ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
सं चो॑दय चि॒त्रम॒र्वाग्राध॑ इन्द्र॒ वरे॑ण्यम्। अस॒दित्ते॑ वि॒भु प्र॒भु॥
स्वर सहित पद पाठसम् । चो॒द॒य॒ । चि॒त्रम् । अ॒र्वाक् । राधः॑ । इ॒न्द्र॒ । वरे॑ण्यम् । अस॑त् । इत् । ते॒ । वि॒ऽभु । प्र॒ऽभु ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं चोदय चित्रमर्वाग्राध इन्द्र वरेण्यम्। असदित्ते विभु प्रभु॥
स्वर रहित पद पाठसम्। चोदय। चित्रम्। अर्वाक्। राधः। इन्द्र। वरेण्यम्। असत्। इत्। ते। विऽभु। प्रऽभु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तस्योपासनेन किं लभ्यते, इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे इन्द्र ! ते तव सृष्टौ यद्यद्वरेण्यं विभु प्रभु चित्रं राधोऽसत् तत्तत्कृपयाऽर्वागस्मदाभिमुख्याय सञ्चोदय॥५॥
पदार्थः
(सम्) सम्यगर्थे। समित्येकीभावं प्राह। (निरु०१.३) (चोदय) प्रेरय प्रापय (चित्रम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रिया विद्यामणिसुवर्णहस्त्यश्वादियोगेनाद्भुतम् (अर्वाक्) प्राप्त्यनन्तरमाभिमुख्येनानन्दकारकम् (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्धनम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (इन्द्र) दयामयसर्वसुखसाधनप्रदेश्वर ! (वरेण्यम्) वर्त्तुमर्हमतिश्रेष्ठम्। वृञ एण्यः। (उणा०३.९९) अनेन ‘वृञ् वरणे’ इत्यस्मादेण्यप्रत्ययः। (असत्) भवेत्। अस धातोर्लेट्प्रयोगः। (इत्) एव (ते) तव (विभु) बहुसुखव्यापकम् (प्रभु) उत्तमप्रभावकारकम्॥५॥
भावार्थः
मनुष्यैरीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च सर्वस्यात्मशरीरसुखाय विद्यैश्वर्य्ययोः प्राप्तिरक्षणोन्नतिसन्मार्गदानानि सदैव संसेव्यानि, यतो दारिद्र्यालस्यप्रभावदुःखाभावेन दिव्या भोगाः सततं वर्धेरन्निति॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर की उपासना से क्या लाभ होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-
पदार्थ
हे (इन्द्र) करुणामय सब सुखों के देनेवाले परमेश्वर ! (ते) आपकी सृष्टि में जो-जो (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ (विभु) उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण (प्रभु) बड़े-बड़े प्रभावों का हेतु (चित्रम्) जिससे श्रेष्ठ विद्या चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध होनेवाला मणि सुवर्ण और हाथी आदि अच्छे-अच्छे अद्भुत पदार्थ होते हैं, ऐसा (राधः) धन (असत्) हो, सो-सो कृपा करके हम लोगों के लिये (सञ्चोदय) प्रेरणा करके प्राप्त कीजिये॥५॥
भावार्थ
मनुष्यों को ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से आत्मा और शरीर के सुख के लिये विद्या और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति वा उनकी रक्षा और उन्नति तथा सत्यमार्ग वा उत्तम दानादि धर्म अच्छी प्रकार से सदैव सेवन करना चाहिये, जिससे दारिद्र्य और आलस्य से उत्पन्न होनेवाले दुःखों का नाश होकर अच्छे-अच्छे भोग करने योग्य पदार्थों की वृद्धि होती रहे॥५॥
विषय
ईश्वर की उपासना से क्या लाभ होता है, सो इस मन्त्र में प्रकाश किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र ! ते तव सृष्टौ यत् यत् वरेण्यं विभु प्रभु चित्रं राधो असत् तत् तत् कृपया अर्वाक् अस्मद् अभिमुख्याय सञ्चोदय॥५॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) दयामयसर्वसुखसाधनप्रदेश्वर !=दयामय और सब सुखों को प्रदान करने वाला परमेश्वर! (ते) तव=आपकी, (सृष्टौ)=सृष्टि में, (यत् यत्)=जो जो, (वरेण्यम्) वर्त्तुमर्हमतिश्रेष्ठम्= अतिश्रेष्ठ, (विभु) बहुसुखव्याप्कम्=उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण, (प्रभु) उत्तमप्रभावकारकम्=बड़े-बड़े प्रभावों का हेतु, (चित्राम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रिया विद्यामणिसुवर्णहस्त्यश्वादियोगेनाद्भुतम्= जिससे श्रेष्ठ विद्या चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध होनेवाला मणि सुवर्ण और हाथी आदि अच्छे-अच्छे अद्भुत पदार्थ होते