ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
एमे॑नं सृजता सु॒ते म॒न्दिमिन्द्रा॑य म॒न्दिने॑। चक्रिं॒ विश्वा॑नि॒ चक्र॑ये॥
स्वर सहित पद पाठआ । ई॒म् । ए॒न॒म् । सृ॒ज॒त॒ । सु॒ते । म॒न्दिम् । इन्द्रा॑य । म॒न्दिने॑ । चक्रि॑म् । विश्वा॑नि । चक्र॑ये ॥
स्वर रहित मन्त्र
एमेनं सृजता सुते मन्दिमिन्द्राय मन्दिने। चक्रिं विश्वानि चक्रये॥
स्वर रहित पद पाठआ। ईम्। एनम्। सृजत। सुते। मन्दिम्। इन्द्राय। मन्दिने। चक्रिम्। विश्वानि। चक्रये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पविद्यानुषङ्गिणी अग्निजले उपदिश्येते।
अन्वयः
हे विद्वांसः ! सुत उत्पन्नेऽस्मिन्पदार्थसमूहे जगति विश्वानि कार्य्याणि कर्त्तुं मन्दिन इन्द्राय जीवाय मन्दिं चक्रये चक्रिमासृजत॥२॥
पदार्थः
(आ) क्रियार्थे (ईम्) जलमग्निं वा। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) ईमिति पदनामसु च। (निघं०४.२) अनेन शिल्पविद्यासाधकतमावेतौ गृह्येते। (एनम्) अर्थद्वयम् (सृजत) विविधतया प्रकाशयत सम्पादयत वा (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन्पदार्थसमूहे जगति (मन्दिम्) मन्दन्ति हर्षन्त्यस्मिँस्तम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यमिच्छवे जीवाय (मन्दिने) मन्दितुं मन्दयितुं शीलवते (चक्रिम्) शिल्पविद्याक्रियासाधनेषु यानानां शीघ्रचालनस्वभावम् (विश्वानि) सर्वाणि वस्तूनि निष्पादयितुम् (चक्रये) पुरुषार्थकरणशीलाय॥२॥
भावार्थः
विद्वद्भिरस्मिन् जगति पृथिवीमारभ्येश्वरपर्य्यन्तानां पदार्थानां विज्ञानप्रचारेण सर्वान् मनुष्यान् विद्यया क्रियावतः सम्पाद्य सर्वाणि सुखानि सदा सम्पादनीयानि॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
शिल्पविद्या के उत्तम साधन जल और अग्नि का वर्णन अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
हे विद्वानो ! (सुते) उत्पन्न हुए इस संसार में (विश्वानि) सब सुखों के उत्पन्न होने के अर्थ (मन्दिने) ऐश्वर्यप्राप्ति की इच्छा करने तथा (मन्दिम्) आनन्द बढ़ानेवाले (चक्रये) पुरुषार्थ करने के स्वभाव और (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य होनेवाले मनुष्य के लिये (चक्रिम्) शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए साधनों में (एनम्) इन (ईम्) जल और अग्नि को (आसृजत) अति प्रकाशित करो॥२॥
भावार्थ
विद्वानों को उचित है कि इस संसार में पृथिवी से लेके ईश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के विशेषज्ञान उत्तम शिल्प विद्या से सब मनुष्यों को उत्तम-उत्तम क्रिया सिखाकर सब सुखों का प्रकाश करना चाहिये॥२॥
विषय
शिल्पविद्या के उत्तम साधन जल और अग्नि का वर्णन इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्वांसः ! सुत उत्पन्ने अस्मिन् पदार्थसमूहे जगति विश्वानि कार्य्याणि कर्त्तुं मन्दिन इन्द्राय जीवाय मन्दिं चक्रये चक्रिम आसृजत॥२॥
पदार्थ
हे (विद्वांसः)=विद्वान् लोगों, (सुत) उत्पन्नेऽस्मिन्पदार्थसमूहे जगति=उत्पन्न हुए जगत् के इस पदार्थ समूह में, (उत्पन्ने)=उत्पन्न हुए, (अस्मिन्)=इस, (पदार्थसमूहे)=इस पदार्थ समूह में, (जगति)=जगत् में, (विश्वानि)=समस्त, (कार्य्याणि)=कार्य, (कर्त्तुम्)=करने के लिये, (मन्दिन) मन्दितुं मन्दयितुं शीलवते=ऐश्वर्यप्राप्ति की इच्छा करने, (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यमिच्छवे जीवाय=परम ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले जीव के लिये, (जीवाय)=जीव के लिये, (मन्दिम्) मन्दति हर्षन्त्यस्मिँस्तम्=आनन्द बढ़ाने वाला, (चक्रये) पुरुषार्थकरणशीलाय=पुरुषार्थ करने वाले के लिये, (चक्रिम) शिल्पविद्याक्रियासाधनेषु यानानां शीघ्रचालनस्वभावम्=शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए साधनों में, (आ) क्रियार्थे=हर ओर से, (सृजत) विविधतया प्रकाशयत सम्पादयत वा= विविध प्रकार से प्रकाशित या सम्पादित करता है॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
