ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 76/ मन्त्र 3
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र सु विश्वा॑न्र॒क्षसो॒ धक्ष्य॑ग्ने॒ भवा॑ य॒ज्ञाना॑मभिशस्ति॒पावा॑। अथा व॑ह॒ सोम॑पतिं॒ हरि॑भ्यामाति॒थ्यम॑स्मै चकृमा सु॒दाव्ने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सु । विश्वा॑न् । र॒क्षसः॑ । धक्षि॑ । अ॒ग्ने॒ । भव॑ । य॒ज्ञाना॑म् । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपावा॑ । अथ॑ । आ । व॒ह॒ । सोम॑ऽपतिम् । हरि॑ऽभ्याम् । आ॒ति॒थ्यम् । अ॒स्मै॒ । च॒कृ॒म॒ । सु॒ऽदाव्ने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सु विश्वान्रक्षसो धक्ष्यग्ने भवा यज्ञानामभिशस्तिपावा। अथा वह सोमपतिं हरिभ्यामातिथ्यमस्मै चकृमा सुदाव्ने ॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सु। विश्वान्। रक्षसः। धक्षि। अग्ने। भव। यज्ञानाम्। अभिशस्तिऽपावा। अथ। आ। वह। सोमऽपतिम्। हरिऽभ्याम्। आतिथ्यम्। अस्मै। चकृम। सुऽदाव्ने ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 76; मन्त्र » 3
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यतस्त्वं विश्वान् रक्षसः प्रधक्षि तस्मादेव यज्ञानामभिशस्तिपावा भव। यथा सूर्यो हरिभ्यां सोमपतिं वहति तथैश्वर्यमावहाऽथातोऽस्मै सुदाव्ने तुभ्यमातिथ्यं चकृम ॥ ३ ॥
पदार्थः
(प्र) प्रकृष्टे (सु) सुष्ठु (विश्वान्) सर्वान् (रक्षसः) दुष्टान् मनुष्यान् दोषान् वा। अत्र लिङ्गव्यत्ययः। (धक्षि) दहसि। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (अग्ने) दुष्टप्रशासक सभाध्यक्ष (भव) (यज्ञानाम्) विज्ञानक्रियाशिल्पसाधकानाम् (अभिशस्तिपावा) योऽभिशस्तेर्हिंसायाः पावा रक्षकः सः (अथ) आनन्तर्ये (आ) अभितः (वह) प्राप्नुहि (सोमपतिम्) ऐश्वर्याणां स्वामिनम् (हरिभ्याम्) धारणाकर्षणाभ्याम् (आतिथ्यम्) अतिथेः कर्म (अस्मै) (चकृम) कुर्याम (सुदाव्ने) विद्याविनयसुशिक्षाराज्यधनानां सुष्ठु दात्रे ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण जगति प्राणिभ्यः सर्वे पदार्था दत्तास्तथा मनुष्यैर्यो विद्यासुशिक्षे दद्यात्तस्यैव सत्कारः कर्त्तव्यो नेतरस्य ॥ ३ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) दुष्टों को शिक्षा करनेवाले सभाध्यक्ष ! जिस प्रकार आप (विश्वान्) सब (रक्षसः) दुष्ट मनुष्यों वा दोषों का (प्र) अच्छे प्रकार (धक्षि) नाश करते हैं, इसी कारण (यज्ञानाम्) जो जानने योग्य कारीगरी है उनके साधकों की (अभिशस्तिपावा) हिंसा से रक्षा करनेवाले (सु) अच्छे प्रकार (भव) हूजिये, जैसे सूर्य्य (हरिभ्याम्) धारण और आकर्षण से सब सुखों को प्राप्त करता है, वैसे (सोमपतिम्) ऐश्वर्यों के स्वामी को (आवह) प्राप्त हूजिये, (अथ) इसके पीछे (अस्मै) इस (सुदाव्ने) विद्या विज्ञान अच्छी शिक्षा राज्यादि धनों के देनेवाले आपके लिये हम लोग (आतिथ्यम्) सत्कार (चकृम) करते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ
यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर ने जगत् में प्राणियों के वास्ते सब पदार्थ दिये हैं, वैसे जो मनुष्य उत्तम विद्या और शिक्षा देवे उसीका सत्कार करें, अन्य का नहीं ॥ ३ ॥
विषय
रक्षोविध्वंस [वासना - विनाश] व यज्ञ - रक्षण
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! आप (विश्वान् रक्षसः) = सब राक्षसवृत्तियों को (प्रसुधक्षि) = अच्छी प्रकार जला देते हैं । आपकी कृपा से मेरा मन राक्षसी वृत्तियों से रहित व पवित्र हो जाता है । २. आप (यज्ञानाम्) = सब उत्तम कर्मों को (अभिशस्तिपावा) = घात - प्रतिघात व विनाश से बचानेवाले (भव) = होते हैं । प्रभुकृपा से ही सब उत्तम कर्म पूर्ण होते हैं । ३. हे जीव ! तू (अथ) = अब (सोमपतिम्) = तेरे सोम [वीर्यशक्ति] की रक्षा करनेवाले इस प्रभु को (हरिभ्याम्) = ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के द्वारा (आवह) = अपने हृदयदेश में प्राप्त कर । ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति में लगाये रखना और कर्मन्द्रियों से यज्ञादि में प्रवृत्त रहना ही प्रभु - प्राप्ति का मार्ग है । (अस्मै) = इस (सुदाव्ने) = सब उत्तम वस्तुओं के देनेवाले प्रभु के लिए (आतिथ्यम्) = आतिथ्य को (चकृमा) = करते हैं । प्रभु को हम हृदय में आसीन करें और इस प्रभु का उचित आतिथ्य करें । प्रभु का सर्वोत्तम आतिथ्य यही है कि अपने को पवित्र बनाएँ । हमारी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियाँ अपने - अपने व्यापार में लगी रहें । प्रभु - प्रदत्त वस्तुओं का सदुपयोग ही प्रभु का सच्चा आदर है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमारी वासनाओं का विनाश करते हैं और हमारे यज्ञों को निर्विघ्न पूर्ण किया करते हैं ।
