ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
पु॒रा॒णाँ अ॑नु॒वेन॑न्तं॒ चर॑न्तं पा॒पया॑मु॒या । अ॒सू॒यन्न॒भ्य॑चाकशं॒ तस्मा॑ अस्पृहयं॒ पुन॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒रा॒णा॑न् । अ॒नु॒ऽवेन॑न्तम् । चर॑न्तम् । पा॒पया॑ । अ॒मु॒या । अ॒सू॒यन् । अ॒भि । अ॒चा॒क॒श॒म् । तस्मै॑ । अ॒स्पृ॒ह॒य॒म् । पुन॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुराणाँ अनुवेनन्तं चरन्तं पापयामुया । असूयन्नभ्यचाकशं तस्मा अस्पृहयं पुन: ॥
स्वर रहित पद पाठपुराणान् । अनुऽवेनन्तम् । चरन्तम् । पापया । अमुया । असूयन् । अभि । अचाकशम् । तस्मै । अस्पृहयम् । पुनरिति ॥ १०.१३५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 135; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पुराणान्) पुरातन व्यवहारों को (अनुवेनन्तम्) उनके अनुसार फलप्रदान की कामनावाले को (अमुया पायया) उस पापवृत्ति-वासना से (चरन्तम्) सेवन करता हुआ (असूयन्) निन्दित करता हुआ (अभि अचाकशम्) मै देखता हूँ (तस्मै) उसके लिए (पुनः) फिर (अस्पृहयम्) इच्छा करता हूँ-चाहता हूँ ॥२॥
भावार्थ
मानव पूर्व कर्मों के अनुसार पापकर्मों का दुष्फल भोगता है और पश्चात्ताप करता है, निन्दा करता है, फिर भी पापवासना-दूषित वासना के कारण फिर दूषित कर्म करने लगता है, यह साधारणजन की स्थिति है ॥२॥
विषय
विषय - दोष-दर्शन
पदार्थ
[१] 'पुराण' शब्द का अर्थ गत मन्त्र में हो चुका है। (पुराणान्) = इन बड़ी उमर में भी अजीर्णशीर्ण शरीरवालों को (अनुवेनन्तम्) = चाहते हुए उस प्रभु को (अभ्यचाकशम्) = मैंने देखा है । परन्तु कब ? अमुया पापया उस पापवृत्ति ले चरन्तम्-चलते हुए को अथवा विषयों को चरते हुए को असूयन्- दोषदृष्टि से देखते हुए मैंने प्रभु को देखा है । जब मैं विषयों के चरने को दोष समझने लगा तब मैंने उस प्रभु को देखा। संसार में दो ही मार्ग हैं, एक प्रकृति की ओर जाने का, दूसरा प्रभु की ओर लौटने का सामान्यतः मनुष्य प्रथम मार्ग से ही जाता है। उस मार्ग के दोषों को देखने पर, उससे विरक्त होकर यह प्रभु की ओर लौटता है । [२] विषयों के दोषों को देखने पर तस्मा उस प्रभु के लिए पुनः अस्पृहयम् - मैंने कामना की है। इस कामना के होने पर ही हमारा जीवन का मार्ग परिष्कृत होता है और विषयासक्त न होकर प्रभु की ओर बढ़ते चलते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - विषय - दोष-दर्शन हमें प्रभु की ओर चलने की प्रेरणा देता है ।
विषय
पापाचरण करने वाले पर निन्दा और दयादृष्टि से देखने का उपदेश। अथवा अधः-पतन होने में चित्त की निर्बलता।
भावार्थ
(पुराणान्) पूर्व भुक्त भोगों को (अनु वेनन्तं) पुनः कामना करते हुए और (अमुया पापया चरन्तं) अमुक २, नाना पापों, कष्टों, भोगों को भोगते हुए पुरुष को (असूयन्) निन्दा या दोष दृष्टि से (अभि अचाकशम्) देखूं, परन्तु फिर भी मैं (तस्मै) उस पर (अस्पृहयम्) प्रेम करूं, पापी को पाप के कारण बुरा भी कहूँ, तो भी उससे स्नेह करूं। अथवा मैं पापकारी को दुःख भोगता देख कर उसे बुरा कहता हुआ भी (तस्मै अस्पृहयम्) उस पाप कर्म के लिये मैं स्वयं चाहने लगता हूँ। कैसा पतनशील हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कुमारो यामायनः॥ देवता—यमः। छन्दः– १—३, ५, ६ अनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। ७ भुरिगनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पुराणान्-अनुवेनन्तम्) पुरातनान् व्यवहाराननुलक्ष्य फलप्रदानं कामयमानं (अमुया पापया) तया पापया पापवृत्त्या वासनया (चरन्तम् असूयन्-अभि अचाकशम्) चरन् “प्रथमार्थे द्वितीया व्यत्ययेन” अहं निन्दयन् पश्यामि (तस्मै पुनः-अस्पृहयम्) तस्मै-पुनः स्पृहयामि-वाञ्छामि ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I see the father loving and watching the eternal human souls. I see the human soul discontented, displeased, protesting and still living with that same sinful conduct. I see all this and yet I wish I would love to live the same again.
मराठी (1)
भावार्थ
मानव पूर्व कर्मानुसार पाप कर्मांचे वाईट फळ भोगतो व पश्चात्ताप आणि निंदा करतो तरीही पापवासना व दूषित वासनेमुळे पुन्हा दूषित कर्म करू लागतो, ही सामान्य लोकांची स्थिती असते. ॥२॥
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