विद्वानों को उचित है कि इस संसार में पृथिवी से लेके ईश्वरपर्य्यन्त पदार्थों के विशेषज्ञान उत्तम शिल्प विद्या से सब मनुष्यों को उत्तम-उत्तम क्रिया सिखाकर सब सुखों का प्रकाश करना चाहिये॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्वांसः) विद्वान् लोगों! (सुत) उत्पन्न हुए इस पदार्थ समूह जगत् में (अस्मिन्) इस (पदार्थसमूहे) पदार्थ समूह में, (जगति) जगत् में (विश्वानि) समस्त (कार्य्याणि) कार्य (कर्त्तुम्) करने के लिये (मन्दिन) ऐश्वर्यप्राप्ति की इच्छा करने (मन्दिम्) आनन्द बढ़ाने वाले (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले जीव के लिये (चक्रये) पुरुषार्थ करने वाले के लिये और (चक्रिम) शिल्पविद्या करने की सिद्धि में साधन अर्थात् जल और अग्नि यानों के शीघ्र चलने के स्वभाव के लिए (आसृजत) हर ओर से, विविध् प्रकार से सम्पादित करता है॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) क्रियार्थे (ईम्) जलमग्निं वा। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) ईमिति पदनामसु च। (निघं०४.२) अनेन शिल्पविद्यासाधकतमावेतौ गृह्येते। (एनम्) अर्थद्वयम् (सृजत) विविधतया प्रकाशयत सम्पादयत वा (सुते) उत्पन्नेऽस्मिन्पदार्थसमूहे जगति (मन्दिम्) मन्दन्ति हर्षन्त्यस्मिँस्तम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यमिच्छवे जीवाय (मन्दिने) मन्दितुं मन्दयितुं शीलवते (चक्रिम्) शिल्पविद्याक्रियासाधनेषु यानानां शीघ्रचालनस्वभावम् (विश्वानि) सर्वाणि वस्तूनि निष्पादयितुम् (चक्रये) पुरुषार्थकरणशीलाय॥२॥
विषयः- अथ शिल्पविद्यानुषङ्गिणी अग्निजले उपदिश्येते।
अन्वय- हे विद्वांसः ! सुत उत्पन्नेऽस्मिन्पदार्थसमूहे जगति विश्वानि कार्य्याणि कर्त्तुं मन्दिन इन्द्राय जीवाय मन्दिं चक्रये चक्रिमासृजत॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- विद्वद्भिरस्मिन् जगति पृथिवीमारभ्येश्वरपर्य्यन्तानां पदार्थानां विज्ञानप्रचारेण सर्वान् मनुष्यान् विद्यया क्रियावतः सम्पाद्य सर्वाणि सुखानि सदा सम्पादनीयानि॥२॥
विषय
मन्दि चक्रि [हर्ष व क्रियाशीलता]
पदार्थ
१. (ईम्) - निश्चय से (सुते) - उत्पन्न होने पर (एनम्) - इस सोम को (आसृजता) [पुनरभ्युन्नयत - सा०] - सारे शरीर में उन्नयन [ले - जाने] का प्रयत्न करो । जीव का मूलभूत कर्तव्य है कि वह आहार से रसादि क्रम से सप्तम स्थान में उत्पन्न हुए इस सोम का शरीर में ही समवाय करने का प्रयत्न करे । यही संयम है , यही ब्रह्मचर्य है ।
२. यह सोम (मन्दिने) - [मन्दतेः स्तुतिकर्मणः] स्तुति करनेवाले , स्तवनशील (इन्द्राय) - जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (मन्दिम्) - आनन्द व हर्ष को देनेवाला है । और (विश्वानि) - सब कर्त्तव्यकर्मों को (चक्रये) - करने के स्वभाववाले जीव के लिए (चक्रिम्) - यह क्रियाशीलता को उत्पन्न करनेवाला है ।
३. सोम के रक्षण व शरीर में ही अभ्युन्नयन के दो परिणाम सुव्यक्त हैं - [क] एक तो यह सोम सब रोगों को दूर करके स्वास्थ्य के द्वारा मन को आनन्दयुक्त करता है [मन्दिम्] तथा शक्ति की वृद्धि के द्वारा यह सोम उसे अनथक कार्य करनेवाला बनाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम उत्पन्न सोम का शरीर में ही अभ्युन्नयन करें , यह हमें हर्षित करेगा व क्रियाशील बनाएगा ।
विषय
जल तत्व की साधना ।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! (ईम् एनं आ सृजत ) इस अग्नितत्त्व और जलतत्त्व को नाना प्रकार से प्रकाशित करो और साधो । ( सुते ) उत्पन्न हो जाने पर ( मन्दिम् ) हर्षदायक ( चक्रिम् ) क्रिया उत्पन्न करने वाले इस अग्नितत्व, विद्युत् को ( विश्वानि ) समस्त कार्यों और पुरुषार्थों के ( चक्रये ) करने हारे ( इन्द्राय ) ऐश्वर्य के इच्छुक जीव के सुख के लिए करो । राजा के पक्ष में —( ईम् एनम् ) इस समस्त ऐश्वर्यमय, ( चक्रिम् ) सबको नाना सम्पदाओं से प्रसन्न और तृप्त करने वाले ( चक्रिम् ) सब कार्यों के करनेवाले राष्ट्र चक्र को (सुते) अभिषेककाल में ( मन्दये विश्वानि चक्रये ) सबके प्रसन्न करनेवाले सब राष्ट्र कार्यों के सम्पादन में समर्थ पुरुष के हाथों ( आ सृजत ) प्रदान करो । अध्यात्म में—समस्त विश्व को बसानेवाला आनन्दस्वरूप परमेश्वर, इन्द्र, मन्दी