Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 31 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 18
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒तेना॑ग्ने॒ ब्रह्म॑णा वावृधस्व॒ शक्ती॑ वा॒ यत्ते॑ चकृ॒मा वि॒दा वा॑। उ॒त प्र णे॑ष्य॒भि वस्यो॑ अ॒स्मान्त्सं नः॑ सृज सुम॒त्या वाज॑वत्या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तेन॑ । अ॒ग्ने॒ । ब्रह्म॑णा । व॒वृ॒ध॒स्व॒ । शक्ती॑ । वा॒ । यत् । ते॒ । च॒कृ॒म । वि॒दा । वा॒ । उ॒त । प्र । ने॒षि॒ । अ॒भि । वस्यः॑ । अ॒स्मान् । सम् । नः॒ । सृ॒ज॒ । सु॒ऽम॒त्या । वाज॑ऽवत्या ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत्ते चकृमा विदा वा। उत प्र णेष्यभि वस्यो अस्मान्त्सं नः सृज सुमत्या वाजवत्या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतेन। अग्ने। ब्रह्मणा। वावृधस्व। शक्ती। वा। यत्। ते। चकृम। विदा। वा। उत। प्र। नेषि। अभि। वस्यः। अस्मान्। सम्। नः। सृज। सुऽमत्या। वाजऽवत्या ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वद्वर्य ! त्वं ब्रह्मणा वाजवत्या सुमत्या शक्ती शक्त्या नो वस्योऽभिसृज त्वमुत विदा वावृधस्व ते तव यत् प्रियाचरण तद्वयं चकृम, त्वं चास्मान् प्रणेषि सद्बोधं प्रापयसि ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (एतेन) वक्ष्यमाणेन (अग्ने) पाठशालाध्यापक ! (ब्रह्मणा) वेदेन (वावृधस्व) भृशमेधस्वैधय वा। अत्र वृधुधातोर्लोटि मध्यमैकवचने विकरणव्यत्ययेन श्लुरोरत्त्वम्, अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (शक्ती) आत्मसामर्थ्येन। अत्र सुपां सुलुग्० इति तृतीयैकवचनस्य पूर्वसवर्णादेशः। (वा) शरीरबलेन (यत्) आज्ञापालनाख्यं कर्म (ते) तव (चकृम) कुर्महे। अत्र लडर्थे लिट्। अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (विदा) विदन्ति येन ज्ञानेन। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (वा) योगक्रियया (उत) अपि (प्र) प्रकृष्टार्थे (नेषि) नयसि। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (अभि) आभिमुख्ये (वस्यः) अतिशयेन धनम्। अत्र वसुशब्दादीयसुन् प्रत्ययः। छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यकारलोपः। (अस्मान्) विद्याधर्माचरणयुक्तान् विदुषो धार्मिकान् मनुष्यान् (सम्) एकीभावे (नः) अस्मभ्यम् (सृज) निष्पादय (सुमत्या) शोभना चासौ मतिर्विचारो यस्यां तया (वाजवत्या) वाजः प्रशस्तमन्नं युद्धं विज्ञानं वा विद्यते यस्यां तया ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या वेदरीत्या धर्म्यं व्यवहारं कुर्वन्ति, ते ज्ञानवन्तः सुमतयो धार्मिका भूत्वा यं धार्मिकमुत्तमं विपश्चितं सेवन्ते स तान् श्रेष्ठसामर्थ्यसद्विद्यायुक्तान् सम्पादयतीति ॥ १८ ॥ अत्र सूक्त इन्द्रानुयोगिनः खलु प्राधान्येनेश्वरस्य गौण्या वृत्त्या भौतिकस्यार्थस्य प्रकाशनात् पूर्वसूक्तार्थेन सहैतस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इसका प्रकाश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सर्वोत्कृष्ट विद्वन् ! आप (ब्रह्मणा) वेदविद्या (वाजवत्या) उत्तम अन्न युद्ध और विज्ञान वा (सुमत्या) श्रेष्ठ विचारयुक्त से (नः) हमारे लिये (वस्यः) अत्यन्त धन (अभिसृज) सब प्रकार से प्रगट कीजिये (उत) और आप (विदा) अपने उत्तम ज्ञान से (वावृधस्व) नित्य-नित्य उन्नति को प्राप्त हूजिये (ते) आपका (यत्) जो प्रेम है, वह हम लोग (चकृम) करें और आप (अस्मान्) हम लोगों को (प्रणेषि) श्रेष्ठ बोध को प्राप्त कीजिये ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वेद की रीति से धर्मयुक्त व्यवहार को करते हैं, वे ज्ञानवान् और श्रेष्ठमतिवाले होकर उत्तम विद्वान् की सेवा करते हैं, वह उनको श्रेष्ठ सामर्थ्य और उत्तम विद्या से संयुक्त करता है ॥ १८ ॥ इस सूक्त में सभा, सेनापति आदि के अनुयोगी अर्थों के प्रकाश से पिछले सूक्त के साथ इस सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शक्ति व सुमति

