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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 19/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    य उ॒ग्रा अ॒र्कमा॑नृ॒चुरना॑धृष्टास॒ ओज॑सा। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । उ॒ग्राः । अ॒र्कम् । आ॒नृ॒चुः । अना॑धृष्टासः । ओज॑सा । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा। मरुद्भिरग्न आ गहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। उग्राः। अर्कम्। आनृचुः। अनाधृष्टासः। ओजसा। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः कीदृशास्ते मरुत इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    य उग्रा अनाधृष्टासो वायव ओजसाऽर्कमानृचुरेतैर्मरुद्भिः सहाग्ने अयमग्निरागह्यागच्छति समन्तात् कार्य्ये सहायकारी भवति॥४॥

    पदार्थः

    (ये) वायवः (उग्राः) तीव्रवेगादिगुणाः (अर्कम्) सूर्य्यादिलोकम् (आनृचुः) स्तावयन्ति तद्गुणान् प्रकाशयन्ति। अपस्पृधेथामानृचु० (अष्टा०६.१.३६) अनेनार्चधातोर्लिट्युसि सम्प्रसारणमकारलोपश्च निपातितः। (अनाधृष्टाः) धर्षितुं निवारयितुमनर्हाः (ओजसा) बलादिगुणसमूहेन सह वर्त्तमानाः (मरुद्भिः) एतैर्वायुभिः सह (अग्ने) विद्युत् प्रसिद्धो वा (आ) समन्तात् (गहि) प्राप्नोति॥४॥

    भावार्थः

    यावद्बलं वर्त्तते तावद्वायुविद्युद्भ्यां जायते, इमे वायवः सर्वलोकधारकाः सन्ति। तद्योगेन विद्युत्सूर्य्यादयः प्रकाश्य ध्रियन्ते। तस्माद्वायुगुणज्ञानोपकारग्रहणाभ्यां बहूनि कार्य्याणि सिध्यन्तीति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उक्त पवन किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (ये) जो (उग्राः) तीव्र वेग आदि गुणवाले (अनाधृष्टासः) किसी के रोकने में न आ सकें, वे पवन (ओजसा) अपने बल आदि गुणों से संयुक्त हुए (अर्कम्) सूर्य्यादि लोकों को (आनृचुः) गुणों को प्रकाशित करत हैं, इन (मरुद्भिः) पवनों के साथ (अग्ने) यह विद्युत् और प्रसिद्ध अग्नि (आगहि) कार्य्य में सहाय करनेवाला होता है॥४॥

    भावार्थ

    जितना बल वर्त्तमान है, उतना वायु और विद्युत् के सकाश से उत्पन्न होता है, ये वायु सब लोकों के धारण करनेवाले हैं, इनके संयोग से बिजुली वा सूर्य्य आदि लोक प्रकाशित होते तथा धारण किये जाते हैं, इससे वायु के गुणों का जानना वा उनसे उपकार ग्रहण करने से अनेक प्रकार के कार्य्य सिद्ध होते हैं॥४॥

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    विषय

    फिर वह पवन किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    य उग्रा अनाधृष्टासः वायव ओजसाः अर्कम् आनृचुःएतैः मरुद्भिः  सह अग्ने अयम् अग्निः आगहि आगच्छति समन्तात् कार्य्ये सहायकारी भवति॥४॥