और चक्री हैं उसको प्रसन्न करने के लिए ज्ञान में मन्द, कर्मकर्त्ता और भोक्ता जीव भी मन्दी और चक्री है । उसको ( आ सृजत ) उस परमेश्वर पर वार दो, न्योछावर कर दो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांनी या जगात पृथ्वीपासून ईश्वरापर्यंत पदार्थांचे विशेष ज्ञान व उत्तम शिल्पविद्येने उत्तम क्रिया सर्व माणसांना शिकवून सर्व सुख निर्माण केले पाहिजे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Scholars of eminence, in this world of Indra’s yajnic creation, come up for the sake of joyous humanity and accomplish all those works of creation and construction which are needed for its prosperity and well-being.
Subject of the mantra
Excellent means of manual skill, water and fire have been described in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He-O! (vidvāṃsaḥ)=scholars, (suta)=born in this material group world, (asmin)=this(padārthasamūhe)=in the substance group, (jagati)=in the world, (viśvāni)=all, (kāryyāṇi)=deeds, (kattum)=to do, (mandina)= increasing delight greatly, (mandim)=enhancing delights, (indrāya)=for living being, (cakraye)=for doing industrious work and, (cakrima)=as a means for accomplishing Architect, in other words for nature of fast movement of vehicles moving through water and fire, (āsṛjata)=perform in all ways.
English Translation (K.K.V.)
O scholars! This material group was created in the world, in this material group, for doing all the work in the world, for a living being who desires the supreme majesty, who increases the pleasure, for the one who makes efforts and means in the accomplishment of manual skills, in other words, water and fire in the accomplishment of doing craftsmanship, i.e. for the nature of the speedy movement of water and fire vehicles, perform in all ways.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
It is appropriate to the scholars in this world to have special knowledge of the things from the earth to God, by teaching all the human beings with the best manual skills, should manifest all the happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Fire and water are described in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons or scientists, in order to accomplish many works, utilize the fire and the the water which are prominent among the means of quick transportation for the soul that gladdens all and being industrious desires to get prosperity in this world consisting of various groups of articles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ईम्) जलम् अग्नि वा ईम् इत्युदकनामसु पठितम् ( निघ० १.१२ ) ईम् इति पदनामसु च अनेकशिल्पविद्यासाधकौ एतौ (जलाग्नी ) गृह्येते (ईम् ) = Water and fire. (इन्द्राय) ऐश्वर्यमिच्छवे जीवाय, इदि-परमैश्वर्ये
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of learned persons to propagate knowledge of all objects from God to earth to the people and thus make them active through the acquisition of knowledge and to attain happiness of all kinds.
Translator's Notes
इन्द्रियमिन्द्रलिंगमिन्द्रदृष्टमिन्द्रसृष्टमिन्द्रजुष्टमिन्द्रदत्तमितिवा (अष्टाध्यायी ५.२.९३ ) In this aphorism of the most prominent Sanskrit Grammatical work named Ashtadhyayi, the etymology of Indriyas or senses is given which clearly shows that by Indra, soul is meant. Therefore it is clearly stated in Kashika. इन्द्र आत्मा i e by Indra-soul is meant and these senses are called Indriyas for, they point out the existence of a conscious soul.
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