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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 115 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 115/ मन्त्र 6
    ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    वा॒जिन्त॑माय॒ सह्य॑से सुपित्र्य तृ॒षु च्यवा॑नो॒ अनु॑ जा॒तवे॑दसे । अ॒नु॒द्रे चि॒द्यो धृ॑ष॒ता वरं॑ स॒ते म॒हिन्त॑माय॒ धन्व॒नेद॑विष्य॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒जिन्ऽत॑माय । सह्य॑से । सु॒ऽपि॒त्र्य॒ । तृ॒षु । च्यवा॑नः । अनु॑ । जा॒तऽवे॑दसे । अ॒नु॒द्रे । चि॒त् । यः । धृ॒ष॒ता । वर॑म् । स॒ते । म॒हिन्ऽत॑माय । धन्व॑ना । इत् । अ॒वि॒ष्य॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाजिन्तमाय सह्यसे सुपित्र्य तृषु च्यवानो अनु जातवेदसे । अनुद्रे चिद्यो धृषता वरं सते महिन्तमाय धन्वनेदविष्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वाजिन्ऽतमाय । सह्यसे । सुऽपित्र्य । तृषु । च्यवानः । अनु । जातऽवेदसे । अनुद्रे । चित् । यः । धृषता । वरम् । सते । महिन्ऽतमाय । धन्वना । इत् । अविष्यते ॥ १०.११५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 115; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुपित्र्य) अच्छे पितृभाव के योग्य सत्करणीय परमात्मन् ! (वाजिन्तमाय) अतिबलवान् (सह्यसम्) सबको प्रभावित करनेवाले (जातवेदसे) सब ज्ञान-प्रज्ञानों के आधार (महिन्तमाय) महा महिमावाले (अविष्यते) रक्षक (सते) सदा वर्त्तमान परमात्मा के लिये (तृषु) शीघ्र (अनुच्यवानः) स्तुतियों से तुझ अपने अन्दर अनुगत करता हुआ-बिठाता हुआ वर्तता हूँ (यः) जो तू (अनुद्रे चित्) जलरहित शुष्क देश में संकटस्थल में भी (धृषता) धर्षक नाशक (धन्वना-इत्) धनुष से ही (वरम्) सङ्कट का निवारण करता है ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा पिता के समान सत्करणीय महाबलवान् सब ज्ञान प्रज्ञानों का आगार महामहिमावाला रक्षक सदा वर्त्तमान है तथा जलरहित शुष्क देश में सङ्कट में भी सङ्कटनाशक अपने सामर्थ्य से सङ्कट का निवारण करनेवाला है, उस ऐसे परमात्मा को स्तुतियों द्वारा अपने अन्दर बिठाना धारण करना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    वासना - विजय व प्रभु सामीप्य

    पदार्थ

    [१] हे (सुपित्र्य) = उत्तम माता-पितावाले जीव ! 'प्रभु' ही तेरे पिता हैं, 'वेद' तेरी माता है । इन माता-पिता से तू उत्तम माता-पितावाला है। सो तू उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (तृषु) = शीघ्र ही (अनुच्यवानः) = क्रमशः वासनाओं को अपने से पृथक् करनेवाला बन । जितना-जितना तू वासनाओं से ऊपर उठेगा उतना उतना प्रभु को प्राप्त करनेवाला होगा। उस प्रभु की प्राप्ति के लिए तू वासनाओं को क्षीण कर, जो (वाजिन्तमाय) = सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न हैं, (सह्यसे) = तेरे शत्रुओं का मर्षण करनेवाले हैं। जातवेदसे-जो सर्वज्ञ हैं व सर्वत्र विद्यमान हैं । [२] उस प्रभु के प्राप्ति के लिए तू काम-क्रोध-लोभ को अपने से (च्युत) = करनेवाला हो, (यः) = जो (अनुद्रे चित्) = उदकरहित स्थल में भी, रेगिस्तान में भी (धृषता) = अपने धर्षक बल से (वरम्) = श्रेष्ठ पदार्थों को (सते) = सत् [= विद्यमान ] करनेवाले हैं । (महिन्तमाय) = अत्यन्त महान् व पूज्य हैं और (इत्) = निश्चय से (धन्वनेद्) = 'प्रणव' रूप धनुष के द्वारा अविष्यते हमारे रक्षण की कामनावाले हैं। प्रभु हमें 'प्रणव' [ओ३म् ] रूप धनुष प्राप्त कराते हैं, इस धनुष के द्वारा हम सब वासनाओं को विद्ध करके विनष्ट करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- जितना-जितना हम वासनाओं को जीत पाते हैं उतना उतना प्रभु के समीप होते जाते हैं।