    पदार्थ

    (य)=जो,  (उग्राः) तीव्रवेगादिगुणाः=तीव्र वेग आदि गुण हैं, (अनाधृष्टासः) धर्षितुं निवारयितुमनर्हाः=जो किसी के रोके नहीं रुकते हैं, (वायव)=ऐसे पवन, (ओजसाः) बलादिगुणसमूहेन सह वर्त्तमानाः= बलादि गुणों के समूह के साथ उपस्थित हैं जो, और (अर्कम्) सूर्य्यादिलोकम्=सूर्य्यादि लोक को, (आनृचुः) स्तावयन्ति तद्गुणान् प्रकाशयन्ति=गुणों को प्रकाशित करते हैं, (एतैः)=इनके द्वारा, (मरुद्भिः) एतैर्वायुभिः सह =इन पवनों के साथ, (अग्ने) विद्युत् प्रसिद्धो वा=विद्युत् (अयम्)=यह (अग्निः)=अग्नि, (आ) समन्तात्=अच्छी प्रकार से, (गहि) प्राप्नोति-आगच्छति=प्राप्त होता है और  (समन्तात्)=हर ओर से, (कार्य्ये)=कार्य में, (सहायकारी) सहायक, (भवति)=होता है। ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जितना बल वर्त्तमान है, उतना वायु और विद्युत्  से उत्पन्न होता है, ये वायु सब लोकों के धारण करनेवाले हैं। इनके संयोग से बिजुली वा सूर्य्य आदि लोक प्रकाशित होकर  धारण किये जाते हैं। इससे वायु के गुणों के जानने और उनसे उपकार ग्रहण करने से अनेक प्रकार के कार्य्य सिद्ध होते हैं॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (य) जो  (उग्राः) तीव्र वेग आदि गुण वाले (अनाधृष्टासः) पवन हैं, जो किसी के रोके नहीं रुकते हैं, (ओजसाः) बलादि गुणों के समूह के साथ उपस्थित हैं  और (अर्कम्) सूर्य्यादि लोक को (आनृचुः) अपने गुणों से प्रकाशित करते हैं। (एतैः) इनके द्वारा (मरुद्भिः) इन पवनों के साथ (अग्ने) विद्युत् और (अयम्) यह (अग्निः) अग्नि (आ) अच्छी प्रकार से (गहि) प्राप्त होता है और  (समन्तात्) हर ओर से (कार्य्ये) कार्य में (सहायकारी) सहायक (भवति) होता है। ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ये) वायवः (उग्राः) तीव्रवेगादिगुणाः (अर्कम्) सूर्य्यादिलोकम् (आनृचुः) स्तावयन्ति तद्गुणान् प्रकाशयन्ति। अपस्पृधेथामानृचु० (अष्टा०६.१.३६) अनेनार्चधातोर्लिट्युसि सम्प्रसारणमकारलोपश्च निपातितः। (अनाधृष्टाः) धर्षितुं निवारयितुमनर्हाः (ओजसा) बलादिगुणसमूहेन सह वर्त्तमानाः (मरुद्भिः) एतैर्वायुभिः सह (अग्ने) विद्युत् प्रसिद्धो वा (आ) समन्तात् (गहि) प्राप्नोति॥४॥
    विषयः- पुनः कीदृशास्ते मरुत इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- य उग्रा अनाधृष्टासो वायव ओजसाऽर्कमानृचुरेतैर्मरुद्भिः सहाग्ने अयमग्निरागह्यागच्छति समन्तात् कार्य्ये सहायकारी भवति॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यावद्बलं वर्त्तते तावद्वायुविद्युद्भ्यां जायते, इमे वायवः सर्वलोकधारकाः सन्ति। तद्योगेन विद्युत्सूर्य्यादयः प्रकाश्य ध्रियन्ते। तस्माद्वायुगुणज्ञानोपकारग्रहणाभ्यां बहूनि कार्य्याणि सिध्यन्तीति॥४॥

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    विषय

    ओजस्विता

    पदार्थ

    १. प्राणसाधकों का ही वर्णन करते हुए कहते हैं कि ये वे व्यक्ति होते हैं (ये) - जो (उग्राः) - [Noble] अत्यन्त तेजस्वी व श्रेष्ठ होते हैं । 

    २. ये लोग (अर्कम्) - उस अर्चना के योग्य प्रभु का (आनृचुः) - पूजन करते हैं । 

    ३. और इस पूजन के परिणामस्वरूप ये ओजसा , अनाधृष्टासः) - ओज के कारण शत्रुओं से कभी पराजित नहीं किये जाते । 

    ४. इस सारी बात का ध्यान करते हुए ही प्रभु जीव से कहते हैं कि अग्ने हे प्रगतिशील जीव! तु (मरुद्धिः) - प्राणों के द्वारा (आगहि) - हमारे समीप आनेवाला हो । प्राणसाधना के द्वारा चित्तवृत्ति को एकाग्र करके आत्मस्वरूप में स्थित होकर परमात्मदर्शन करनेवाला बन । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से मनुष्य तेजस्वी बनता है । प्रभु का अर्चन करता हुआ अपने ओज के कारण कभी शत्रुओं से पराभूत नहीं होता । 

