ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 179/ मन्त्र 2
ऋषिः - लोपमुद्राऽगस्त्यौ
देवता - दम्पती
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ये चि॒द्धि पूर्व॑ ऋत॒साप॒ आस॑न्त्सा॒कं दे॒वेभि॒रव॑दन्नृ॒तानि॑। ते चि॒दवा॑सुर्न॒ह्यन्त॑मा॒पुः समू॒ नु पत्नी॒र्वृष॑भिर्जगम्युः ॥
स्वर सहित पद पाठये । चि॒त् । हि । पूर्वे॑ । ऋ॒त॒ऽसापः॑ । आस॑न् । सा॒कम् । दे॒वेभिः॑ । अव॑दन् । ऋ॒तानि॑ । ते । चि॒त् । अव॑ । अ॒सुः॒ । न॒हि । अन्त॑म् । आ॒पुः । सम् । ऊँ॒ इति॑ । नु । पत्नीः॑ । वृष॑ऽभिः । ज॒ग॒म्युः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये चिद्धि पूर्व ऋतसाप आसन्त्साकं देवेभिरवदन्नृतानि। ते चिदवासुर्नह्यन्तमापुः समू नु पत्नीर्वृषभिर्जगम्युः ॥
स्वर रहित पद पाठये। चित्। हि। पूर्वे। ऋतऽसापः। आसन्। साकम्। देवेभिः। अवदन्। ऋतानि। ते। चित्। अव। असुः। नहि। अन्तम्। आपुः। सम्। ऊँ इति। नु। पत्नीः। वृषऽभिः। जगम्युः ॥ १.१७९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 179; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये ऋतसापः पूर्वे विद्वांसो देवेभिः साकमृतान्यवदंस्ते चिद्धि सुखिन आसन् ये नु पत्नीर्वृषभिस्सह संजग्म्युश्चिदिवाऽवासुस्त उ अन्तं नह्यापुः ॥ २ ॥
पदार्थः
(ये) (चित्) (हि) खलु (पूर्वे) (ऋतसापः) य आप्नुवते त आपः समानाश्च ते इति सापः सन्त्यस्य मध्ये व्यापकाः व्यापयितारो वा विद्वांसः (आसन्) (साकम्) (देवेभिः) विद्वद्भिस्सह (अवदन्) (ऋतानि) सत्यानि (ते) (चित्) इव (अव) (असुः) दोषान् प्रक्षिपेयुः (नहि) (अन्तम्) (आपुः) प्राप्नुवन्ति (सम्) (उ) (नु) सद्यः (पत्नीः) स्त्रियः (वृषभिः) वीर्यवद्भिः पतिभिस्सह (जगम्युः) भृशं गच्छेयुः ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ब्रह्मचारिभिर्विद्यार्थिभिस्तेभ्य एव विद्या शिक्षे ग्राह्ये। ये पूर्वमधीतविद्याः सत्याचारिणो जितेन्द्रियाः स्युस्ताभिर्ब्रह्मचारिणीभिस्सह विवाहं कुर्युर्याः स्वतुल्यगुणकर्मस्वभावा विदुष्यः स्युः ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(ये) जो (ऋतसापः) सत्यव्यवहार में व्यापक वा दूसरों को व्याप्त करानेवाले (पूर्वे) पूर्व विद्वान् (देवेभिः) विद्वानों के (साकम्) साथ (ऋतानि) सत्यव्यवहारों को (अवदन्) करते हुए (ते, चित्, हि) वे भी सुखी (आसन्) हुए और जो (नु) शीघ्र (पत्नीः) स्त्रीजन (वृषभिः) वीर्य्यवान् पतियों के साथ (सम्, जगम्युः) निरन्तर जावें (चित्) उनके समान (अवासुः) दोषों को दूर करें वे (उ) (अन्तम्) अन्त को (नहि) नहीं (आपुः) प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ब्रह्मचर्य्यस्थ विद्यार्थियों को उन्हीं से विद्या और अच्छी शिक्षा लेनी चाहिये कि जो पहिले विद्या पढ़े हुए सत्याचारी जितेन्द्रिय हों और उन ब्रह्मचारियों के साथ विवाह करें, जो अपने तुल्य गुण, कर्म, स्वभाववाली विदुषी हों ॥ २ ॥
विषय
पठन व गृहस्थाश्रम
पदार्थ
१. ये जो (चित् हि) = निश्चय से (पूर्वे) = अपना पूरण करनेवाले (ऋतसापः) = ॠत से अपना मेल करनेवाले (आसन्) = थे, जिन्होंने ब्रह्मचर्याश्रम में अपना पालन व पूरण किया, ऋतज्ञान को, वेद के सत्य ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न किया, जिन्होंने (देवेभिः साकम्) = ज्ञानी आचार्यों के साथ (ऋतानि अवदन्) = सत्य ज्ञानों का ही उच्चारण किया (ते चित्) = वे भी (अवासुः) = [षोऽन्तकर्मणि] जीवन के अन्त की ओर बढ़ गये-उनका जीवन ढलने को आया, पर (अन्तं नहि आपुः) = ज्ञान के अन्त को प्राप्त नहीं किया। २. ज्ञान के अन्त तक पहुँचकर गृहस्थ बनने का विचार करना तो व्यर्थ ही है, अतः (नु) = अब-पूर्व इसके कि जीवन ढलना आरम्भ हो जाए अर्थात् युवावस्था में ही (उ) = निश्चय से (पत्नी:) = पत्नियाँ (वृषभिः) = शक्तिशाली पतियों के साथ (संजगम्युः) = संगत हों। इस प्रकार मिलकर अपने वंशकर सन्तान को वे जन्म देनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ – ब्रह्मचर्याश्रम में ज्ञानी आचार्यों के साथ ऋत-ज्ञान को प्राप्त करनेवाले युवकों को युवा पत्नियाँ प्राप्त हों ।
