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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 76/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    एह्य॑ग्न इ॒ह होता॒ नि षी॒दाद॑ब्धः॒ सु पु॑रए॒ता भ॑वा नः। अव॑तां त्वा॒ रोद॑सी विश्वमि॒न्वे यजा॑ म॒हे सौ॑मन॒साय॑ दे॒वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । इ॒हि॒ । अ॒ग्ने॒ । इ॒ह । होता॑ । नि । सी॒द॒ । अद॑ब्धः । सु । पु॒रः॒ऽए॒ता । भ॒व॒ । नः॒ । अव॑ताम् । त्वा॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । वि॒श्व॒मि॒न्वे इति॑ वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वे । यज॑ । म॒हे । सौ॒म॒न॒साय॑ । दे॒वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एह्यग्न इह होता नि षीदादब्धः सु पुरएता भवा नः। अवतां त्वा रोदसी विश्वमिन्वे यजा महे सौमनसाय देवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। इहि। अग्ने। इह। होता। नि। सीद। अदब्धः। सु। पुरःऽएता। भव। नः। अवताम्। त्वा। रोदसी इति। विश्वमिन्वे इति विश्वम्ऽइन्वे। यज। महे। सौमनसाय। देवान् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 76; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किमर्थं प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे अग्नेऽदब्धस्त्वमिह नो होतेहि सुनिषीद पुरएता भव यं त्वां विश्वमिन्वे रोदसी अवतां स त्वं महे सौमनसाय देवान् यज ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (इहि) प्राप्नुहि (अग्ने) विश्वोपकारक (इह) अस्मिन् संसारे (होता) दाता सन् (नि) नित्यम् (सीद) आस्व (अदब्धः) अस्माभिरहिंसितोऽतिरस्कृतः (सु) सुष्ठु (पुरएता) पूर्वं प्राप्तः (भव) (नः) अस्मान् (अवताम्) रक्षेताम् (त्वा) त्वाम् (रोदसी) विद्याप्रकाशभूमिराज्ये द्यावापृथिव्यौ वा (विश्वमिन्वे) विश्वतर्पके (यज) सङ्गच्छस्व (महे) महते (सौमनसाय) मनसो निर्वैरत्वाय (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा ॥ २ ॥

    भावार्थः

    एवं सत्यभावेन प्रार्थितः परमेश्वरः सेवितो धार्मिको विद्वान् वा सर्वमेतन्मनुष्येभ्यो ददाति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उस विद्वान् की प्रार्थना किसलिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) सबके उपकार करनेवाले विद्वान् ! (अदब्धः) अहिंसक हम लोगों को सेवा करने योग्य आप (इह) इस संसार में (होता) देनेवाले (नः) हम लोगों को (आ, इहि) प्राप्त हूजिये (सु) अच्छे प्रकार (नि) नित्य (सीद) ज्ञान दीजिये (पुरएता) पहिले प्राप्त करनेवाले (भव) हूजिये जिस (त्वा) आपको (विश्वमिन्वे) सब संसार को तृप्त करनेवाले (रोदसी) विद्याप्रकाश और भूगोल का राज्य अथवा आकाश और पृथिवी (अवताम्) प्राप्त हों, सो आप (महे) बड़े (सौमनसाय) मन का वैरभाव छुड़ाने के लिये (देवान्) विद्वान् दिव्य गुणों को स्वात्मा में (यज) संगत कीजिये ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस प्रकार सत्यभाव से प्रार्थना किया हुआ परमेश्वर और सेवा किया हुआ धर्मात्मा विद्वान् सब सुख मनुष्यों को देता है ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रभु के नेतृत्व में

