ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 184/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ए॒ष वां॒ स्तोमो॑ अश्विनावकारि॒ माने॑भिर्मघवाना सुवृ॒क्ति। या॒तं व॒र्तिस्तन॑याय॒ त्मने॑ चा॒गस्त्ये॑ नासत्या॒ मद॑न्ता ॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । वा॒म् । स्तोमः॑ । अ॒श्वि॒नौ॒ । अ॒का॒रि॒ । माने॑भिः । म॒घ॒ऽवा॒ना॒ । सु॒ऽवृ॒क्ति । या॒तम् । व॒र्तिः । तन॑याय । त्मने॑ । च॒ । अ॒गस्त्ये॑ । ना॒स॒त्या॒ । मद॑न्ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष वां स्तोमो अश्विनावकारि मानेभिर्मघवाना सुवृक्ति। यातं वर्तिस्तनयाय त्मने चागस्त्ये नासत्या मदन्ता ॥
स्वर रहित पद पाठएषः। वाम्। स्तोमः। अश्विनौ। अकारि। मानेभिः। मघऽवाना। सुऽवृक्ति। यातम्। वर्तिः। तनयाय। त्मने। च। अगस्त्ये। नासत्या। मदन्ता ॥ १.१८४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 184; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाध्यापकोपदेशकप्रशंसाविषयमाह।
अन्वयः
हे मघवानाध्यापकोपदेशकौ एष वां स्तोमो मानेभिः सुवृक्त्यकारि। हे नासत्याश्विनावगस्त्ये मदन्ता युवां तनयाय त्मने च वर्त्तिर्यातं प्राप्नुतम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(एषः) (वाम्) युवयोः (स्तोमः) प्रशंसा (अश्विनौ) अध्यापकोपदेशकौ (अकारि) क्रियते (मानेभिः) ये मन्यन्ते तैर्विद्वद्भिः (मघवाना) परमपूजितधनयुक्तो (सुवृक्ति) सुष्ठुवृक्तिर्वर्जनं सुवृक्ति यथा तथा (यातम्) प्राप्नुतम् (वर्त्तिः) सन्मार्गम् (तनयाय) सुसन्तानाय (त्मने) स्वात्मने (च) (अगस्त्ये) अपराधरहिते मार्गे (नासत्या) सत्यनिष्ठौ (मदन्ता) कामयमानौ ॥ ५ ॥
भावार्थः
सैव स्तुतिर्भवति यां विद्वांसो मन्यन्ते तथैव परोपकारः स्याद्यादृशः स्वापत्याय स्वात्मने चेष्यते स एव धर्ममार्गो भवेद्यत्राप्ता गच्छन्ति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अध्यापक और उपदेशकों की प्रशंसा का विषय अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मघवाना) परमपूजित अध्यापकोपदेशको ! (एषः) यह (वाम्) तुम दोनों की (स्तोमः) प्रशंसा (मानेभिः) जो मानते हैं उन्होंने (सुवृक्ति) सुन्दर त्याग जैसे हो वैसे (अकारि) की है अर्थात् कुछ मुखदेखी मिथ्या प्रशंसा नहीं की। और हे (नासत्या) सत्य में निरन्तर स्थिर रहनेवाले (अश्विनौ) अध्यापक उपदेशक लोगो ! (अगस्त्ये) अपराधरहित मार्ग में (मदन्ता) शुभ कामना करते हुए तुम (तनयाय) उत्तम सन्तान और (त्मने, च) अपने लिये (वर्त्तिः) अच्छे मार्ग को (यातम्) प्राप्त होओ ॥ ५ ॥
भावार्थ
वही स्तुति होती है, जिनको विद्वान् जन मानते हैं, वैसी ही परोपकार होता है, जैसा अपने सन्तान और अपने लिये चाहा जाता है और वही धर्ममार्ग हो कि जिसमें श्रेष्ठ धर्मात्मा विद्वान् जन चलते हैं ॥ ५ ॥
विषय
स्तुति व पापवर्जन
पदार्थ
१. हे (अश्विनौ) = प्राणापानो ! (मघवाना) = आप सब ऐश्वर्योंवाले हो । शरीर के सब कोशों को उस उस ऐश्वर्य से आप ही परिपूर्ण करते हो । (मानेभिः) = पूजा की वृत्तिवाले पुरुषों से (एषः) = यह (वाम्) = आपका (स्तोमः) = स्तवन (सुवृक्ति) = [सुष्ठु पापवर्जनं यथा भवति तथा - सा०] पापवर्जनपूर्वक अकारि किया जाता है। वस्तुतः प्राणों के स्तवन से पापवृत्ति नष्ट होती है। २. (नासत्या) = सब असत्यों से रहित प्राणापानो! आप (अगस्त्ये) = कुटिलता से दूर रहनेवाले इस अगस्त्य में मदन्ता हर्ष का अनुभव करते हुए (वर्तिः यातम्) = इस शरीर गृह को प्राप्त होओ। इसलिए प्राप्त होओ कि (तनयाय) = शक्तियों का विस्तार हो सके (च) = तथा (त्मने) = आत्मदर्शन हो सके। शक्तियों के विस्तार तथा आत्मदर्शन के लिए आप हमें इस शरीर-गृह में प्राप्त होओ।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना से [क] पापवृत्ति नष्ट होती है, [ख] शक्तियों का विस्तार होता है, और अन्ततः [ग] हम आत्मदर्शन के योग्य होते हैं ।
