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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 76 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 76/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र॒जाव॑ता॒ वच॑सा॒ वह्नि॑रा॒सा च॑ हु॒वे नि च॑ सत्सी॒ह दे॒वैः। वेषि॑ हो॒त्रमु॒त पो॒त्रं य॑जत्र बो॒धि प्र॑यन्तर्जनित॒र्वसू॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाव॑ता । वच॑सा । वह्निः॑ । आ॒सा । आ । च॒ । हु॒वे । नि । च॒ । स॒त्सि॒ । इ॒ह । दे॒वैः । वेषि॑ । हो॒त्रम् । उ॒त । पो॒त्रम् । य॒ज॒त्र॒ । बो॒धि । प्र॒ऽय॒न्तः॒ । ज॒नि॒तः॒ । वसू॑नाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजावता वचसा वह्निरासा च हुवे नि च सत्सीह देवैः। वेषि होत्रमुत पोत्रं यजत्र बोधि प्रयन्तर्जनितर्वसूनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजावता। वचसा। वह्निः। आसा। आ। च। हुवे। नि। च। सत्सि। इह। देवैः। वेषि। होत्रम्। उत। पोत्रम्। यजत्र। बोधि। प्रऽयन्तः। जनितः। वसूनाम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 76; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे यजत्र ! यो वह्निस्त्वमिह देवैः सह सत्सि प्रजावता वचसा बोधि यतो होत्रमुत पोत्रं निवेषि। हे यजत्र ! प्रयन्तर्यथा त्वं वसूनां वेत्ताऽसि तथाऽहमासा त्वां हुवे ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (प्रजावता) प्रशस्ता प्रजा विद्यते यस्मिँस्तेन (वचसा) वचनेन (वह्निः) सुखानां प्रापकः (आसा) अस्यन्ते वर्णा येन तेन मुखेन (च) समुच्चये (हुवे) स्तुवे। अत्र बहुलं छन्दसीति संप्रसारणम्। (नि) नितराम् (च) पुनरर्थे (सत्सि) सभायाम् (इह) अस्मिन् संसारे (देवैः) दिव्यगुणैर्विद्वद्भिर्वा (वेषि) व्याप्नोषि (होत्रम्) हवनीयं वस्तु (उत) अपि (पोत्रम्) पवित्रकारम् (यजत्र) दातः (बोधि) जानीहि (प्रयन्तः) प्रकृष्टनियमकर्त्तः (जनितः) उत्पादकः (वसूनाम्) वासाधिकरणानाम् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः परमेश्वरस्य धार्मिकाणां विदुषां च सहायेन पवित्रतां सम्पाद्य सर्वाणि श्रेष्ठानि प्राप्तव्यानि ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (यजत्र) दाता ! (वह्निः) सुखों को प्राप्त करनेवाले तू (इह) इस संसार में (देवैः) विद्वानों के साथ (सत्सि) सभा में (प्रजावता) प्रजा की सम्मति के अनुकूल (वचसा) वचनों से (बोधि) बोध कराता है, जिससे (होत्रम्) हवन करने योग्य (च) और (पोत्रम्) पवित्र करनेवाले वस्तुओं को (उत) भी (नि) निरन्तर (वेषि) प्राप्त होता है, (जनितः) सुखोत्पन्न करनेवाले (प्रयन्तः) प्रयत्न से तू जैसे (वसूनाम्) पृथिव्यादि पदार्थों को जाननेवाला है, वैसे मैं (आसा) मुख से तेरी (च) अन्य विद्वानों की भी (आहुवे) स्तुति करता हूँ ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य परमेश्वर और धार्मिक विद्वानों के सहाय और संग से शुद्धि को प्राप्त होकर सब श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त हों ॥ ४ ॥