विषय
गृहस्थ पुरुर्ष के परस्पर कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ये चित् हि ) जो भी ( पूर्वे ) पूर्व के, अपने से बड़े, पूर्ण विद्यावान्, ( ऋतसापः ) ऋत, सत्य ज्ञान, वेद को समान रूप से प्राप्त करने हारे ( आसन् ) हों ( ते ) वे भी ( देवेभिः ) ज्ञान प्रदान करने वाले उत्तम विद्वानों के साथ मिलकर ( ऋतानि ) सत्य ज्ञानों की (अव दन्) चर्चा करते हैं । (ते चित्) वे भी (अव-असुः) अपना देह गिरा देते हैं और (अन्तम् ) अन्त अर्थात् जीवन का परम प्राप्य फल (न आपुः) नहीं प्राप्त करते, इसलिये हे स्त्री पुरुषो ! जब बड़े २ ब्रह्मचारियों तक के देह अस्थिर हैं तब वे भी अपने छोटे जीवन में अपना उद्देश्य नहीं प्राप्त कर सके तो फिर गृहस्थियों को अपने गृहस्थ जीवन का उद्देश्य उत्तम सन्तान प्राप्ति के लिये विलम्ब न करना चाहिये, प्रत्युत ( उ नु) अवश्य ( पत्नीः ) गृहस्थ का पालन करने में समर्थ स्त्रियां यौवन काल में ही ( वृषभिः ) वीर्य सेचन में समर्थ पुरुषों के साथ ( सं जगम्युः ) संगति लाभ करें और उत्तम सन्तान प्राप्त करें। अपने यौवन को पारस्परिक कलह और प्रवास और विलास आदि सन्तान-रोधक कुमार्गों में व्यतीत न करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
लोपामुद्राऽगस्त्यौ ऋषिः ॥ दम्पती देवता ॥ छन्दः– १, ४ त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृदबृहती ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ब्रह्मचारी लोकांनी अशा लोकांकडून विद्या व सुशिक्षण घेतले पाहिजे की जे पूर्वीपासून विद्या शिकलेले, सत्याचरणी व जितेन्द्रिय असतात व अशा ब्रह्मचारिणीबरोबर विवाह करावा की ज्या आपल्यासारख्या गुण, कर्म स्वभावाच्या विदुषी असतील. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Those ancients who were masters and devout followers of truth spoke of the laws and truth of nature with men of divinity. They did procreate, but they too did not find the end of the mystery. Let the women go and meet their youthful and virile husbands.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The marriage should be held between matches of similar virtues.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The ancient sages were disseminators of truth and always spoke truth with the enlightened persons. Therefore they were always happy. The wives while approaching their virile husbands to beget progeny, do not thereby violate the vow of continence (as prescribed for the householders or married couples.) They should always throw away all evil thoughts and actions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The male Brahmacharis should receive wisdom and education from their well read Acharyas (teachers) who are truthful in conduct and are men of self-control. They should marry only those female Brahmacharis who are fully matching in merits, actions and temperaments. They should also be highly learned.
Foot Notes
(ऋतसापः) ये आप्प्नुवते ते आपः, समानाः च ते इति सापः, सत्यस्य मध्ये व्यापका: व्यापयितारो वा विद्वांसः = Learned persons who are absolutely truthful and are disseminators of truth. (आसुः) दोषान् प्रक्षिपेयुः = Throw away all evils and faults.
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