ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 184/ मन्त्र 3
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श्रि॒ये पू॑षन्निषु॒कृते॑व दे॒वा नास॑त्या वह॒तुं सू॒र्याया॑:। व॒च्यन्ते॑ वां ककु॒हा अ॒प्सु जा॒ता यु॒गा जू॒र्णेव॒ वरु॑णस्य॒ भूरे॑: ॥
स्वर सहित पद पाठश्रि॒ये । पू॑षन् । इ॒षु॒कृता॑ऽइव । दे॒वा । नास॑त्या । व॒ह॒तुम् । सू॒र्यायाः॑ । व॒च्यन्ते॑ । वाम् । क॒कु॒हाः । अ॒प्ऽसु । जा॒ताः । यु॒गा । जू॒र्णाऽइ॑व । वरु॑णस्य । भूरेः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रिये पूषन्निषुकृतेव देवा नासत्या वहतुं सूर्याया:। वच्यन्ते वां ककुहा अप्सु जाता युगा जूर्णेव वरुणस्य भूरे: ॥
स्वर रहित पद पाठश्रिये। पूषन्। इषुकृताऽइव। देवा। नासत्या। वहतुम्। सूर्यायाः। वच्यन्ते। वाम्। ककुहाः। अप्ऽसु। जाताः। युगा। जूर्णाऽइव। वरुणस्य। भूरेः ॥ १.१८४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 184; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिष्यशिक्षापरमध्यापकोपदेशकविषयमाह ।
अन्वयः
हे पूषन् ! त्वं देव नासत्या सूर्याया वहतुमिषुकृतेव श्रिये प्रयतस्व। हे अध्यापकोपदेशकावप्सु जाताः ककुहा वरुणस्य भूरेर्युगा जूर्णेव वां वच्यन्ते ॥ ३ ॥
पदार्थः
(श्रिये) लक्ष्म्यै (पूषन्) पोषक (इषुकृतेव) वाणीकृताविव (देवा) दातारौ (नासत्या) असत्यद्वेषिणौ (वहतुम्) प्रापकम् (सूर्य्यायाः) सूर्यस्य कान्तेः (वच्यन्ते) स्तुवन्ति। व्यत्ययेन श्यैश्च। (वाम्) युवाम् (ककुहाः) दिशः (अप्सु) अन्तरिक्षप्रदेशेषु (जाताः) प्रसिद्धाः (युगा) युगानि वर्षाणि (जूर्णेव) पुरातनानीव (वरुणस्य) उत्तमस्य जलस्य वा (भूरेः) बहोः ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा इषुकृतासेना शत्रून् विजयते तथा धनस्य सदुपायं शीघ्रमेव कुर्यात्, कालविशेषेषु दिनेषु कार्याणि रात्रिभागेषु नोत्पद्यन्ते सद्गुणानान्तु सर्वत्र प्रशंसा जायते ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिष्य को सिखावट देने के ढङ्ग पर अध्यापकोपदेशक विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (पूषन्) पुष्टि करनेवाले ! तू (देवा) देनेवाले (नासत्या) मिथ्या व्यवहार के विरोधी अध्यापक उपदेशक (सूर्य्यायाः) सूर्य की कान्ति की (वहतुम्) प्राप्ति करनेवाले व्यवहार को (इषुकृतेव) जैसे वाणी से सिद्ध किए हुए दो पदार्थ हों वैसे (श्रिये) लक्ष्मी के लिये प्रयत्न कर। और हे अध्यापक उपदेशको ! (अप्सु) अन्तरिक्ष प्रदेशों में (जाताः) प्रसिद्ध हुई (ककुहाः) दिशा (वरुणस्य) उत्तम सज्जन वा जल के (भूरेः) बहुत उत्कर्ष से (युग) वर्षों जो (जूर्णेव) पुरातन व्यतीत हुई उनके समान (वाम्) तुम दोनों की (वच्यन्ते) प्रशंसा करती है अर्थात् दिशा-दिशान्तरों में तुम्हारी प्रशंसा होती है ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसी बाणकृत सेना अर्थात् बाण के समान प्रेरणा दी हुई सेना शत्रुओं को जीतती है वैसे धन के श्रेष्ठ उपाय को शीघ्र ही करे, काल के विशेष विभागों में जो दिन है, उनमें कार्य जैसे बनते हैं, वैसे रात्रि भागों में नहीं उत्पन्न होते हैं, श्रेष्ठ गुणीजनों की सब जगह प्रशंसा होती है ॥ ३ ॥
विषय
सूर्या का परिणय
पदार्थ
१. हे (पूषन्) = पोषक प्रभो! आपसे हमारे शरीरों में स्थापित किये गये ये (देवाः) = प्रकाश प्राप्त करानेबाले (नासत्या) = असत्य को नष्ट करनेवाले प्राणापान (सूर्यायाः वहतुम्) = प्रकाश की देवता इस सूर्या के परिणय को [वहतु - marriage] (इषुकृता इव) = आपकी प्रेरणा के द्वारा करनेवाले हैं [इषु-प्रेरणा] और इस परिणय के द्वारा (श्रिये) = ये हमारी शोभा के लिए होते हैं। प्राणसाधना से अशुद्धियों का नाश होने पर हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा प्राप्त होती है। इस प्रेरणा से अन्धकार का नाश होकर हृदयों में प्रकाश-ही- प्रकाश हो जाता है। इस प्रकाश का होना ही सूर्या का परिणय कहलाता है। यह हमारी शोभा की वृद्धि का कारण बनता है। २. हे प्राणापानो! (वाम्) = आपकी (ककुहा:) = स्तुतियाँ (वच्यन्ते) = उच्चारण की जाती हैं। आपकी ये स्तुतियाँ (अप्सु जाता:) = आपके कर्मों के होने पर ही उत्पन्न हुई हैं। आपके अद्भुत कर्मों के कारण आपके स्तवन चलते हैं। आपके ये स्तवन उसी प्रकार चलते हैं (इव) = जिस प्रकार (भूरेः) = पालन व पोषण करनेवाले (वरुणस्य) = सब द्वेषादि मलों का निवारण करनेवाले प्रभु के स्तवन (जूर्णा युगा) = सनातन काल से चले आ रहे हैं। जैसे प्रभु का स्तवन होता है, वैसे ही प्राणापानों का भी होता है। प्रभु की महिमा का तो अन्त है ही नहीं, प्राणापान का भी शरीर में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके द्वारा ही हमारा सूर्या से परिणय होता है और हमारा जीवन प्रकाशमय हो जाता है। =
