ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 135/ मन्त्र 6
यथाभ॑वदनु॒देयी॒ ततो॒ अग्र॑मजायत । पु॒रस्ता॑द्बु॒ध्न आत॑तः प॒श्चान्नि॒रय॑णं कृ॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । अभ॑वत् । अ॒नु॒ऽदेयी॑ । ततः॑ । अग्र॑म् । अ॒जा॒य॒त॒ । पु॒रस्ता॑त् । बु॒ध्नः । आऽत॑तः । प॒श्चात् । निः॒ऽअय॑नम् । कृ॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथाभवदनुदेयी ततो अग्रमजायत । पुरस्ताद्बुध्न आततः पश्चान्निरयणं कृतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । अभवत् । अनुऽदेयी । ततः । अग्रम् । अजायत । पुरस्तात् । बुध्नः । आऽततः । पश्चात् । निःऽअयनम् । कृतम् ॥ १०.१३५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 135; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यथा) जैसे (अनुदेयी) अनुग्रहकर्त्ता परमात्मा (अभवत्) पूर्व से प्रसिद्ध (ततः-अग्रम्) वैसे आत्मा पूर्व से (अजायत) प्रसिद्ध है (पुरस्तात्-बुध्नः-आततः) पहले से शरीर का आधार संस्कार भलीभाँति स्थित है, तब (निरयणं कृतम्) पीछे बाहर प्रकट होनेवाला शरीर किया जाता है ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा अनुग्रहकर्ता जैसे प्रथम से वर्तमान है, नित्य है, वैसे ही आत्मा भी नित्य है, इसके शरीर को मूलाधार संस्कार जैसा होता है, वैसा शरीर बन जाता है ॥६॥
विषय
मूल कर्त्तव्यों का पालन व मोक्ष (निरयण)
पदार्थ
[१] गत मन्त्र में 'अनुदेयी कैसे होगी' यह प्रश्न था । इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (यथा) = जिस प्रकार (अनुदेयी) = इस रथ का [ restoration] पुनः प्रत्यर्पण (अभवत्) = होता है (ततः) = उसके दृष्टिकोण से यह वेदज्ञान (अग्रं अजायत) = सृष्टि के प्रारम्भ में ही आविर्भूत होगा । प्रभु ने वेदज्ञान पहले ही दे दिया । [२] इस वेदज्ञान का सार यह है कि (पुरस्तात्) = पहले (बुध्नः) = मूल (आततः) = विस्तृत होता है, अर्थात् जीव अपने मौलिक कर्त्तव्यों का [fist and foremost duties] पालन करता है, (पश्चात्) = इन कर्त्तव्यों का पालन करने के बाद (निरयणम्) = संसार से ऊपर उठकर [निः] प्रभु की प्राप्ति [अयनं] होती है। मनुष्य शरीर को स्वस्थ रखे, मन को निर्मल व बुद्धि को दीप्त करे। ये ही उसके मूल कर्त्तव्य हैं। इनका पालन करने पर पुनः शरीर लेने की आवश्यकता नहीं रहती। यही 'निरयण' है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ने वेद में जो हमारे मौलिक कर्त्तव्य प्रतिपादित किये हैं, उनका पालन हमारे मोक्ष का कारण होता है।
विषय
मन से प्रतिक्षण श्वासानुश्वास क्रिया के तुल्य संकल्पमय प्रभु से जगत् की उत्पत्ति और संहार का होना।
भावार्थ
(यथा) जिस प्रकार से या जिस कारण से (अनुदेयी अभवत्) प्रति दिन की रक्षा वा अनुक्षण देने, वा त्यागने योग्य, प्राण क्रिया या भोजन देने योग्य आत्मातिरिक्त देहादि की क्रिया होती है। (ततः) उसी से वह (अग्रम्) सबसे मुख्य तत्त्व मन भी (अजायत) उत्पन्न होता है। (पुरस्ताद्) उसके आगे (बुध्नः आततः) मूल प्रकृति या मूल आश्रय रूप सत् कारण ही फैला होता है अर्थात् पूर्व और पश्चात् (निर्-अयनं कृतम्) उसमें से यह जगत् निकल कर व्यक्त रूप से बनाया है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः कुमारो यामायनः॥ देवता—यमः। छन्दः– १—३, ५, ६ अनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। ७ भुरिगनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यथा-अनुदेयी-अभवत्) यथाऽनुग्रहवान् परमात्मा भवति (ततः-अग्रम्-अजायत) तथा कृत्वाऽग्रे पूर्वतः प्रसिद्धोऽस्ति आत्मा (पुरस्तात्-बुध्नः) एवमेव पूर्वतः शरीरस्य बुध्नः-मूलाधारः संस्कारः (आततः) समन्तात् स्थितो भवति (पश्चात्-निरयणं कृतम्) पश्चात्-निर्गमनीयं शरीरं कृतं भवति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
As this body, this other than the soul, is created, similarly before this, mind and thought is created. Before that Prakrti is all pervasive and expansive, and from that all forms emerge and evolve.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा अनुग्रहकर्ता असून पूर्वीपासून वर्तमान आहे. नित्य आहे. आत्माही नित्य आहे. त्यामुळे शरीराचे मूलभूत संस्कार जसे असतात तसे शरीर बनते. ॥६॥
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