ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निर्मरुतश्च
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ये शु॒भ्रा घो॒रव॑र्पसः सुक्ष॒त्रासो॑ रि॒शाद॑सः। म॒रुद्भि॑रग्न॒ आ ग॑हि॥
स्वर सहित पद पाठये । शु॒भ्राः । घो॒रऽव॑र्पसः । सु॒ऽक्ष॒त्रासः॑ । रि॒शाद॑सः । म॒रुत्ऽभिः॑ । अ॒ग्ने॒ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये शुभ्रा घोरवर्पसः सुक्षत्रासो रिशादसः। मरुद्भिरग्न आ गहि॥
स्वर रहित पद पाठये। शुभ्राः। घोरऽवर्पसः। सुऽक्षत्रासः। रिशादसः। मरुत्ऽभिः। अग्ने। आ। गहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
ये घोरवर्पसो रिशादसः सुक्षत्रासः शुभ्रा वायवः सन्ति, तैर्मरुद्भिः सहाग्नेऽग्निरागहि कार्य्याणि प्रापयति॥५॥
पदार्थः
(ये) वायवः (शुभ्राः) स्वगुणैः शोभमानाः (घोरवर्पसः) घोरं हननशीलं वर्पो रूपं स्वरूपं येषां ते। वर्प इति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (सुक्षत्रासः) शोभनं क्षत्रमन्तरिक्षस्थं राज्यं येषां ते (रिशादसः) रिशा रोगा अदसोऽत्तारो ये ते (मरुद्भिः) प्राप्तिहेतुभिः सह। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेनात्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (अग्ने) भौतिकः (आ) आभिमुख्ये (गहि) प्रापयति॥५॥
भावार्थः
ये यज्ञेन शोधिता वायवः सुराज्यकारिणो भूत्वा रोगान् घ्नन्ति, ये चाशुद्धास्ते सुखानि नाशयन्ति, तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरग्निना वायोः शोधनेन सुखानि संसाधनीयानीति॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी उक्त वायु कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
(ये) जो (घोरपर्वसः) घोर अर्थात् जिनका पदार्थों को छिन्न-भिन्न करनेवाला रूप जो और (रिशादसः) रोगों को नष्ट करनेवाले (सुक्षत्रासः) तथा अन्तरिक्ष में निर्भय राज्य करनेहारे और (शुभ्राः) अपने गुणों से सुशोभित पवन हैं, उनके साथ (अग्ने) भौतिक अग्नि (आगहि) प्रकट होता अर्थात् कार्य्यसिद्धि को देता है॥५॥
भावार्थ
जो यज्ञ के धूम से शोधे हुए पवन हैं, वे अच्छे राज्य के करानेवाले होकर रोग आदि दोषों का नाश करते हैं और जो अशुद्ध अर्थात् दुर्गन्ध आदि दोषों से भरे हुए हैं, वे सुखों का नाश करते हैं। इससे मनुष्यों को चाहिये कि अग्नि में होम द्वारा वायु की शुद्धि से अनेक प्रकार के सुखों को सिद्ध करें॥५॥
विषय
फिर भी उक्त वायु कैसे हैं, इस विषयका उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
ये घोरवर्पसः रिशादसः सुक्षत्रासः शुभ्रा वायवः सन्ति, तैः मरुद्भिः सह अग्ने अग्निः आगहि कार्य्याणि प्रापयति॥५
पदार्थ
(ये) वायवः=जो पवन (घोरवर्पसः) घोरं हननशीलं वर्पो रूपं स्वरूपं येषां ते [घोरम्=हननम्= वर्पो= रूपं =स्वरूपं] =जिनका हननशील स्वरूप है, (रिशादसः) रिशा रोगा अदसोऽत्तारो यैस्ते= शत्रु रूपी रोगों को जिनसे नष्ट करते हैं, (सुक्षत्रासः) शोभनं क्षत्रमन्तरिक्षस्थं राज्यं येषां ते=अन्तरिक्ष में शोभायमान राज्य करने वाले, (शुभ्राः) स्वगुणैः वायवः सन्ति तैः शोभमानाः= जो अपने गुणो मे शोभायमान हैं, (तैः)=उनके द्वारा, (मरुद्भिः) प्राप्तिहेतुभिः सह=पवनों के प्राप्त होने के साथ, (अग्ने) भौतिकः अग्निः=भौतिक अग्नि, (आ) आभिमुख्ये अग्निः=सामने से अग्नि, (गहि) प्रापयति कार्य्याणि=कार्यों में प्राप्त करता है।॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो यज्ञ के धूएं से शोधे हुए पवन हैं, वे अच्छे राज्य के करानेवाले होकर रोगों का नाश करते हैं और जो अशुद्ध है, वे सुखों का नाश करते हैं। इससे सब मनुष्य अग्नि के द्वारा वायु की शुद्धि से अनेक प्रकार के सुखों के साधन लाये जाते हैं।॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(ये) जो पवन (घोरवर्पसः) जिनका हननशील स्वरूप है, (रिशादसः) शत्रु रूपी रोगों को जिनसे नष्ट करते है और (सुक्षत्रासः) अन्तरिक्ष में शोभायमान राज्य करने वाले हैं। (शुभ्राः) जो अपने गुणो मे शोभायमान हैं, (तैः) उनके द्वारा, (मरुद्भिः) पवनों के प्राप्त होने के साथ (अग्ने) यह भौतिक अग्नि (आ) सामने से (गहि) कार्यों में प्राप्त करता है।॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ये) वायवः (शुभ्राः) स्वगुणैः शोभमानाः (घोरवर्पसः) घोरं हननशीलं वर्पो रूपं स्वरूपं येषां ते। वर्प इति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (सुक्षत्रासः) शोभनं क्षत्रमन्तरिक्षस्थं राज्यं येषां ते (रिशादसः) रिशा रोगा अदसोऽत्तारो ये ते (मरुद्भिः) प्राप्तिहेतुभिः सह। मरुत इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.५) अनेनात्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते। (अग्ने) भौतिकः (आ) आभिमुख्ये (गहि) प्रापयति॥५॥
विषयः- पुनस्ते कीदृशा इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- ये घोरवर्पसो रिशादसः सुक्षत्रासः शुभ्रा वायवः सन्ति, तैर्मरुद्भिः सहाग्नेऽग्निरागहि कार्य्याणि प्रापयति॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये यज्ञेन शोधिता वायवः सुराज्यकारिणो भूत्वा रोगान् घ्नन्ति, ये चाशुद्धास्ते सुखानि नाशयन्ति, तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरग्निना वायोः शोधनेन सुखानि संसाधनीयानीति॥५॥
विषय
तेजस्वी रूप
पदार्थ
१. उन्हीं प्राणसाधकों के लिए कहते हैं कि ये वे है (ये) - जो (शुभाः) - अत्यन्त शुद्ध चरित्रवाले हैं । इनके कर्म सदा उज्ज्वल होते हैं । ये कभी निकृष्ट कर्मों से अपने को मलिन नहीं करते । इनके इन्द्रियदोष दग्ध हो जाते हैं ।
२. इसीलिए (घोरवर्पसः) - तेजस्वी रूपवाले होते हैं । (सुक्षत्रासः) - उत्तम बलवाले होते हैं , उस शक्तिवाले होते हैं जोकि इनका क्षतों से त्राण करती है ।
३. उस उत्तम क्षत्रवाले होकर ये (रिशादसः) - हिंसक वृत्तियों को नष्ट कर डालनेवाले होते हैं अथवा हिंसकों का नाश कर डालते हैं ।
४. इन सब बातों का विचार करके (अग्ने) - हे प्रगतिशील जीव! तू (मरुद्धिः) - इन प्राणों के द्वारा (आगहि) - प्रभु को प्राप्त होनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना करनेवाला शुद्धचरित्र , तेजस्वी रूपवाला , उत्तम बलवाला व हिंसकों का नाश करनेवाला बनता है ।
विषय
अग्नि, अग्रणी राजा, और मरुत् वीर भटों का वर्णन ।
भावार्थ
(ये) जो वीर पुरुष ( शुभ्राः ) श्वेत वर्ण के, उज्ज्वल रूप वाले, नाना अलंकारों और गुणों से सुशोभित, ( घोरवर्पसः ) शत्रुओं का नाश करने वाले, भयानक रूप को धारण करने वाले, ( सु-क्षत्रासः ) उत्तम क्षात्र-बल से युक्त, ( रिशादसः ) हिंसक दुष्ट पुरुषों के भी नाश करने वाले हैं उन ( मरुद्भिः ) वेगवान् वीर पुरुषों सहित, हे ( अग्ने ) अग्रणी, तेजस्विन् ! तू ( आगहि ) आ । वायुपक्ष में—जो ( शुभ्राः ) उत्तम गुण वाले, शुद्ध ( घोरवर्यसः ) आधात करने वाले, अति बलवान्, रोगों के नाश कारी वायु हैं उनके साथ अग्नि हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मेधातिथिः कण्व ऋषिः । अग्निर्मरुतश्च देवते। गायत्री । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