भावार्थ
भावार्थ - प्राणापान शुद्ध हृदय में प्रभु-प्रेरणा को प्राप्त कराके सूर्या का हमारे साथ परिणय करते हैं अर्थात् हमारे जीवन को प्रकाशमय करते हैं ।
विषय
विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( पूषन् ) पालन पोषण करने वाले वर वधू के माता पिता जन ! (इषुकृता इव) जिस प्रकार कोई जन्तु बाण से बिंध कर तन्मय हो जाता है इस प्रकार एक दूसरे के प्रति उत्पन्न अनुराग, प्रवल मिलने की ( इषु ) इच्छा या मनोकामना रूप बाण से आहत हुए, अति अनुरक्त ( देवा ) एक दूसरे की कामना करने और एक दूसरे का हृदय जीतने वाले स्त्री और पुरुष दोनों यदि ( नासत्या ) कभी परस्पर असत्य आचरण असत्य भाषण चोरी आदि न करके धर्म पूर्वक रहने वाले हों तो वे दोनों ( श्रिये ) एक दूसरे की शोभा और एक दूसरे के आश्रय के लिये होते हैं । जिस प्रकार ( अप्सु जाताः ककुहाः सूर्यायाः भूरेः वरुणस्य च वहतुं वच्यन्ते ) प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं के स्थूल रूप धारण करलेने पर उनके बीच उत्पन्न या प्रकट हुई दिशाएं सूर्य की कान्ति और बड़े भारी वरुण अर्थात् व्यापक जलके धारण करने के कार्य को स्पष्ट बतलाती हैं और जिस प्रकार (जूर्णा इव युगाः) ये दिशाएं ही अतीत वर्षों की गाथाएं बतलाते हैं उसी प्रकार ( अप्सुजाताः ककुहः ) प्रजाओं में प्रसिद्ध २ विद्वान् वाग्मी पुरुष भी ( सूर्यायाः ) सूर्य की कान्ति या उषा के समान सूर्यवत् तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करने वाली वधू और (भूरेः) बहुत से सामर्थ्यों से युक्त महान् ( वरुणस्य ) स्वयंवृत पति इन दोनों के ( वहतुं ) परस्पर के धारण रूप विवाह को लक्ष्य करके ( जूर्णा इव युगा ) गुजरे हुए अतीत काल के जोड़ों की भी (वच्यन्ते) प्रशंसा किया करते हैं।
टिप्पणी
अर्थात् उत्तम वर वधू का उत्तम जोड़ा बना देख कर प्रायः लोग विद्वान्, कविजन, ऐतिहासिक उत्तम रामसीता, शंकरपार्वती, नलदमयन्ती आदि का भी वर्णन किया करते हैं और उनकी याद करते हैं। इसलिये उत्तम माता पिताओं को चाहिये कि वे अपने बालक बालिकाओं के विवाह, स्वयंवर द्वारा अच्छे जोड़े बना कर ही किया करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६, निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशी बाणासारखी वेगवान सेना शत्रूंना जिंकते तसे धनाने श्रेष्ठ उपाय तत्काळ करावेत. काळाचा विभाग असलेल्या दिवसा जसे कार्य घडते तसे रात्री होत नाही. श्रेष्ठ गुणी लोकांची सर्वत्र प्रशंसा होते. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, brilliant and generous givers of light and knowledge, strength and energy, dedicated to truth, in order to carry the light of the dawn, daughter of the sun, for the beauty and grace of the earth, your eminent carriers bom of the waves and vapours of space, flying like arrows of light, are admired like the great and ancient horses of Varuna, bom of the ocean of eternity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How to impart education.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O champion of noble causes ! like absolutely truthful liberal teachers and preachers, you are possessive of the splendor of the sun, and darting like arrows on enemies acquire glory in order to obtain the prosperity. Your glory is recited everywhere, as you are the most acceptable person, like the pure water.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As an army having good arms and powerful weapons conquers the enemies, so a man should utilize the money properly without waste of time. The things be done in the day time as it may not be equally so nice at the night. So, one should not delay or put off the things unnecessarily. Good virtues are admired everywhere.
Foot Notes
(सूर्यायाः) सूर्यस्यकान्तेः = Of the splendor of the sun. (बहतुम्) प्रायकम् = Conveyer that leads to (वरुणस्य ) उत्तमस्य जलस्य वा = Of a good acceptable person or of the pure water.
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