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) परमात्मन् ! आप हमारे (एतेन) - इस (बह्मणा) - स्तोत्र से (वावृधस्व) - खूब ही बढ़िए (यत्ते) - जिस आपके स्तोत्र को (शक्ती वा विदा वा चकृम) - शक्ति या ज्ञान द्वारा करते हैं । वस्तुतः जब हम अपने शरीरों को शक्ति - सम्पन्न तथा मस्तिष्कों को ज्ञान - सम्पन्न बनाते हैं तब हमारे पिता - प्रभु प्रसन्न होते हैं । यह प्रभु का प्रसन्न होना ही उनका बढ़ना है । [नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः] निर्बल से प्रभु प्राप्य नहीं यह उपनिषद् - वाक्य 'शक्ति' के महत्त्व का प्रतिपादन कर रहा है और दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः "वह प्रभु सूक्ष्म बुद्धि से सूक्ष्मदर्शियों द्वारा देखा जाता है" , ये शब्द "बुद्धि" के महत्त्व के प्रतिपादक हैं । 'शक्ति व ज्ञान' की साधना ही प्रभु का आराधन है । 

    २. जब हम प्रभु का अराधन करते हैं (उत) - तब हे प्रभो ! आप (अस्मान्) - हमें (वस्यः अभि) - उत्तम वसुओं की ओर (प्रणेषि) - ले - चलते हो , अर्थात् आपकी कृपा से हम उत्तम वसुओंवाले बनते हैं । 

    ३. हे प्रभो ! आप कृपा करके (नः) - हमें (वाजवत्या) - शक्तिवाली (सुमत्या) - सुमति से (संसृज) - युक्त कीजिए । आपकी कृपा से ही तो हमें वह शक्ति व सुमति मिलती है , जिससे हमें आपका आराधन करना है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का आराधन शक्ति व सुमति से होता है और वे प्रभु हमें अतिशयेन वसुमान् बनाते हैं । 