विशेष / सूचना
नोट - विश्वामित्र के यज्ञ का रक्षण राम ही तो करते हैं । इस रक्षण के लिए वे मारीच व सुबाहु नामक राक्षसों का विध्वंस करते हैं ।
विषय
missing
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! राजन् ! परमेश्वर ! तू ( विश्वान् रक्षसः ) समस्त दुष्ट मनुष्यों और बुरे दोषों को ( प्र सु धक्षि ) अच्छी प्रकार भस्म कर, उनको जला डाल और ( यज्ञानाम् ) दान शील पुरुषों, उत्तम कर्मों और परस्पर के सत्संगों को ( अभिशस्तिपावा ) निन्दा, घात प्रतिघात, या विनाश, या विच्छेदन होने से बचाने वाला (भव) हो। और ( हरिभ्याम् ) धारण और आकर्षण से युक्त ( सोमपत्तिम् ) सूर्य के समान दो अश्वों से युक्त, या दो प्रमुख विद्वानों सहित ( सोमपतिम् ) ऐश्वर्य युक्त राष्ट्रपति को (वह) प्राप्त कर । ( सुदान ) सुखों और उत्तम ऐश्वर्यों के देने वाले का हम ( आतिथ्यम् ) आतिथ्य सत्कार (चक्रम) करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-५ गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निदेवता । छन्दः—१, ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥ १-५ धैवतः स्वरः ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे अग्ने ! यतः त्वं {सु} विश्वान् रक्षसः प्र धक्षि तस्मात् एव यज्ञानाम् अभिशस्तिपावा भव। यथा सूर्यः हरिभ्यां सोमपतिं वहति तथा ऐश्वर्यम् आ वह अथ अतः अस्मै सु दाव्ने तुभ्यम् आतिथ्यं चकृम ॥३॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (अग्ने) दुष्टप्रशासक सभाध्यक्ष= दुष्टों पर प्रशासन करनेवाले सभा के अध्यक्ष ! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्) =तुम, {सु} सुष्ठु=अच्छे प्रकार से, (विश्वान्) सर्वान्=समस्त, (रक्षसः) दुष्टान् मनुष्यान् दोषान् वा=दुष्ट मनुष्यों या उनके दोषों को, (प्र) प्रकृष्टे= अच्छे प्रकार से, (धक्षि) दहसि=नष्ट कर देते हो, (तस्मात्)=इसलिये, (एव)=ही, (यज्ञानाम्) विज्ञानक्रियाशिल्पसाधकानाम्= विशेष ज्ञान व क्रिया और शिल्प क्रिया के साधकों के, (अभिशस्तिपावा) योऽभिशस्तेर्हिंसायाः पावा रक्षकः सः= हर ओर से चोट और हिंसा से रक्षा करनेवाले, (भव)=होओ, (यथा)=जैसे, (सूर्यः)= सूर्य, (हरिभ्याम्) धारणाकर्षणाभ्याम्=धारण करने और आकर्षण शक्ति से, (सोमपतिम्) ऐश्वर्याणां स्वामिनम्=ऐश्वर्यों के स्वामी को, (वहति)=संभालता है, (तथा)=वैसे ही, (ऐश्वर्यम्)= ऐश्वर्य को, (आ) अभितः=हर ओर से, (वह) प्राप्नुहि=प्राप्त हूजिये, (अथ) आनन्तर्ये=इसके पश्चात्, (अस्मै)=इसके लिये, (सुदाव्ने) विद्याविनयसुशिक्षाराज्यधनानां सुष्ठु दात्रे= विद्या, विनय, सुशिक्षा और राज्य रूपी धनों को उत्तम रूप से देनेवाले, (तुभ्यम्)=तुम्हारे लिये, (आतिथ्यम्) अतिथेः कर्म=अतिथि सेवा के कार्य को, (चकृम) कुर्याम=हम करते हैं ॥३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- यहाँ वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर ने जगत् में प्राणियों के वास्ते सब पदार्थ दिये हैं, वैसे जो मनुष्य उत्तम विद्या और शिक्षा देवे उसीका सत्कार करें, अन्य का नहीं ॥३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (अग्ने) दुष्टों पर प्रशासन करनेवाले सभा के अध्यक्ष ! (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम {सु} अच्छे प्रकार से (विश्वान्) समस्त (रक्षसः) दुष्ट मनुष्यों या उनके दोषों को (प्र) अच्छे प्रकार से (धक्षि) नष्ट कर देते हो। (तस्मात्) इसलिये (एव) ही (यज्ञानाम्) विशेष ज्ञान व क्रिया और शिल्प क्रिया के साधकों के (अभिशस्तिपावा) हर ओर से चोट और हिंसा से रक्षा करनेवाले (भव) होओ। (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य (हरिभ्याम्) धारण करने और आकर्षण शक्ति से (सोमपतिम्) ऐश्वर्यों के स्वामी को (वहति) संभालता है, (तथा) वैसे ही (ऐश्वर्यम्) ऐश्वर्य को (आ) हर ओर से (वह) प्राप्त हूजिये। (अथ) इसके पश्चात्, (अस्मै) इसके लिये (सुदाव्ने) विद्या, विनय, सुशिक्षा और राज्य रूपी धनों को उत्तम रूप से देनेवाले (तुभ्यम्) तुम्हारे लिये (आतिथ्यम्) अतिथि सेवा के कार्य को (चकृम) हम करते हैं ॥३॥
संस्कृत भाग
