या) उत्तम यश प्राप्त करने की इच्छा से (मित्रिणः) सहायवान् मित्रवान् पुरुष के (पृक्षः) सम्पर्क करने योग्य, भोग्यप्रद ऐश्वर्य को (प्रखादः) खाजाने वाले शत्रुओं को (अभि भूत्) पराजित करे । अथवा (पृक्षः प्रखादः मित्रिणः) अपने से सम्पर्क करने वाले सुसम्बद्ध, उत्तम राष्ट्र के भोक्ता, सहायवान् मित्र, बल से बलवान् शत्रुओं को भी पराजित करने में समर्थ हो । वह (यजमानस्य) कर देने वाले राष्ट्र का (शंसः) उत्तम उपदेष्टा के समान आज्ञापक, शासक होकर ( सत्राकरः ) सत्य सत्य न्याययुक्त आचरण करने वाला, न्यायाधीश होकर ( विवाचि ) विपरीत एक दूसरे के विरुद्ध वादिप्रतिवादी की वाणियों से युक्त ( समर्ये ) संग्राम अर्थात् परस्पर विवाद या कलह के अवसर में (इषः) उत्तम अन्नों के समान ग्राह्य बातों की ही स्तुति करे, उसको निर्णय रूप से प्रस्तुत करे और अग्राह्य बातों को नहीं । अर्थात् छाज जिस प्रकार तुष को दूर फेंक कर अन्नों को ग्रहण करता है उसी प्रकार विवादों में न्यायाधीश ग्राह्य सत्यों को ले लेवे असत्यों को नहीं । अथवा—( इन्द्रः सुश्रवस्या पृक्षः प्रखादः सन् मित्रिणः नृभिः अभिभूत् ) राजा उत्तम और सम्पर्क या ग्रहण योग्य अन्न के समान सारभूत सत्य का ‘प्रखाद’ अर्थात् उत्तम भोक्ता होकर अधिक सहायक वाले विरुद्धकारियों को भी उत्तम पुरुषों की सहायता से दबा लेवे और राष्ट्र का सत्यप्रतिज्ञ, उत्तम शासक होकर संग्राम में ( इषः ) अपनी सेनाओं को आज्ञा दे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, २ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । २ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे उद्योगी व सत्यवादी लोक सत्योपदेश करतात, ते नायक, अधिपती व अग्रगामी असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Thus Indra is great with human resources, lord of wealth, honour and high reputation, great consumer of materials and thereby producer of high energy, and he is always surrounded and assisted by friends and associates. In debates and discussions of variety he values food and energy as the basic wealth. He is a great organiser of sessions of yajnic conferences and appreciates and applauds the host of such sessions and conferences.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The industrious people lead others.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! Indra (the Commander of the Army) and his army relish delicious food. They like and eat ideal well-cooked food. Thus he overcomes the adversaries of his friends. He faithfully fulfills his promise, duly assisted by a liberal donor. He praises honest traders for the sale of good edibles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who are industrious, truthful and who preach always truth, become leaders of the community.
Foot Notes
(सुश्रवस्यया) शोभनेच्छ्या = By the craving for good food. (समर्थे) सम्यक् अर्ये वणिजि = In an honest trader. ( सत्नाकरः ) सत्ना सत्यं करोतीति = Faithful, truthful.
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