यज्ञाच्या धुराने शुद्ध केलेले वायू राज्यातील रोग इत्यादी दोष नष्ट करतात व अशुद्ध अर्थात दुर्गंधाने युक्त वायू सुखाचा नाश करतात. त्यासाठी यज्ञातील अग्नीद्वारे वायू शुद्ध करून माणसांनी अनेक प्रकारचे सुख सिद्ध करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Those are the winds blessed and beautiful, awful and catalytic, dominating rulers of nature’s metabolism, destroyers of evil and disease. Agni, come with the winds.
Subject of the mantra
Even then, how are aforesaid airs, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye)=those airs, (ghoravarpasaḥ)= of a murderous disposition, (riśādasaḥ)=through which kill disease like enemies, (sukṣatrāsaḥ)=reigning in the sky being beautifully stationed there, (śubhrāḥ)=who are beautiful in their qualities, (taiḥ)=by them, (marudbhiḥ)=being obtained with airs, (agne)=this physical fire, (ā)=from front, (gahi)= utilizes for tasks.
English Translation (K.K.V.)
Those airs, which are of a murderous disposition, through which kill enemy like diseases and are reigning in the sky being beautifully located there. Who are beautiful in their qualities, by them being obtained with airs, this physical fire utilizes for tasks from the front.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those who are the airs purified by the smoke of yajan, they destroy diseases and those who are impure, they destroy happiness. By this, all human beings attain many types of happiness by purifying the air through fire.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What is the nature of these Mantras is taught further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Agni (fire) accomplishes works with the help of those Maruts (airs or winds) which are brilliant on account of their attributes, which are fierce in their form, devourers of diseases, rulers of the middle regions or mighty.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(मरुदभिः) प्राप्तिहेतुभि: मरुत इति पदनामसु पठितम् ( निघ० ५.५ ) । अनेनात्र प्राप्त्यर्थो गृह्यते । (सुक्षत्रास:) शोभनंक्षत्रम् अन्तरिक्षस्थं राज्यं येषां ते ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Airs when purified through the Yajna destroy all diseases and when they are impure, destroy all happiness. Therefore men should enjoy happiness and health by purifying the air with the help of the lire (of the Yajna).
Translator's Notes
Rishi Dayananda has interpreted क्षत्रम् as राज्यं or reign. This interpretation is substantiated by Aitareya Brahman 7-22 क्षत्रं हि राष्ट्रम् (ऐत० ७. २२) It means that the word Kshatra means Rashtra or Government Here ends the thirty sixth Verga.
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