    विशेष / सूचना

    विशेष—इस सूक्त का प्रारम्भ 'अग्नि , अंगिरा , ऋषि व देव' बनकर प्रभु के आराधन से होता है [१] । वे प्रभु 'मेधिर' हैं और हमारे शरीरों व मस्तिष्कों का निर्माण करनेवाले हैं [२] । प्रभु - दर्शन के लिए प्राणायाम आवश्यक है [३] । प्रभु - दर्शनवाला व्यक्ति प्राणिमात्र के हित करनेवाला होता है , इसे प्रभु नीरोगता , कीर्ति व ज्ञान प्राप्त कराते हैं [७] । प्रभु इसके लिए सम्पूर्ण धनों के देनेवाले होते हैं [९] । प्रभु का आदेश है कि 'सुवीर' बनो , 'व्रतपा' बनो और धन लाभ करो [१०] । प्रभु यज्ञशील के रक्षक हैं [११] । पवित्र दानवाले के लिए कवचरूप हैं [१४] । सौम्य पुरुषों के लिए मार्गदर्शक हैं [१६] । इस प्रभु का सच्चा उपासक 'शक्ति व ज्ञान' की प्राप्ति से ही होता है [१८] । शक्ति व ज्ञान की प्राप्ति के लिए वृत्र [वासना] का विनाश आवश्यक है । आधिदैविक जगत् में 'इन्द्र' सूर्य है , 'वृत्र' मेष है । यही अध्यात्म में आत्मा 'इन्द्र' और वासना 'वृत्र' हैं । आत्मा ने वासना का विनाश करके ही प्रभु को पाना है , इस प्रकार अब अगले सूक्त में इन्द्र द्वारा वृत्र के वध का वर्णन है । इस वृत्र का वध होने पर ही जैसे बाहर सूर्य चमक उठता है , उसी प्रकार वासना के विनष्ट होते ही ज्ञान का सूर्य दीप्त हो उठता है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इसका प्रकाश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने विद्वद्वर्य ! त्वं ब्रह्मणा वाजवत्या सुमत्या शक्ती शक्त्या नः वस्यः अभि सृज त्वम् उत विदा वावृधस्व ते तव यत् प्रियाचरण तत्  वयं  चकृम, त्वं च अस्मान् प्रणेषि सद्बोधं प्रापयसि॥१८॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) पाठशालाध्यापक=पाठशाला के अध्यापक!   [या]  (विद्वद्वर्य)=विद्वान् लोगों! (त्वम्)=आप, (ब्रह्मणा) वेदेन=वेदविद्या के द्वारा, (वाजवत्या) वाजः प्रशस्तमन्नं युद्धं विज्ञानं वा विद्यते यस्यां तया=जिसमें उत्तम अन्न युद्ध और विशेष ज्ञान हैं, (सुमत्या) शोभना चासौ मतिर्विचारो यस्यां तया=उस श्रेष्ठ विचारयुक्त से, (शक्ती) आत्मसामर्थ्येन=आत्मा की सामर्थ्य, (शक्त्या)=शक्ति से, (नः)=हमें, (वस्यः) अतिशयेन धनम्=अत्यन्त धन, (अभि) आभिमुख्ये=सब प्रकार से, (सृज) निष्पादय=दीजिए, (उत)=और, (त्वम्)=आप, (विदा) विदन्ति येन ज्ञानेन=अपने उत्तम ज्ञान से जानते हैं, (वावृधस्व) भृशमेधस्वैधय वा=अत्यधिक बढ़ाइये, (ते) तव=आपका, (यत्) आज्ञापालनाख्यं कर्म=जो आज्ञापालन का  कार्य है और (प्रियाचरण)=प्रिय आचरण हैं, (तत्)=उसको, (वयम्)=हम, (चकृम) कुर्महे=करें (च)=और, (त्वम्)=आप.  (अस्मान्) विद्याधर्माचरणयुक्तान् विदुषो धार्मिकान् मनुष्यान्=विद्याधर्म के आचरण से युक्त विद्वान् और धार्मिक मनुष्य हैं, [उनको]  (प्रणेषि) प्रकष्टार्थे नयसे=उत्तमता के साथ ले जाते हो। [उनको]   (सद्बोधम्)=सत्य बोध को,  (प्रापयसि)=प्राप्त कराते हो॥१८॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य वेद की रीति से धर्मयुक्त व्यवहार को करते हैं, वे ज्ञानवान् और श्रेष्ठमतिवाले होकर जो धार्मिक उत्तम विद्वान् की सेवा करते हैं, वह उनको श्रेष्ठ सामर्थ्य और उत्तम विद्या से संयुक्त करता है ॥१८॥