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    विषय

    विकास - प्रापक ज्ञानवचन

    पदार्थ

    १. हे (यजत्र) = यज्ञों के द्वारा त्राण करनेवाले प्रभो ! मैं (आसा) = मुख से (हुवे) = आपकी आराधना करता हूँ कि आप (प्रजावता वचसा) = [प्र+जन् = प्रादुर्भाव] प्रकृष्ट विकासवाले इन वेद के वचनों से (वहः) = हमें सब सुख प्राप्त करानेवाले हैं । वेद - मन्त्रों में दिया गया ज्ञान हमारे विकास का कारण बनता है और हमें सब सुखों को प्राप्त कराता हुआ मोक्ष - सुख तक ले चलता है । २. हे प्रभो ! आप (देवैः) = सब दिव्यगुणों के साथ (निसत्सि) = हमारे हृदयों में विराजमान होते हैं । हमारा हृदय प्रभु का निवासस्थान बनता है तो वहाँ सब अन्धकार का लोप होकर अदिव्यभावों का भी अन्त हो जाता है । ३. (च) = और हे प्रभो ! आप (होत्रम्) = होता से किये जानेवाले कार्य को, अर्थात् सदा देकर बचे हुए यज्ञशेष के सेवन की वृत्ति को (वेषि) = हमें प्राप्त कराते हैं (उत) = और (पोत्रम्) = पोता से किये जानेवाले शोधनात्मक कार्य को आप हमें प्राप्त कराते हैं । आपकी उपासना से हम अपने जीवन को शुद्ध करनेवाले होते हैं । ४. हे (वसूनाम्) = सब उत्तम पदार्थों के (प्रयन्तः) = प्रकृष्ट नियमन करनेवाले तथा (जनितः) = उत्पादन करनेवाले प्रभो ! आप (बोधि) = [अस्मान् बोधय] हमें ज्ञानयुक्त कीजिए । इस ज्ञान के द्वारा हम वसुओं को प्राप्त करनेवाले हों और उनका ठीक प्रयोग करते हुए जीवन को उत्कृष्ट बनाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ज्ञान की वाणियों से हमें मोक्षसुख तक ले - चलते हैं, दिव्यगुणों के साथ हमारे हृदय में आसीन होते हैं । वे धनों के उत्पादक व दाता हैं ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे ( प्रयन्तः ) उत्तम नियन्त्रण करने हारे ! हे ( वसूनाम् जनितः ) समस्त लोकों और बसने वाली प्रजाओं के पिता के समान पालक ! हे ( यजत्र ) सबको दान देने हारे, सबको संगति करने और पूजने योग्य ! तू ( इह ) इस राष्ट्र में इस मुख्य पद पर ( देवेः ) विद्वानों और वीरों के साथ और (प्रजावता वचसा) प्रजा के संमति से युक्त वाणी,व्यवस्था शास्त्र से (बोधि) ज्ञानवान् के साथ ( वह्निः ) समस्त शासनभार को अपने कन्धों पर उठाकर (निससि) नियमपूर्वक राज्यासन पर विराजमान हो । मैं ( आसा ) मुख से ( हुवे ) तेरी स्तुति करता और तुझे उपदेश करता या तुझे राजा स्वीकार करूं । हे विद्वन् ! राजन् ! तू ( होत्रम् ) प्रजा से त्याग की हुई कर आदि सामग्री, (उत) और (पोत्रम्) दुष्टों को दमन करके राष्ट्र को बुरे पुरुषों से स्वच्छ पवित्र करने के कार्य को (वेषि) प्राप्त कर, उन साधनों वा पदार्थों को प्राप्त कर । अथवा हे विद्वन् तू ( होत्रम् ) उत्तम खाद्य और ( पोत्रं ) पवित्र पदार्थ ( वेषि ) खा । परमेश्वर पक्ष में—ईश्वर प्रजा की हितकारी वाणी वेद से सब ज्ञान और विश्व को धारण करता और सब दिव्य पदार्थ अग्नि आदि पदार्थों के साथ व्यापक है । मैं उसकी मुख से या मुख्य रूप से स्तुति करूं । वह ग्राह्य और पावन तेज को धारता है और वह सर्वोपास्य, सर्वनियन्ता, सर्वोत्पादक होकर सबको ज्ञान प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-५ गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निदेवता । छन्दः—१, ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ १-५ धैवतः स्वरः ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे यजत्र ! यः वह्निःत्वम् इह देवैः सह{च} सत्सि प्रजावता वचसा बोधि यतः होत्रम् उत पोत्रं {च} नि वेषि। हे यजत्र ! प्रयन्तः यथा त्वं {जनितः} वसूनां वेत्ता असि तथा अहम् आसा त्वां हुवे ॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे यजत्र (दातः)=देनेवाले! (यः)=जो, (वह्निः) सुखानां प्रापकः=सुखों को प्राप्त करानेवाले, (त्वम्)=तुम, (इह) अस्मिन् संसारे=इस संसार में, (देवैः) दिव्यगुणैर्विद्वद्भिर्वा=दिव्य गुणों या विद्वानों के, (सह)=साथ, {च} पुनरर्थे=बार-बार, (सत्सि) सभायाम्=सभा में, (प्रजावता) प्रशस्ता प्रजा विद्यते यस्मिँस्तेन=उत्कृष्ट सन्तानोंवाले, (वचसा) वचनेन=वाणी से, (बोधि) जानीहि=जानते हो, (यतः)=क्योंकि, (होत्रम्) हवनीयं वस्तु=हवन किये जाने योग्य वस्तु, (उत) अपि=भी, (पोत्रम्) पवित्रकारम्= पवित्र करनेवाली, {च} समुच्चये=और, (नि) नितराम् =अच्छे प्रकार से, (वेषि) व्याप्नोषि= होती है। , हे (यजत्र) दातः= देनेवाले! (प्रयन्तः) प्रकृष्टनियमकर्त्तः=उत्कृष्ट नियमों को बनानेवाले, (यथा)=जैसे, (त्वम्)=तुम, {जनितः} उत्पादकः= उत्पादक हो, (वसूनाम्) वासाधिकरणानाम्=निवास करनेवालों के स्थानों के, (वेत्ता)= जानकार, (असि)=हो, (तथा)=वैसे ही, (अहम्)=मैं, (आसा) अस्यन्ते वर्णा येन तेन मुखेन=शब्दों को कहनेवाले मुख से, (त्वाम्)=तुम्हारी, (हुवे) स्तुवे= स्तुति करता हूँ ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा परमेश्वर और धार्मिक विद्वानों की सहायता से पवित्रता को क्रियान्वित करके सब श्रेष्ठ वस्तुओं को प्राप्त करना चहिए ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (दातः) देनेवाले! (यः) जो (वह्निः) सुखों को प्राप्त करानेवाले (त्वम्) तुम, (इह) इस संसार में (देवैः) दिव्य गुणों या विद्वानों के (सह) साथ {च} बार-बार (सत्सि) सभा में (प्रजावता) उत्कृष्ट सन्तानोंवालों को (वचसा) वाणी से (बोधि) जानते हो। (यतः) क्योंकि (होत्रम्) हवन किये जाने योग्य वस्तु (उत) भी (पोत्रम्) पवित्र करनेवाली {च} और (नि) निरन्तर (वेषि) व्याप्त होती है। हे (यजत्रः) देनेवाले! (प्रयन्तः) उत्कृष्ट नियमों को बनानेवाले, (यथा) जैसे (त्वम्) तुम {जनितः} उत्पादक हो और (वसूनाम्) निवास करनेवालों के स्थानों के (वेत्ता) जानकार (असि) हो। (तथा) वैसे ही (अहम्) मैं (आसा) शब्दों को कहनेवाले मुख से (त्वाम्) तुम्हारी (हुवे) स्तुति करता हूँ ॥४॥

