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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 179 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 179/ मन्त्र 1
    ऋषिः - लोपमुद्राऽगस्त्यौ देवता - दम्पती छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पू॒र्वीर॒हं श॒रद॑: शश्रमा॒णा दो॒षा वस्तो॑रु॒षसो॑ ज॒रय॑न्तीः। मि॒नाति॒ श्रियं॑ जरि॒मा त॒नूना॒मप्यू॒ नु पत्नी॒र्वृष॑णो जगम्युः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पू॒र्वीः । अ॒हम् । श॒रदः॑ । श॒श्र॒मा॒णा । दो॒षाः । वस्तोः॑ । उ॒षसः॑ । ज॒रय॑न्तीः । मि॒नाति॑ । श्रिय॑म् । ज॒रि॒मा । त॒नूना॑म् । अपि॑ । ऊँ॒ इति॑ । नु । पत्नीः॑ । वृष॑णः । ज॒ग॒म्युः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पूर्वीरहं शरद: शश्रमाणा दोषा वस्तोरुषसो जरयन्तीः। मिनाति श्रियं जरिमा तनूनामप्यू नु पत्नीर्वृषणो जगम्युः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पूर्वीः। अहम्। शरदः। शश्रमाणा। दोषाः। वस्तोः। उषसः। जरयन्तीः। मिनाति। श्रियम्। जरिमा। तनूनाम्। अपि। ऊँ इति। नु। पत्नीः। वृषणः। जगम्युः ॥ १.१७९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 179; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वत्स्त्रीपुरुषविषयमाह।

    अन्वयः

    यथाऽहं पूर्वीः शरदो दोषा वस्तो जरयन्तीरुषसश्च शश्रमाणाऽस्मि अप्यु अपि तु यथा तनूनां जरिमा श्रियं मिनाति तथा वृषणः पत्नीर्नु जगम्युः ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (पूर्वीः) पूर्वं भूताः (अहम्) (शरदः) (शश्रमाणा) तपोऽन्विता (दोषाः) रात्रयः (वस्तोः) दिनम् (उषसः) प्रभाताः (जरयन्तीः) जरां प्रापयन्तीः (मिनाति) हिनस्ति (श्रियम्) लक्ष्मीम् (जरिमा) अतिशयेन जरिता वयोहानिकर्त्ता (तनूनाम्) शरीराणाम् (अपि) (उ) वितर्के (नु) शीघ्रम् (पत्नीः) (वृषणः) सेक्तारः (जगम्युः) भृशं प्राप्नुयुः। अत्र वाच्छन्दसीति नुगागमाभावः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बल्यावस्थामारभ्य विदुषीभिः स्त्रीभिः प्रत्यहं प्रभातसमयात् गृहकार्य्याणि पतिसेवादीनि च कर्माणि कृतानि तथा कृतब्रह्मचर्यस्त्रीपुरुषैः सर्वाणि कार्याण्यनुष्ठेयानि ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ उनासी सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् स्त्रीपुरुष के विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    जैसे (अहम्) मैं (पूर्वीः) पहिले हुई (शरदः) वर्षों तथा (दोषाः) रात्रि (वस्तोः) दिन (जरयन्तीः) सबकी अवस्था को जीर्ण करती हुई (उषसः) प्रभात वेलाओं भर (शश्रमाणा) श्रम करती हुई हूँ (अपि, उ) और तो जैसे (तनूनाम्) शरीरों की (जरिमा) अतीव अवस्था को नष्ट करनेवाला काल (श्रियम्) लक्ष्मी को (मिनाति) विनाशता है वैसे (वृषणः) वीर्य्य सेचनेवाले (पत्नीः) अपनी-अपनी स्त्रियों को (नु) शीघ्र (जगम्युः) प्राप्त होवें ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकुलप्तोपमालङ्कार है। जैसे बाल्यावस्था को लेकर विदुषी स्त्रियों ने प्रतिदिन प्रभात समय से घर के कार्य और पति की सेवा आदि कर्म किये हैं, वैसे किया है ब्रह्मचर्य जिन्होंने, उन स्त्री-पुरुषों को समस्त कार्यों का अनुष्ठान करना चाहिये ॥ १ ॥