    विशेष

    सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- इस सूक्त में सभा, सेनापति आदि के अनुयोगी अर्थों के प्रकाश से पिछले सूक्त के साथ इस सूक्त की सङ्गति जाननी चाहिये ॥१८॥ 
    अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र में महर्षि दयानन्द ने 'अग्नि' का अर्थ-  'ईश्वर एक स्कूल शिक्षक के रूप में' किया है। ईश्वर ने वेद के ज्ञान से मनुष्यों को शिक्षा दी है। यह संसार एक प्रकार की पाठशाला है और परमेश्वर उसका शिक्षक है ॥१८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) पाठशाला के अध्यापकरूपी परमेश्वर!   [या]  (विद्वद्वर्य) विद्वान् लोगों! (त्वम्) आप (ब्रह्मणा) वेदविद्या के द्वारा (वाजवत्या) जिसमें उत्तम अन्न, युद्ध और विशेष ज्ञान हैं, (सुमत्या) उस श्रेष्ठ विचार से युक्त (शक्ती) आत्मा की सामर्थ्य (शक्त्या) शक्ति से (नः) हमें (वस्यः) अत्यन्त धन (अभि) सब प्रकार से (सृज) दीजिए। (उत) और (त्वम्) आप (विदा) [जो] अपने उत्तम ज्ञान से जानते हैं (वावृधस्व) [उसे] अत्यधिक बढ़ाइये। (ते) आपका (यत्) जो आज्ञापालन का  कार्य है और (प्रियाचरण) प्रिय आचरण हैं, (तत्) उसको (वयम्) हम (चकृम) करें। (च) और (त्वम्) आप  (अस्मान्)  [जो हम] विद्याधर्म के आचरण से युक्त विद्वान् और धार्मिक मनुष्य हैं, [उनको]  (प्रणेषि) उत्तमता के साथ ले जाते हो। [उनको]   (सद्बोधम्) सत्य बोध को  (प्रापयसि) प्राप्त कराते हो॥१८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (एतेन) वक्ष्यमाणेन (अग्ने) पाठशालाध्यापक ! (ब्रह्मणा) वेदेन (वावृधस्व) भृशमेधस्वैधय वा। अत्र वृधुधातोर्लोटि मध्यमैकवचने विकरणव्यत्ययेन श्लुरोरत्त्वम्, अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (शक्ती) आत्मसामर्थ्येन। अत्र सुपां सुलुग्० इति तृतीयैकवचनस्य पूर्वसवर्णादेशः। (वा) शरीरबलेन (यत्) आज्ञापालनाख्यं कर्म (ते) तव (चकृम) कुर्महे। अत्र लडर्थे लिट्। अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (विदा) विदन्ति येन ज्ञानेन। अत्र कृतो बहुलम् इति करणे क्विप्। (वा) योगक्रियया (उत) अपि (प्र) प्रकृष्टार्थे (नेषि) नयसि। अत्र बहुलं छन्दसि इति शपो लुक्। (अभि) आभिमुख्ये (वस्यः) अतिशयेन धनम्। अत्र वसुशब्दादीयसुन् प्रत्ययः। छान्दसो वर्णलोपो वा इत्यकारलोपः। (अस्मान्) विद्याधर्माचरणयुक्तान् विदुषो धार्मिकान् मनुष्यान् (सम्) एकीभावे (नः) अस्मभ्यम् (सृज) निष्पादय (सुमत्या) शोभना चासौ मतिर्विचारो यस्यां तया (वाजवत्या) वाजः प्रशस्तमन्नं युद्धं विज्ञानं वा विद्यते यस्यां तया ॥ १८ ॥
    विषयः- पुनः स कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः- हे अग्ने विद्वद्वर्य ! त्वं ब्रह्मणा वाजवत्या सुमत्या शक्ती शक्त्या नो वस्योऽभिसृज त्वमुत विदा वावृधस्व ते तव यत् प्रियाचरण तद्वयं चकृम, त्वं चास्मान् प्रणेषि सद्बोधं प्रापयसि ॥ १८ ॥