हैं, ऐसा, (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्धनम्। राध इति धननामसु पठितम्= वह सुख देने वाला धन, जिससे सब सुख प्राप्त होते हैं, (असत्) भवेत्=हो, (तत् तत्)=वो वो, (कृपया)=कृपया, (अर्वाक्) प्राप्त्यनन्तरमाभिमुख्येनानन्दकारकम् = प्राप्ति के बाद आनन्द देने वाले धन, (अस्मद्) हम से, (अभिमुख्याय)=निकट पहुंचने वाले के लिये, (सम्) सम्यगर्थे=अच्छी तरह से, (चोदय)=प्रेरय प्रापय = प्राप्त कराने वाले हों॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से आत्मा और शरीर के सुख के लिये विद्या और ऐश्वर्य्य की प्राप्ति वा उनकी रक्षा और उन्नति तथा सत्यमार्ग वा उत्तम दानादि धर्म अच्छी प्रकार से सदैव सेवन करना चाहिये, जिससे दारिद्र्य और आलस्य से उत्पन्न होनेवाले दुःखों का नाश होकर अच्छे-अच्छे भोग करने योग्य पदार्थों की वृद्धि होती रहे॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) दयामय और सब सुखों को प्रदान करने वाले परमेश्वर! (ते) आपकी (सृष्टौ) सृष्टि में (यत् यत्) जो जो (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ (विभु) उत्तम-उत्तम पदार्थों से पूर्ण (प्रभु) बड़े-बड़े प्रभावों का हेतु है। (चित्राम्) जिससे श्रेष्ठ विद्या चक्रवर्त्ति राज्य से सिद्ध होने वाले मणि सुवर्ण और हाथी आदि अच्छे-अच्छे अद्भुत पदार्थ और (राधः) सुख देने वाला धन, जिससे सब सुख प्राप्त होते हैं, (तत् तत्) वो वो (कृपया) कृपया (अर्वाक्) प्राप्ति के बाद आनन्द देने वाले धन (अस्मद्) हम से (अभिमुख्याय) निकट पहुंचने वाले के लिये (सम्) अच्छी तरह से (चोदय) प्राप्त कराने वाले हों॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सम्) सम्यगर्थे। समित्येकीभावं प्राह। (निरु०१.३) (चोदय) प्रेरय प्रापय (चित्रम्) चक्रवर्त्तिराज्यश्रिया विद्यामणिसुवर्णहस्त्यश्वादियोगेनाद्भुतम् (अर्वाक्) प्राप्त्यनन्तरमाभिमुख्येनानन्दकारकम् (राधः) राध्नुवन्ति सुखानि येन तद्धनम्। राध इति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (इन्द्र) दयामयसर्वसुखसाधनप्रदेश्वर ! (वरेण्यम्) वर्त्तुमर्हमतिश्रेष्ठम्। वृञ एण्यः। (उणा०३.९९) अनेन 'वृञ् वरणे' इत्यस्मादेण्यप्रत्ययः। (असत्) भवेत्। अस धातोर्लेट्प्रयोगः। (इत्) एव (ते) तव (विभु) बहुसुखव्यापकम् (प्रभु) उत्तमप्रभावकारकम्॥५॥
विषयः- तस्योपासनेन किं लभ्यते, इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे इन्द्र ! ते तव सृष्टौ यद्यद्वरेण्यं विभु प्रभु चित्रं राधोऽसत् तत्तत्कृपयाऽर्वागस्मदाभिमुख्याय सञ्चोदय॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च सर्वस्यात्मशरीरसुखाय विद्यैश्वर्य्ययोः प्राप्तिरक्षणोन्नतिसन्मार्गदानानि सदैव संसेव्यानि, यतो दारिद्र्यालस्यप्रभावदुःखाभावेन दिव्या भोगाः सततं वर्धेरन्निति॥५॥
विषय
विभु - प्रभु [पूरक - प्रभावजनक]
पदार्थ
१. गतमन्त्र का कर्मप्रधान स्तोता कर्मों की सिद्धि के लिए धन की याचना करता हुआ कहता है कि हे (इन्द्र) - परमैश्वर्यशाली प्रभो ! आप (अर्वाक्) - हमारी और (चित्रम्) - [चित्र] ज्ञान के वर्धक (राधः) - कार्यों के साधक धन को (संचोदय) - प्रेरित कीजिए । प्रभु - कृपा से हमें धन प्राप्त हो , वह धन हमारे लोकहित के लिए किये जानेवाले कार्यों का साधक हो [राधसिद्धौ] ।
२. (वरेण्यम्) - यह धन सचमुच वरने योग्य हो , श्रेष्ठ हो , श्रेष्ठ साधनों से ही कमाया गया हो ।
३. हे प्रभो ! (ते) - आपकी कृपा से ही वह धन (असत्) - प्राप्त हुआ करता है जोकि (विभु) - आवश्यक भोग्य वस्तुओं को जुटाने के लिए पर्याप्त होता है [भोगाय यावत् पर्याप्तम् - सा०] और (प्रभु) - प्रभावजनक होता है । यह धन तो प्रभो ! (इत) - निश्चय से (ते) - आपका ही है । आपके ही धन से आपकी ही दी हुई शक्तियों से ये सब कार्य हुआ करते हैं , अतः ये सब तो आपके ही हैं , मैं तो निमित्तमात्र हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - हे प्रभो ! हमें वह धन प्राप्त कराइए जो [क] कर्मों का साधक हो [राधः] , [ख] चाहने योग्य हो , असद् उपायों से जिसका अर्जन न हुआ हो , [ग] जो आवश्यक भोग्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाला हो [विभु] , [घ] जो हमारे प्रभाव व सामर्थ्य को बढ़ानेवाला हो [प्रभु] । इस धन से हम लोकहित के कार्यों को सिद्ध करनेवाले बनें ।
