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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 19/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - अग्निर्मरुतश्च छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ये नाक॒स्याधि॑ रोच॒ने दि॒वि दे॒वास॒ आस॑ते। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । नाक॑स्य । अधि॑ । रो॒च॒ने । दि॒वि । दे॒वासः । आस॑ते । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । आ । ग॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते। मरुद्भिरग्न आ गहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। नाकस्य। अधि। रोचने। दिवि। देवासः। आसते। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    ये देवासो नाकस्य रोचने दिव्यध्यासते तद्धारकैः प्रकाशकैर्मरुद्भि सहाग्नेऽयमग्निरागहि सुखानि प्रापयति॥६॥

    पदार्थः

    (ये) पृथिव्यादयो लोकाः (नाकस्य) सुखहेतोः सूर्य्यलोकस्य (अधि) उपरिभागे (रोचने) रुचिनिमित्ते (दिवि) द्योतनात्मके सूर्य्यप्रकाशे (देवासः) दिव्यगुणाः पृथिवीचन्द्रादयः प्रकाशिताः (आसते) सन्ति (मरुद्भिः) दिव्यगुणैर्देवैः सह (अग्ने) अग्निः प्रसिद्धः (आ) समन्तात् (गहि) सुखानि गमयति॥६॥

    भावार्थः

    सर्वे लोका ईश्वरस्यैव प्रकाशेन प्रकाशिताः सन्ति, परन्तु तद्रचितस्य सूर्य्यलोकस्य दीप्त्या पृथिवीचन्द्रादयो लोका दीप्यन्ते तैर्दिव्यगुणैः सह वर्त्तमानोऽयमग्निः सर्वकार्य्येषु योजनीय इति॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी उक्त पवन कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (ये) जो (देवासः) प्रकाशमान और अच्छे-अच्छे गुणोंवाले पृथिवी वा चन्द्र आदि लोक (नाकस्य) सुख की सिद्धि करनेवाले सूर्य्य लोक के (रोचने) रुचिकारक (दिवि) प्रकाश में (अध्यासते) उन के धारण और प्रकाश करनेवाले हैं, उन पवनों के साथ (अग्ने) यह अग्नि (आगहि) सुखों की प्राप्ति कराता है॥६॥

    भावार्थ

    सब लोक परमेश्वर के प्रकाश से प्रकाशमान हैं, परन्तु उसके रचे हुए सूर्य्यलोक की दीप्ति अर्थात् प्रकाश से पृथिवी और चन्द्रलोक प्रकाशित होते हैं, उन अच्छे-अच्छे गुणवालों के साथ रहनेवाले अग्नि को सब कार्य्यों में संयुक्त करना चाहिये॥६॥

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    विषय

    फिर भी उक्त पवन कैसे हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये देवासो नाकस्य रोचने दिवि अध्यासते तद्धारकैः प्रकाशकैः मरुद्भि सह अग्नेःअयम् अग्निःआगहि सुखानि प्रापयति॥६॥

    पदार्थ

    (ये) पृथिव्यादयो लोकाः=जो पृथिवी आदि लोक हैं,  (देवासः) दिव्यगुणाः पृथिवीचन्द्रादयः प्रकाशिताः=दिव्यगुण और प्रकाश आदि देने वाले पृथिवी, चन्द्र आदि हैं,  (नाकस्य) सुखहेतोः सूर्य्यलोकस्य=सुख हेतु सूर्य आदि लोक हैं, (रोचने) रुचिनिमित्ते=रुचि के लिए, (दिवि) द्योतनात्मके सूर्य्यप्रकाशे =सूर्य के प्रकाश में चमकने वाले,  (अधि) उपरिभागे=ऊपर के भाग में,    (आसते) सन्ति=हैं,  तद्धारकैः=उनको धारण करने वाले, प्रकाशकैः= और प्रकाशित करने वाले, (मरुद्भिः) दिव्यगुणैर्देवैः सह=दिव्य गुण वाले देवों के साथ, (अग्ने) अग्निः प्रसिद्धः= प्रसिद्ध अग्नि, (अयम्)=यह, (अग्निः) अग्नि, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (गहि)= सुखानि गमयति-सुखानि प्रापयति=सुखों की प्राप्ति कराता है।॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    सब लोक परमेश्वर के प्रकाश से प्रकाशमान हैं, परन्तु उसके रचे हुए सूर्यलोक की दीप्ति अर्थात् प्रकाश से पृथिवी और चन्द्रलोक प्रकाशित होते हैं, उन अच्छे-अच्छे गुणवालों के साथ रहनेवाले अग्नि को सब कार्यों में संयुक्त करना चाहिये॥६॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो (देवासः) दिव्यगुण और प्रकाश आदि देने वाले पृथिवी, चन्द्र आदि  और  (नाकस्य) सुख हेतु सूर्य आदि लोक हैं। जो (रोचने) रुचिकारक (दिवि) और सूर्य के प्रकाश में चमकने वाले (अधि) ऊपर के भाग में  विद्यमान्  (आसते) हैं।  (तद्धारकैः) उनको धारण करने वाले (प्रकाशकैः) और लोकों को प्रकाशित करने वाले हैं। (अयम्) यह (अग्ने)  प्रसिद्ध अग्नि (मरुद्भिः) दिव्य गुण वाले देवों के साथ, (आ) हर ओर से (गहि) सुखों की प्राप्ति कराता है।॥६॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ये) पृथिव्यादयो लोकाः (नाकस्य) सुखहेतोः सूर्य्यलोकस्य (अधि) उपरिभागे (रोचने) रुचिनिमित्ते (दिवि) द्योतनात्मके सूर्य्यप्रकाशे (देवासः) दिव्यगुणाः पृथिवीचन्द्रादयः प्रकाशिताः (आसते) सन्ति (मरुद्भिः) दिव्यगुणैर्देवैः सह (अग्ने) अग्निः प्रसिद्धः (आ) समन्तात् (गहि) सुखानि गमयति॥६॥
    विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- ये देवासो नाकस्य रोचने दिव्यध्यासते तद्धारकैः प्रकाशकैर्मरुद्भि सहाग्नेऽयमग्निरागहि सुखानि प्रापयति॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वे लोका ईश्वरस्यैव प्रकाशेन प्रकाशिताः सन्ति, परन्तु तद्रचितस्य सूर्य्यलोकस्य दीप्त्या पृथिवीचन्द्रादयो लोका दीप्यन्ते तैर्दिव्यगुणैः सह वर्त्तमानोऽयमग्निः सर्वकार्य्येषु योजनीय इति॥६॥