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    विषय

    सर्वोपरि रक्षक बलशाली प्रभु।

    भावार्थ

    हे (सुपित्र्य) उत्तम पिता के पुत्रवत् जीव ! (यः) जो (अनुद्रे चित्) जल से रहित मरुस्थल में भी (घृषता) अपने बड़े अप्रतिम बल से मेघ के समान (वरं) जल के तुल्य श्रेष्ठ सुख प्रदान करता है, उस (वाजिन्-तमाय) सबसे अधिक बलैश्वर्यवान् (सह्यसे) सर्वसहन करने वाले, सर्वोपरि बलशाली, (जातवेदसे) सब उत्पन्न पदार्थों के ज्ञाता, (महिन्तमाय) सबसे महान् (सते) सत्स्वरूप (धन्वना धृषता) शत्रु पराजयकारी धनुष से (अविष्यता) रक्षा करने वाले राजा के तुल्य (धन्वना) मेघवत् जल से वा अन्तः प्रेरणा से सबको (अविष्यते) रक्षा करने वा प्रेम करने वाले उसको तू (तृषु) शीघ्र ही, (अनु च्यवानः) प्राप्त करता हुआ, सुखी हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरुपस्तुतो वाष्टिर्हव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ७ विराड् जगती। ३ जगती। ५ आर्चीभुरिग् जगती। ६ निचृज्जगती। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृच्छक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुपित्र्य) शोभनपितृभावार्ह्य ! परमात्मन् ! (वाजिन्तमाय) तुभ्यमति बलवते (सह्यसे) सर्वमभिभवित्रे (जातवेदसे) जातप्रज्ञानाय (महिन्तमाय) महिमवत्तमाय-अत्यन्तमहिमवते (अविष्यते) रक्षकाय (सते) वर्त्तमानाय (तृषु-अनुच्यवानः) शीघ्रम् “तृषु क्षिप्रनाम” [निघ० २।१५] स्तुतिभिरनुगच्छन् वर्ते (यः) यः खलु (अनुद्रे चित्) अनुदके शुष्के देशे संकटस्थलेऽपि (धृषता धन्वना-इत्-वरम्) धर्षकेण धनुषा हि सङ्कटस्य निवारणं करोषीत्यर्थः ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Resplendent fatherly presence between heaven and earth, I, spontaneously inspired and exalted, offer homage and pray for protection to the most powerful presence, Agni, forbearing as well as challenging, all pervasive and aware, ever true, highest and most glorious protector and promoter who provides succour and sustenance of high order even in dry desert lands of no water by his indomitable power and potential.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा पित्याप्रमाणे सत्करणीय, महाबलवान, सर्व ज्ञान-प्रज्ञानाचा आगार महामहिमायुक्त रक्षक असतो. तो सदैव वर्तमान असतो. जलरहित शुष्क देशात संकटातही संकटनाशक असून, आपल्या सामर्थ्याने संकटाचे निवारण करणारा आहे. अशा परमात्म्याला स्तुतीद्वारे आपल्यामध्ये धारण केले पाहिजे. ॥६॥

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