विषय
राजा के कर्त्तव्यों का उपदेश । (
भावार्थ
हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् राजन् ! परमेश्वर ! तू ( वरेण्यम् ) वरण करने योग्य, अति श्रेष्ठ (चित्रम्) सञ्चय करने योग्य, चक्रवर्ती राज्य, विद्या, मणि, सुवर्ण, हाथी आदि सम्पत्ति को हमें ( सं चोदय) प्रदान कर । (ते) तेरा (विभु ) व्यापक, सर्वत्र नाना सुखप्रद और ( प्रभु ) उत्तम प्रभावजनक सामर्थ्य ( असत् ) है । इति सप्तदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी ईश्वराचा अनुग्रह व आपला पुरुषार्थ याद्वारे आत्मा व शरीराच्या सुखासाठी विद्या व ऐश्वर्य प्राप्त करावे आणि त्यांचे रक्षण, वृद्धी, सत्यमार्ग व उत्तम दानधर्माचा स्वीकार करावा. त्यामुळे दारिद्र्य व आळशीपणामुळे उत्पन्न होणाऱ्या दुःखाचा नाश होऊन चांगल्या भोग्य पदार्थांची वृद्धी व्हावी. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord of light and glory, creator giver of wondrous beauty, wealth and joy, infinite, mighty and supreme, whatever is worthy of choice in the world of your creation, grant us here and now.
Subject of the mantra
What is the benefit of worshiping God, so has been revealed in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=Kind and providing all delights God, (te)=your, (sṛṣṭau)=in the universe, (yat yat)=which, (vareṇyam)= supreme, (vibhu)=full of excellent materials, (prabhu)=cause of excellent materials, (citrām)=Being accomplished by excellent kingdom gemstone, gold, and elephants et cetera good materials, (rādhaḥ)=wealth which provides delight, (tat tat)=those each, (kṛpayā)=kindly, (arvāk) = wealth giving pleasure after being attained, (asmad) =from us, (abhimukhyāya)=for those reaching near me, (sam)=well, (codaya)=inspiring.
English Translation (K.K.V.)
O kind and providing all delights, God! In the universe, which supreme, full of excellent materials, cause of excellent materials, being accomplished by excellent kingdom gemstone, gold, and elephants et cetera good materials, provide wealth giving pleasure after being attained for having delights. Kindly bless that each wealth may be inspiring well to persons arriving near us.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
For the happiness of soul and body by the grace of God and by their efforts, human beings should always use knowledge and majesty for their protection and progress and the right path or the best charity, which destroys the sorrows arising out of poverty and laziness. Let there be an increase in the good things worth enjoying.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What does one gain by God's contemplation is taught in the next Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God the Giver of all means of true happiness, please grant to us all precious and manifold wonderful riches in the form of knowledge, gold, horses and elephants etc. that are there in Thy Universe, for Power Supreme is only Thine.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should enjoy by the Grace of God and with their own exertion the attainment, protection and development of knowledge and prosperity, so that by casting away all misery due to poverty and indolence, divine enjoyments may ever grow.
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