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    विषय

    स्वर्गलोक

    पदार्थ

    १. ये प्राणसाधक वे होते हैं (ये) - जो (नाकस्य) - [न , अकः] - जहाँ दुःख का लवलेश नहीं , उस स्वर्गलोक के (अधिरोचने) - अत्यन्त दीप्तिवाले , अधिक चमकवाले (दिवि) - प्रकाशमय लोक में (देवासः) - दिव्य वृत्तिवाले (आसते) - आसीन होते हैं , अतः हे (अग्ने) - प्रगतिशील जीव । तू (मरुद्धिः) - प्राणों से , प्राणसाधना से (आगहि) - प्रभु को प्राप्त करनेवाला हो । 

    २. प्राणसाधना से इन्द्रिय - दोष दूर होकर मानवजीवन पवित्र बनता है , मनुष्य की वृत्तियाँ दिव्य हो जाती हैं और देव बनकर ये सदा प्रकाशमय लोक में रहते हैं , उस प्रकाशमय लोक में जोकि दुःख के सम्पर्क से रहित व दीप्तिमय है । इनका अगला जन्म होता है तो उस नाकलोक में होता है जोकि द्युलोक में स्थित है [दिवो नाकस्य पृष्ठात्] । इस लोक से भी ऊपर उठकर अन्ततः ये उस स्वर्ज्योति को प्राप्त करते हैं , स्वयं देदीप्यमान ब्रह्म को ये प्राप्त करनेवाले होते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधक पुरुष देव बनकर द्युलोकस्थ अत्यन्त दीप्तिमय स्वर्गलोक में पहुँचते हैं । वहाँ से भी ऊपर उठकर प्रभु को पाते हैं । 

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    विषय

    अग्नि, अग्रणी राजा, और मरुत् वीर भटों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( रोचने दिवि ) प्रकाशमान सूर्य के आश्रय पर जो पृथिवी, चन्द्र, अन्यान्य ग्रह आदि है, या प्रकाश की किरणें हैं उनके साथ ही सूर्य उदय होता है उसी प्रकार ( नाकस्य ) सुखयुक्त राष्ट्र के ( अधि ) ऊपर अधिष्ठाता रूप से विद्यमान (रोचने) स्वयं ज्ञानवान्, तेजस्वी ( दिवि ) सर्वोपरि ज्ञानप्रद राजसभा में ( ये ) जो देवासः विद्वान् पुरुष ( आसते ) विराजते हैं उन ( मरुद्भिः ) राष्ट्र के प्राणस्वरूप विद्वान् पुरुषों के साथ हे (अग्न) अग्रणी तेजस्विन् ! नायक ! तू (आ गहि) हमें प्राप्त हो । इति षट्त्रिंशो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मेधातिथिः कण्व ऋषिः । अग्निर्मरुतश्च देवते। गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व गोल परमेश्वराच्या प्रकाशाने प्रकाशित होतात; परंतु त्याने निर्माण केलेली सूर्यलोकाची दीप्ती अर्थात प्रकाश किरणांमुळे पृथ्वी व चंद्रलोक प्रकाशित होतात असे दिव्य गुण असलेल्या अग्नीला सर्वांनी कार्यात संयुक्त करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The brilliant powers are Maruts which abide and preside over the regions of bliss in the light of the solar region, and which hold, sustain and light the earth, moon and others. Agni, come with those divine Maruts of light and power. Agni, come and bless.

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    Subject of the mantra

    Even then, how are aforesaid airs, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=those, (devāsaḥ)=earth, moon etc. worlds which are effulgent and have divine qualities, (nākasya)=for delight sun etc. world are, (rocane)=interesting, (divi)=illuminating in the sun light, (adhi)=present in the upper part, (āsate)=are, (prakāśakaiḥ)=illuminators of the worlds, (marudbhiḥ)=in the company of deities having divine virtues, (agne)=famous physical fire, (ayam)=this, (taddhārakaiḥ)=holding them, Prakashakaih=in the company of (ā)=from every direction, (gahi)=gets obtained delights.

    English Translation (K.K.V.)

    Those Earth, Moon etc. worlds which are effulgent and have divine qualities, Sun etc. world are for the delight. Those interesting and illuminating in the Sun light are present in the upper part. Holding them and in the company of deities having divine virtues, illuminators of the worlds. This famous physical fire gets delights in the company of divine deities from every direction and in the company of deities having divine virtues.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    All the worlds are illuminated by the effulgence of the God, but the Earth and the Moon are illuminated by the light of the Sun created by him, the fire that is present with those with good qualities should be combined in all works.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The worlds like the earth and moon depend upon or are illuminated by the brilliant sun. The fire leads to much happiness with the help of the airs.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All worlds are illuminated by the light of d, but the worlds like the earth and the moon are illuminated by the sun. The fire with its divine properties should be utilized in all actions.

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