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) परमात्मन् ! (एहि) = आइए (इह) = इस हमारे शान्त हृदय में होता - सब आवश्यक धनों के देनेवाले होकर (निषीद) = विराजमान होओ । हमारा पवित्र व शान्त हृदय प्रभु का निवासस्थान बने । वे प्रभु हमें सब आवश्यक वस्तुओं के देनेवाले हों । २. हे (अदब्धः) = हिंसित न होनेवाले प्रभो ! आप (नः) = हमारे (पुरः) = आगे (एता) = चलनेवाले (सुभव) = उत्तमता से होओ । आप ही हमारा उत्तमता से नेतृत्व कीजिए । आपके नेतृत्व में हम जीवन - यात्रा को उत्तमता से पूर्ण करनेवाले बनें । ३. (विश्वं इन्वे) = सबको व्याप्त करनेवाले (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (त्वा अवताम्) = [अव - वृद्धि] आपका वर्धन करनेवाले हों । इस द्युलोक व पृथिवीलोक में मुझे आपकी महिमा का दर्शन हो । मैं आपकी भावना को हृदय में दृढ़ता से स्थापित करनेवाला बनूं । ४. हे प्रभो ! इस प्रकार सर्वत्र आपकी महिमा को देखते हुए और आपके भाव को हृदय में बढ़ाते हुए हम (सौमनसाय) = उत्तम मनवाले होने के लिए (देवान्) = देवों को (यजामहे) = उपासित करते हैं, इनके सम्पर्क से दिव्य गुणों को अपने साथ संगत करते हैं और दान की वृत्तिवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा ही हमारा नेतृत्व करे । हम सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखें और देवों का संग करते हुए उत्तम मनवाले बनें ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! हे विद्वन् ! हे (अग्ने) सबके पूर्व विद्यमान, सर्वप्रकाशक ! आप ( होता ) सब सुखों और ज्ञानों के दाता होकर ( इह ) यहां ( निषीद ) विराजमान हो । आप ( अदब्धः ) कभी तिरस्कार और वध पीड़ा आदि न प्राप्त करके ( नः ) हमारे ( पुरः एता ) आगे २ नायक के समान अग्रणी पथदर्शक होकर (भव) रहो । ( विश्वमिन्वे ) समस्त संसार को जल, अन्न और प्रकाश से पूर देने वाले (रोदसी) सूर्य और भूमि दोनों के समान राजवर्ग और प्रजावर्ग ( त्वा अवतां ) तेरा ज्ञान करे । हे राजन् ! वे दोनों तेरी रक्षा करें । हम लोग (सौमनसाय ) मनको परस्पर वैररहित, प्रेमयुक्त उत्तम भाव वाला बनाये रखने के लिये ( देवान् ) विद्वानों का ( यजामहे ) सत्संग करें । अथवा—[ यज । महे । सौमनसाय इति पदपाठः ] हे ईश्वर ! हे विद्वन् ! आप ( महे सौमनसाय ) बड़े भारी पारस्परिक उत्तम प्रेम युक्त चित्त बने रहने के लिये (देवान् यज) उत्तम गुणों और विद्वान् पुरुषों का सत्संग हमें प्रदान करे। हे मनुष्य ! तू उत्तम चित्त के भाव करने के लिये विद्वानों का सत्संग कर ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-५ गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निदेवता । छन्दः—१, ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ १-५ धैवतः स्वरः ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर उस विद्वान् की प्रार्थना किस लिये करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने अदब्धः त्वम् इह नः होता {आ} इहि सु नि षीद पुरएता भव यं त्वां विश्वमिन्वे रोदसी अवतां स त्वं महे सौमनसाय देवान् यज ॥२॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (अग्ने) विश्वोपकारक= विश्व के उपकारक परमेश्वर! (अदब्धः) अस्माभिरहिंसितोऽतिरस्कृतः=हमारे द्वारा हिंसित और तिरस्कार न किये हुए, (त्वम्)=तुम, (इह) अस्मिन् संसारे=इस संसार में, (नः) अस्मान्=हमारे, (होता) दाता सन्= दाता होते हुए, {आ} समन्तात्=हर ओर से, (इहि) प्राप्नुहि=प्राप्त होते हो। (सु) सुष्ठु=उत्तम रूप से, (नि) नित्यम्=नित्य, (सीद) आस्व=विराजमान होओ, (पुरएता) पूर्वं प्राप्तः=पहले पहुँचनेवाले, (भव)=होओ, (यम्)=जिसे, (त्वा) त्वाम्=तुम्हारे, (विश्वमिन्वे) विश्वतर्पके=समस्त संसार को संतुष्ट करनेवाले, (रोदसी) विद्याप्रकाशभूमिराज्ये द्यावापृथिव्यौ वा= विद्या के प्रकाश से भूमि के राज्य में या द्यौ और पृथिवी में, (अवताम्) रक्षेताम्=रक्षा करें, (सः) =वह, (त्वम्)=तुम, (महे) महते=महान्, (सौमनसाय) मनसो निर्वैरत्वाय=मन की निर्वैरता के लिये, (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा=विद्वानों या दिव्य गुणों का, (यज) सङ्गच्छस्व=संगतिकरण करो ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस प्रकार सत्यभाव से प्रार्थना किया हुआ परमेश्वर और सेवा किया हुआ धर्मात्मा विद्वान् सब सुख मनुष्यों को देता है