    संस्कृत भाग

    प्र॒जाव॑ता । वच॑सा । वह्निः॑ । आ॒सा । आ । च॒ । हु॒वे । नि । च॒ । स॒त्सि॒ । इ॒ह । दे॒वैः । वेषि॑ । हो॒त्रम् । उ॒त । पो॒त्रम् । य॒ज॒त्र॒ । बो॒धि । प्र॒ऽय॒न्तः॒ । ज॒नि॒तः॒ । वसू॑नाम् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः परमेश्वरस्य धार्मिकाणां विदुषां च सहायेन पवित्रतां सम्पाद्य सर्वाणि श्रेष्ठानि प्राप्तव्यानि ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी परमेश्वर व धार्मिक विद्वानांच्या साह्याने व संगतीने शुद्ध (पवित्र) बनून सर्व श्रेष्ठ वस्तू प्राप्त कराव्यात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, power of yajna and harbinger of joy and prosperity, creative force of nature in yajna, voracious consumer of input oblations and creator of a thousandfold wealth and energies of life and prana, I invoke you with holy words of social import for the sake of all my people. Come to the yajna with blessings of divine brilliancies and sit on the vedi. Front leader as you are, creator of wealth as you are for the hearth and home of people, spirit of yajna as you are, bring us the holiest sanctifying materials for our life of yajna and enlighten us on the art of advancement and progress.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught further in the fourth Mantra

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O venerable learned person, who are conveyer of happiness, come here in this assembly and take your seat with other enlightened men of divine virtues. Instruct us with good and inspiring words for the progeny. I invoke you, as you purify us and make proper use of the articles of homa being our officiating priest. O noble controller, as you are repository and generator of riches (of wisdom and knowledge etc.) I praise you with my mouth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वह्निः) सुखानां प्रापक = The conveyer of happiness. (प्रयन्त:) प्रकृष्टनियमकर्तः = Good controller. (पोत्रम्) पवित्रकारकम् = Purifying.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should attain all means of good happiness with the help of God and righteous learned persons.

    Translator's Notes

    वह प्रापणे यमु-उपरमे पू-पवने |

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    Subject of the mantra

    Then, how should the scholar be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (dātaḥ) =provider, (yaḥ) =that, (vahniḥ)= bringer of happiness, (tvam) =you, (iha) =in this world, (devaiḥ)=of divine qualities or scholars, (saha) =with, {ca} =again and again, (satsi) =in the assembly, (prajāvatā) =those who have excellent progenies, (vacasā) =through speech, (bodhi) =know, (yataḥ) =because, (hotram)=substances worthy of being offered in yajnas, (uta) =also, (potram) =purifying, {ca} =and, (ni) =always, (veṣi)=pervading. He=O! (yajatraḥ)=provider, (prayantaḥ) =maker of excellent rules, (yathā) =like, (tvam) =you, {janitaḥ} = are productive and, (vasūnām)=of about the places of residence, (vettā) =knowledgeable, (asi) =are, (tathā) =similarly, (aham) =I, (āsā) =with the mouth that speaks words, (tvām) =your, (huve) =praise.

    English Translation (K.K.V.)

    O provider! You who are the bringer of happiness, in this world you know by speech those who have divine qualities or those who have excellent progenies in the assembly with scholars again and again. Because the substances, worthy of being offered in yajnas are also purifying and always pervading. O provider! Maker of excellent rules, as you are productive and knowledgeable about the places of residence. Similarly, I praise you with the mouth that speaks words.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. All the best things should be achieved by humans by practicing purity with the help of God and righteous scholars

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