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    विषय

    गृहस्थाश्रम का समय

    पदार्थ

    १. जीवन को तीन कालों में विभक्त करती हुई लोपामुद्रा कहती है कि (अहम्) = मैंने (पूर्वीः शरदः) = जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में (दोषाः वस्तो:) = दिन-रात तथा (जरयन्तीः उषसः) = आयुष्य को एक-एक दिन करके जीर्ण करती हुई उषाओं में (शश्रमाणा) = खूब श्रम करते हुए ब्रह्मचर्याश्रम को निभाया है। यह आश्रम वस्तुतः तीव्र तपस्या व श्रम का है—'अलसस्य कुतो विद्या'– आलस्य के साथ तो विद्या का सम्बन्ध है ही नहीं। २. इन प्रारम्भिक वर्षों की तीव्र तपस्या व श्रम के बाद मैं इस समय अपने यौवन में हूँ। समय आएगा कि जब (जरिमा) = जरावस्था (तनूनाम्) = शरीरों की (श्रियम्) = शोभा को (मिनाति) = हिंसित कर देती है, न्यून कर देती है [diminish], अतः (नु) = अब यह यौवन की अवस्था ही वह अवस्था है जबकि (उ) = निश्चय से (वृषणः) = शक्तिशाली पुरुष (पत्नी:) = पत्नियों को (अपि जगम्युः) = प्राप्त होते हैं। उन पत्नियों में वे अपने को नया जन्म देते हैं और पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं। तद्धि जायाया जायात्वं यदस्यां जायते पुनः' इसीलिए तो जाया को जाया कहते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – ब्रह्मचर्याश्रम में जिसने समुचित विद्याध्ययन में श्रम किया है, उस युवति कन्या को शक्ति का संचय करनेवाला पुरुष पत्नी के रूप में ग्रहण करके गृहस्थ में प्रवेश करे।

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    विषय

    गृहस्थ पुरुर्ष के परस्पर कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    गृहस्थ्य पुरुषों के परस्पर कर्त्तव्य । ( दोषावस्तोः ) दिन और रात, और ( जरयन्तीः उषसः ) आयु को निरन्तर न्यून न्यून करते जाने वाले उषाकालों में भी प्रतिदिन ( शश्रमाणा ) निरन्तर श्रमशील होकर गृह कार्य करती और करता हुआ ( अहं ) मैं गृह पत्नी और गृहपति ( पूर्वीः शरदः ) अपनी आयु के पूर्व के वर्ष व्यतीत करें, बाद में ( जरिमा ) वृद्धावस्था ( तनूनां श्रियं ) देहों के सौन्दर्य को ( मिनाति ) नष्टकर देती है। (अपि उ नु ) इसलिये ही ( वृषणः ) वीर्य सेचन में समर्थ पुरुष अपने यौवन काल में ही ( पत्नीः ) अपनी धर्म पत्नियों को ( जगम्युः ) प्राप्त करें; बाद में, वार्धक्य में स्त्री पुरुष दोनों ही सन्तान उत्पत्ति में असमर्थ हो जाते हैं। अच्छा हो उसके पूर्व ही दोनों गृहस्थ कर्मों को यौवन काल में ही श्रम पूर्वक कर लिया करें ।

    टिप्पणी

    ‘शश्रमाणा’—सुप आकारः । इत्युभयलिङ्गयोरुपयुज्यते ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लोपामुद्राऽगस्त्यौ ऋषिः ॥ दम्पती देवता ॥ छन्दः– १, ४ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृदबृहती ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विदुषी स्त्री व विद्वान पुरुषांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे बाल्यावस्थेपासून विदुषी स्त्रियांनी प्रत्येक दिवशी सकाळच्या वेळी घरचे कार्य व पतीची सेवा इत्यादी कर्म केलेले आहे तसे ज्यांनी ब्रह्मचर्य पालन केलेले आहे त्या स्त्री-पुरुषांनी संपूर्ण कार्याचे अनुष्ठान केले पाहिजे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Working for the last many many years from dawn through the day until the dark late at night, tired and worn out, growing old and older, now old age destroys the health and beauty of the body of women. Therefore the young and virile husband should meet the wife only earlier when she is young and charming.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Dialogue between the learned married couple regarding the conjugal love.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Question; Wife to her husband — Since many years I have been serving you diligently, day and night, and in the mornings. It has brought in old age. The beauty of my limbs is decaying now and getting impaired. What therefore is now to be done? Let virile husbands then approach their wives.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The learned wives perform all their domestic daily duties including service to their husbands, from morning up of night. Likewise, men and women who have observed Brahmacharya, should discharge their conjugal obligations properly while engaging themselves in performing good deeds.

    Foot Notes

    (शश्रमाणा) तपोऽन्विता - Laboring, doing tapas (austerity), fatigued. (वृषण:) सेक्तार: = Virile husbands inseminating their wives.

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