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) विश्व के उपकारक परमेश्वर! (अदब्धः) हमारे द्वारा हिंसित और तिरस्कार न किये हुए (त्वम्) तुम (इह) इस संसार में, (नः) हमें (होता) दाता होते हुए, {आ} हर ओर से (इहि) प्राप्त होते हो। (सु) उत्तम रूप से (नि) नित्य (सीद) विराजमान होओ। (पुरएता) पहले पहुँचनेवाले (भव) होओ, (यम्) जिसे (त्वा) तुम्हारे (विश्वमिन्वे) समस्त संसार को संतुष्ट करनेवाले, (रोदसी) विद्या के प्रकाश से भूमि के राज्य में या द्यौ और पृथिवी में (अवताम्) रक्षा करें। (सः) वह (त्वम्) तुम (महे) महान्, (सौमनसाय) मन की निर्वैरता के लिये (देवान्) विद्वानों या दिव्य गुणों का (यज) संगतिकरण करो ॥२॥

    संस्कृत भाग

    आ । इ॒हि॒ । अ॒ग्ने॒ । इ॒ह । होता॑ । नि । सी॒द॒ । अद॑ब्धः । सु । पु॒रः॒ऽए॒ता । भ॒व॒ । नः॒ । अव॑ताम् । त्वा॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । वि॒श्व॒मि॒न्वे इति॑ वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वे । यज॑ । म॒हे । सौ॒म॒न॒साय॑ । दे॒वान् ॥ विषयः- पुनः स किमर्थं प्रार्थनीय इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- एवं सत्यभावेन प्रार्थितः परमेश्वरः सेवितो धार्मिको विद्वान् वा सर्वमेतन्मनुष्येभ्यो ददाति ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या प्रकारे सत्यभाव बाळगून प्रार्थना केलेला ईश्वर व सम्मानित धार्मिक विद्वान माणसांना सर्व सुख देतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of kindness and benevolence, come to us fearless and bold and lead our yajna as high-priest to take us forward. May the heaven and earth which sustain the world be with you. Come to the noblest brilliancies of humanity for the sake of peace and joy of the mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What for should Agni be prayed is taught in the second Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O doer of good to all, you are irresistible. Being giver of happiness, come to us in this world and take your seat: Be our leader. May heaven and earth that gratify all and kingdom of the State protect you: Unite all enlightened persons or divine virtues for making your mind free from all feeling of animosity. (2) With slight difference, this prayer is also addressed to God who is irresistible and our True Leader. May Heaven and earth express Thy Glory to us and unite all enlightened persons and divine virtues for making the mind free from all enemity or malice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अदब्ध:) अस्माभिः अहिंसितः अतिरस्कृतः । = Not violated or insulted by us or irresistible. (रोदसी) विद्याप्रकाशभूमिराज्ये द्यावापृथिव्यौ वा । = The light of knowledge and the kingdom of the State or heaven aad earth. (सौमनसाय) मनसो निर्वैरत्वाय । = For making mind free from animosity or malice

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Thus God when prayed sincerely and a righteous learned persons when served all knowledge etc.to mean.

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    Subject of the mantra

    Then, why should one pray to that scholar?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)= God the benefactor of the world, (adabdhaḥ)=not violated and despised by us, (tvam) =you, (iha) =in this world, (naḥ) =our, (hotā) =being provider, {ā} =from every side, (ihi) =are attained, (su)= in perfect style (ni) =always, (sīda) =sit, (puretā +bhava)= be the first to reach, (yam) =which, (tvā) =your, (viśvaminve)= the satisfier of entire world, (rodasī) =with the manifestation of knowledge in the kingdom of the earth or in the space and the earth, (avatām) =protect, (saḥ) =that, (tvam) =you, (mahe) =great, (saumanasāya)=for the non-enemity of mind, (devān)=of scholars or divine qualities, (yaja) =have communion.

    English Translation (K.K.V.)

    O God, the benefactor of the world! Not violated and despised by us, you, being our provider in this world, are attained from everywhere. Always sit in perfect style. Be the first to reach, whom the satisfier of your entire world, may protect with the manifestation of knowledge in the kingdom of the earth or in the space and the earth. That great one, for the sake of non-enemity of mind, have communion with scholars or divine qualities.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Similarly, God, who is prayed and worshiped with true feelings, gives it to the righteous scholars and all these human beings.

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