Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 179 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 179/ मन्त्र 5
    ऋषिः - लोपमुद्राऽगस्त्यौ देवता - दम्पती छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    इ॒मं नु सोम॒मन्ति॑तो हृ॒त्सु पी॒तमुप॑ ब्रुवे। यत्सी॒माग॑श्चकृ॒मा तत्सु मृ॑ळतु पुलु॒कामो॒ हि मर्त्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । नु । सोम॑म् । अन्ति॑तः । हृ॒त्ऽसु । पी॒तम् । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । यत् । सी॒म् । आगः॑ । च॒कृ॒म । तत् । सु । मृ॒ळ॒तु॒ । पु॒लु॒ऽकामः॑ । हि । मर्त्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं नु सोममन्तितो हृत्सु पीतमुप ब्रुवे। यत्सीमागश्चकृमा तत्सु मृळतु पुलुकामो हि मर्त्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम्। नु। सोमम्। अन्तितः। हृत्ऽसु। पीतम्। उप। ब्रुवे। यत्। सीम्। आगः। चकृम। तत्। सु। मृळतु। पुलुऽकामः। हि। मर्त्यः ॥ १.१७९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 179; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रकृतविषये महौषधिसारसङ्ग्रहविषयमाह ।

    अन्वयः

    अहं यदिमं हृत्सु पीतं सोममुपब्रुवे तत्पुलुकामो हि मर्त्यः सुमृळतु यदागो वयं चकृम तन्नु सीमन्तितस्सर्वे त्यजन्तु ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (इमम्) (नु) (सोमम्) ओषधिरसम् (अन्तितः) समीपतः (हृत्सु) हृदयेषु (पीतम्) (उप) (ब्रुवे) उपदिशामि (यत्) (सीम्) सर्वतः (आगः) अपराधम् (चकृम) कुर्य्याम। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (तत्) (सु) (मृळतु) सुखयतु (पुलुकामः) बहुकामः (हि) खलु (मर्त्यः) मनुष्यः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    ये महौषधिरसं पिबन्ति तेऽरोगा बलिष्ठा जायन्ते ये कुपथ्यमाचरन्ति ते रोगैः पीड्यन्ते ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रकृत विषय में महौषधियों के सारसंग्रह को कहा है ।

    पदार्थ

    मैं (यत्) जिस (इमम्) इस (हृत्सु) हृदयों में (पीतम्) पिये हुए (सोमम्) ओषधियों के रस के (उप, ब्रुवे) उपदेशपूर्वक कहता हूँ उसको (पुलुकामः) बहुत कामनावाला (मर्त्यः) पुरुष (हि) ही (सुमृलतु) सुखसंयुक्त करे अर्थात् अपने सुख में उसका संयोग करे। जिस (आगः) अपराध को हम लोग (चकृम) करें (तत्) उसको (नु) शीघ्र (सीम्) सब ओर से (अन्तिमः) समीप से सभी जन छोड़ें अर्थात् क्षमा करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जो महौषधियों के रस को पीते हैं, वे रोगरहित बलिष्ठ होते हैं, जो कुपथ्याचरण करते हैं, वे रोगों से पीड्यमान होते हैं ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सोम का रक्षण

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार जब हम कामात्मा ही नहीं बन जाते तो (नु) = अब (इमं सोमम्) = इस सोमशक्ति को (अन्तितः) = प्रभु के सान्निध्य के द्वारा (हृत्सु पीतम्) = हृदय में ही पान किया हुआ (उपब्रुवे) = हम चाहते हैं। हम यही प्रार्थना करते हैं कि हम इस सोमशक्ति को अपने अन्दर ही सुरक्षित रख पाएँ । २. (यत्) = जो (सीम्) = निश्चय से (आग:) = अपराध (चकृम) = हम कर बैठें (तत्) = तो वे प्रभु (सुमृळतु) = हमारे जीवन को सुखी ही करें, क्योंकि (मर्त्यः) = मनुष्य हि निश्चय से (पुलुकाम:) = बहुत कामनावाला है। इस 'काम' का जीतना सुगम नहीं होता। इससे अभिभूत होकर हमसे अपराध हो जाए तो प्रभु हमें शक्ति दें कि हम भविष्य में ऐसे अपराधों से ऊपर उठ पाएँ । इस प्रकार वे प्रभु हमारे जीवनों को सुखी करें। ३. जीवन का वास्तविक आनन्द इसी बात पर निर्भर करता है कि कितने अंश में वासना को जीतकर अपने अन्दर सोम का पान कर पाये हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी आराधना यही हो कि हम वासना से ऊपर उठकर सोम का रक्षण करनेवाले बनें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    गृहस्थ पुरुर्ष के परस्पर कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    मैं स्त्री ( इमं सोमम् ) इस चन्द्र के समान आह्लाद जनक, उत्तम सन्तान के प्रसव करने में समर्थ पुरुष को ( अन्तितः ) अति निकटतम ( हृत्सु पीतम् ) हृदय की गहरी तहों में मानो रसवत् पिये हुए के समान ही ( उपब्रुवे ) कहूं, जानूं और अनुभव करूं । हम स्त्री जन ( यत् ) जो भी ( आगः ) परस्पर का अपराध, या अप्रिय दैहिक और मानसिक आघात ( चकृम ) करें उसको ( पुलुकामः = पुरु कामः ) बहुत सी कामनाओं और इच्छाओं, कामना योग्य पदार्थों को चाहने वाला ( मर्त्यः ) मनुष्य ही (तत्) अप्रियता आदि अपराध को ( सु मृळतु ) दूर करके, पुनः सुखी करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लोपामुद्राऽगस्त्यौ ऋषिः ॥ दम्पती देवता ॥ छन्दः– १, ४ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृदबृहती ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे महौषधीचा रस पितात ते रोगरहित बलवान होतात. जे कुपथ्याचरण करतात ते रोगांनी त्रस्त होतात. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I have closely spoken of this soma of ecstatic passion from the inner reality of it, drunk and felt as it is in the depths of the heart. If I have committed a sin, please forbear and forgive. Man after all is subject to various passion, and desire (for self-fulfilment), mortal as he is.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Merits of the juice of Soma etc. is mentioned along with the demerits of the bad life.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I tell you about the effect of juice of Soma (herbs) which, I have taken to my hearts content. A man who has many noble desires may confer happiness upon me. Whatever faults we have committed, may be forgiven by all, by the far and near ones.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who drink the juice of Soma and other nourishing herbs become free from diseases and strong. But those who eat unwholesome things suffer from the various diseases.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top