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    विषय

    अग्नि, अग्रणी राजा, और मरुत् वीर भटों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो (उग्राः) अति बलवान्, वेगवान्, (अनाधृष्टासः) कभी शत्रुओं से घर्षण या पराजय को प्राप्त न होने हारे, ( ओजसा ) अपने बल पराक्रम के द्वारा ( अर्कम् ) सूर्य के समान तेजस्वी सम्राट् के ( आनृचुः ) गुणों को प्रकाशित करते हैं उन ( मरुद्भिः ) वायु के समान तीव्र बलवान् वीर पुरुषों सहित हे ( अग्ने ) शत्रुसंतापक, अग्रणी राजन्! तू ( आगहि ) आ, हमें प्राप्त हो । परमेश्वर के पक्ष में—जो (उग्राः) बलवान्, ( ओजसा ) बल से पराजित न होकर भी अर्चनीय परमेश्वर की उपासना करते हैं उन विद्वानों द्वारा हे ज्ञानवन् ! तू हमें प्राप्त हो । भौतिक पक्ष में—जो वेगवान्, अनिवार्य, वायु गण सूर्य के ताप आदि गुणों को प्रकाशित करते हैं उन वायुओं से अग्नि भी तीव्र होती है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः कण्व ऋषिः । अग्निर्मरुतश्च देवते। गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जितके बल विद्यमान असते तितके वायू व विद्युतच्या साह्याने उत्पन्न होते. हे वायू सर्व गोलांना धारण करणारे आहेत. त्यांच्या संयोगाने विद्युत व सूर्य इत्यादी लोक (गोल) प्रकाशित होतात तसेच धारणही केले जातात. यामुळे वायूचे गुण जाणण्याने व त्यांच्याकडून उपकार ग्रहण करण्याने अनेक प्रकारचे कार्य सिद्ध होते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Light and fire, Agni, come with the winds and waves of energy, Maruts which are awful and undaunted, and which blaze and light up the sun with splendour.

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    Subject of the mantra

    Then, what type of aforesaid airs are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ya)=those, (ugrāḥ)=having quality of high speed, (anādhṛṣṭāsaḥ)=winds, which do not get stopped by any one, (ojasāḥ)=are present with a group of power etc, (arkam)=to the sun world etc, (ānṛcuḥ)=illuminate by their qualities, (etaiḥ)=by these, (marudbhiḥ)=with these winds, (agne)=electricity, (ayam)=this, (agniḥ)=fire, (ā)=well, (gahi)=gets obtained, (samantāt)=from every direction, (kāryye)=in accomplishment of the tasks, (sahāyakārī) =helpful, (bhavati)=becomes.

    English Translation (K.K.V.)

    Those airs which are having quality of high speed, do not get stopped by anyone and are present with a group of powers etc. and illuminate the Sun world etc. by their qualities. By these winds electricity and this fire gets obtained well from every direction and is helpful in accomplishment of the tasks.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    As much force is present, so much is generated from wind and electricity, these airs are the holder of all the worlds. By their combination, the world thunder or the Sun etc. are illuminated and contained. By knowing the qualities of wind and receiving help from them, many types of work are accomplished.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of those Maruts is taught in the fourth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    With the winds which are terrible and un-surpassed in strength and which manifest the sun- (the Agni fire or electricity) comes i. e. is helpful in the accomplishment of various works.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अर्कम) सूर्यादिलोकम् (मरुद्भिः) वायुभिः

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Whatever energy is there in the Universe is the result of the combination of air (gas) and electricity. These winds or gases are the upholders of the world. It is with their association that electricity and sun etc. are sustained. Therefore many works are accomplished by the knowledge and utilization of the air in its various forms.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted अर्कम् as सूर्यादिलोकम् Solar and other worlds. That the word अर्क is used for the sun is clear from the Shatapath Br. where it is clearly stated- आदित्यो वा अर्क: (शतपथ ब्राह्मणे १०.६.२.६) स एष एवार्को य एष सूर्यः तपति ( शत० १०.४.१.२२) = In the Taittiriya Brahmana 1.1.7.2 also it is stated - अर्कश्चक्षुस्तदसौ सूर्य: ॥ i. e. By Arka is meant the sun—the eye of the world so to speak.

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