प्र । सु । विश्वा॑न् । र॒क्षसः॑ । धक्षि॑ । अ॒ग्ने॒ । भव॑ । य॒ज्ञाना॑म् । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपावा॑ । अथ॑ । आ । व॒ह॒ । सोम॑ऽपतिम् । हरि॑ऽभ्याम् । आ॒ति॒थ्यम् । अ॒स्मै॒ । च॒कृ॒म॒ । सु॒ऽदाव्ने॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण जगति प्राणिभ्यः सर्वे पदार्था दत्तास्तथा मनुष्यैर्यो विद्यासुशिक्षे दद्यात्तस्यैव सत्कारः कर्त्तव्यो नेतरस्य ॥३॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ईश्वराने जगातील प्राण्यांसाठी सर्व पदार्थ दिलेले आहेत. तसे जो माणूस उत्तम विद्या व शिक्षण देतो त्याचाच सत्कार करावा, इतराचा नाही. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light, power and justice, bum off the evil to extinction. Be the saviour and protector of yajnas of common endeavour from violence. Bring in Indra, lord of energy and the joy of soma. And we shall extend the heartiest welcome and hospitality to him.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is taught further in the third mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly, punisher of the wicked, as you burn all wicked persons or evils, therefore you are protector from all violence of the Yajnas which accomplish all knowledge, arts and industries etc. As the sun leads by his power of upholding and attraction to the Lord of all wealth, in the same manner, you should lead men to prosperity. Therefore we honour you who are the giver of knowledge, humility, good education and kingdom of the State.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रक्षम:) दुष्टान् मनुष्यान् दोषान् वा । = To wicked men or evils. (अग्ने) दुष्टप्रशासक सभाध्यक्ष | = O President of the Assembly, ruler or punisher of the wicked. (हरिभ्याम् ) धारणाकर्षणाभ्याम् । = By the powers of upholding and attracting. (सुदाने) विद्याविनयसुशिक्षाराज्यधनानां दात्रे । = Giver of wisdom, humility, good education and the wealth of the State.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As God has given all substances for the welfare of all beings, in the same manner, men should honour only him who gives wisdom and good education to them and not to others.
Subject of the mantra
Then, what kind of scholar should he be?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (agne) =President of the Assembly who rules over the wicked, (yataḥ) =because, (tvam) =you, {su} = in a good way, (viśvān) =all, (rakṣasaḥ) =the evil people or their blemishes, (pra) =well, (dhakṣi) =destroy, (tasmāt) =therefore, (eva) =only, (yajñānām) =of special knowledge, activities and crafts, (abhiśastipāvā)=protect from injury and violence from all sides, (bhava)=be, (yathā) =like, (sūryaḥ) =Sun, (haribhyām)=by power of holding and attraction, (somapatim)=to the possessor of opulences, (vahati) =upholds, (tathā) =similarly, (aiśvaryam) =to opulences, (ā) =from every side, (vaha) =get attained, (atha) =afterwards, (asmai) =for it, (sudāvne)=being the best giver of wealth in the form of knowledge, humility, good education and kingdom, (tubhyam) =for you, (ātithyam)=to work of humility, (cakṛma)= we do the work.
English Translation (K.K.V.)
O President of the Assembly who rules over the wicked! Because, you destroy in a good way all the evil people or their blemishes. Therefore, protect yourself from injury and violence from all sides, from the seekers of special knowledge, activities and crafts. Just as the Sun controls the possessor of opulence with its power of holding and attraction, similarly, attain non-enemity from all sides. After this, for this we do the work of guest service for you, being the best giver of wealth in the form of knowledge, humility, good education and kingdom.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as God has given all the things for the living beings in the world, similarly the person who imparts good knowledge and education should be respected and not anyone else.
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