    महर्षिकृत (भावार्थ)- ये मनुष्या वेदरीत्या धर्म्यं व्यवहारं कुर्वन्ति, ते ज्ञानवन्तः सुमतयो धार्मिका भूत्वा यं धार्मिकमुत्तमं विपश्चितं सेवन्ते स तान् श्रेष्ठसामर्थ्यसद्विद्यायुक्तान् सम्पादयतीति ॥१८॥
     सूक्तस्य महर्षिकृत (भावार्थः)- अत्र सूक्त इन्द्रानुयोगिनः खलु प्राधान्येनेश्वरस्य गौण्या वृत्त्या भौतिकस्यार्थस्य प्रकाशनात् पूर्वसूक्तार्थेन सहैतस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वगुण सम्पन्न ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्! परमेश्वर! विद्वन्! राजन्! तू (एतेन) इस (ब्रह्मणा) महान् वेद ज्ञान, महान् ब्रह्म अर्थात् संचालक बल और ब्राह्म बल से (वावृधस्व) बढ़। हम (यत्) जो कुछ भी (ते) तेरे निमित्त (शक्ती) शक्ति से और (विदा वा) ज्ञान से (चकृम) करें तू (उत) तो (अस्मान्) हमें (वास्यः) उत्तम धन ऐश्वर्य (प्र नेषि) प्राप्त करा। और (नः) हमें (सुमत्या) उत्तम मति, बुद्धि और (वाजवत्या) ज्ञान और ऐश्वर्य से (सृज) युक्त कर। वीर्याग्नि पक्ष में ब्रह्म = अन्न। इति पञ्चत्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप आंङ्गिरस ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ १–७, ९–१५, १७ जगत्यः । ८, १६, १८ त्रिष्टुभः । अष्टादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे वेदाच्या रीतीने धर्मयुक्त व्यवहार करतात, ती ज्ञानी व श्रेष्ठमती बनून उत्तम विद्वानाची सेवा करतात. तो त्यांना श्रेष्ठ सामर्थ्यवान व उत्तम विद्यायुक्त करतो. ॥ १८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of light and fire of yajna, grow and let us grow by this divine voice of Veda, and by whatever we may do and achieve with our spiritual and physical strength or with our knowledge and action for the Divine. And bring us all-round wealth, and in-vest and exalt us with holy, creative and dynamic intelligence of a positive and victorious order.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, how should be that (God) be, this has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=God as a school teacher, [yā]=or, (vidvadvarya) =scholars, (tvam)=you, (brahmaṇā)=by vedic knowledge, (vājavatyā)=in which there is good food, war and special knowledge, (sumatyā)=with that great idea, (śaktī)=power of spirit (śaktyā)=by powe, (naḥ)=to us, (vasyaḥ)= great wealth, (abhi) =by all means, (sṛja)=provide, (uta)=and, (tvam)=you, [jo]=that, (vidā)= know by your best knowledge, [use]=to that, (vāvṛdhasva)=Increase excessively. (te)=your, (yat) = which is an act of obedience, [aura]=and, (priyācaraṇa)=dear conduct is, (tat) =to that, (vayam)=we, (cakṛma) =must do, (ca)=and, (tvam)=you, [jo hama]=those of us, (asmān) =There are learned and religious human beings with the conduct of Vidyadharma, [unako]=to them, (praṇeṣi)=carry with excellence. [unako]=to them, (sadbodham)=to the realization of truth, (prāpayasi)=get obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    O God as a school teacher or scholar! You, through the knowledge of Vedas, in which there is good food, war and special knowledge, give us immense wealth in every way by the power of that soul with elevated thoughts. And greatly increase what you know with your best knowledge. Let us do the work which is called obedience to you and the loveable conduct. And you, who, we are learned and righteous human beings with the conduct of vidyādharma (virtue of the knowledge), take us with the decency. Make them realize the truth.

    Footnote

    Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this hymn, the association of this hymn with the previous hymn should be known from the light of the useful meanings of the assembly, commander et cetera.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God as a school teacher- Those who do righteous conduct in the manner of the Vedas, those who serve a righteous scholar, being knowledgeable and of great sensibility, He unites them with great power and best learning.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    In this mantra, Maharishi Dayanand has given the meaning of 'Agni' as 'God or a school teacher'. God has taught human beings through the knowledge of Vedas. This world is a kind of school and God is its teacher.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should that Agni be is taught in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O best among the learned and the teachers, grow with the Vedic knowledge, with good intellect combined with good food and wisdom, with physical and spiritual power and knowledge of various kinds accompanied by Yoga and urge upon others to do so. We always try to obey and please you with the best of our power and ability. Please lead us onward to wealth ( spiritual as well material) by imparting us true education and proper instruction. Endow us with right understanding.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) पाठशालाध्यापक = A teacher. (वस्यः ) अतिशयेन धनम् (अत्र वसुशब्दात् ईयसुन् प्रत्ययः। छान्दसो वर्णलोपो वेतीकारलोपः ।। = Abundant wealth. ( वाजवत्या) वाज:प्रशस्तमन्नं विज्ञानं वा विद्यते यस्यां तथा = Full of good food and wisdom.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who act righteously according to the Vedic teachings, become wise, intelligent and righteous. The righteous, good learned person whom they serve, makes them full of good knowledge and power.

    Translator's Notes

    वाज इत्यन्न अन्न नाम ( निघ० २.७ ) = Food. The word बाज is derived from वज-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानंगमनं प्राप्तिश्च Here the first meaning of ज्ञान or knowledge has been taken by Rishi Dayananda. This hymn is connected with the previous hymn as the Devata or subject matter is Agni or Indra with various meanings. Here ends the 31st hymn of the first Mandala of Rigveda Sanhita.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top