विषय
विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
माननीय लक्षण-प्रमाणज्ञ, वेदज्ञ विद्वान् का क्या उपदेश है सो बतलाते हैं। हे (अश्विनौ) स्त्री पुरुषो ! ( वां ) तुम दोनों को (मानेभिः) ज्ञानवान् पुरुषों ने ( सुवृक्ति ) पाप के मार्ग से बचाने के लिये ( एषः ) यह ( स्तोमः ) वेदमन्त्रों द्वारा उपदेश ( अकारि ) किया है । हे (मघवाना ) ऐश्वर्ययुक्तो ! आप दोनों ( नासत्या ) कभी असत्य आचरण न करते हुए ( अगस्त्ये ) पाप या विघ्न वाधाओं को दूर करने में समर्थ पुरुष के अधीन या विघ्नादि से रहित मार्ग में ( मदन्ता ) अति प्रसन्न होते हुए (तनयाय) अपने सन्तान और (त्मने) अपने आपकी उन्नति के लिये ( सुवृक्ति ) उत्तम, दुःख से रहित (वर्तिः) मार्ग और गृह या शरण को (यातम्) प्राप्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः। ४ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६, निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, विराट् त्रिष्टुप् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
तीच स्तुती असते जिला विद्वान लोक मानतात तसाच परोपकार असतो जसा आपल्यासाठी व आपल्या संतानासाठी इच्छिला जातो व तोच धर्ममार्ग असतो ज्या मार्गाने श्रेष्ठ विद्वान लोक जातात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, lords of honour, valour and generosity, this is the worshipful song of homage and celebration created and presented by the dedicated devotees revered in society. Committed to the law of truth and rectitude, go on by the inviolable path of truth and right for yourself and the children, enjoying the beauty and ecstasy of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of teachers and preachers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The teachers and preachers are possessors of the wealth of wisdom and are absolutely truthful. This praise devoid of evil tendency is addressed to you by learned persons. Desirous of the sinless path, come to the path of righteousness for the worshippers' welfare and his progeny.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only the sincere praise is accepted by the learned persons. An average man desires of his own welfare as well as of his progeny. He should also try to do good to others. Indeed, the path of righteousness is followed by absolutely truthful persons.
Foot Notes
(सुवृत्तिः) सुष्ठु वृक्ति: वर्जनं सुवृक्तिः यथा स्यात्तथा = Complete renouncement of all sin or evil. ( अगस्त्ये) अपराधरहिते मार्गे | अगम् अस्यति-प्रक्षिपति अत्नेत्यगस्त्यः । असु-क्षेपणे (दिवादिः) = On a sinless path. ( मदन्ता ) कामयमानौ = Desiring.
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