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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 135/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुमारो यामायनः देवता - यमः छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒दं य॒मस्य॒ साद॑नं देवमा॒नं यदु॒च्यते॑ । इ॒यम॑स्य धम्यते ना॒ळीर॒यं गी॒र्भिः परि॑ष्कृतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । य॒मस्य॑ । सद॑नम् । दे॒व॒ऽमा॒नम् । यत् । उ॒च्यते॑ । इ॒यम् । अ॒स्य॒ । ध॒म्य॒ते॒ । ना॒ळीः । अ॒यम् । गीः॒ऽभिः । परि॑ऽकृतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं यमस्य सादनं देवमानं यदुच्यते । इयमस्य धम्यते नाळीरयं गीर्भिः परिष्कृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । यमस्य । सदनम् । देवऽमानम् । यत् । उच्यते । इयम् । अस्य । धम्यते । नाळीः । अयम् । गीःऽभिः । परिऽकृतः ॥ १०.१३५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 135; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इदम्) यह शरीर (यमस्य) मृत्यु-का (सदनम्) सदन है (यत्-देवमानम्) जो देवों से-पृथिवी जल आदि देवों से निर्माण होने योग्य है (उच्यते) कहा जाता है (अस्य) इस देह की (इयं नाडी) यह नाड़ी-प्राण नाड़ी (धम्यते) चलती है (गीर्भिः) पारिवारिक जनों की वाणियों द्वारा आत्मा (परिष्कृतः) अलंकृत-प्रशंसित किया जाता है ॥७॥

    भावार्थ

    शरीर मृत्यु का सदन घर है, पृथिवि आदि देवों से बना हुआ कहा जाता है, इसकी प्राणनाड़ी चलती है, उसे देख जीता हुआ समझा जाता है, इस नवजात को पारिवारिक जन अपनी वाणियों से प्रशंसित करते हैं ॥७॥

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    विषय

    देवमानम्

    पदार्थ

    [१] (इदम्) = यह शरीर वस्तुतः (यमस्य) = संयमी पुरुष का (सादनम्) = बैठने का स्थान है । प्रभु ने संयमी को ही निवास स्थान के रूप में प्राप्त कराया है। इसमें रहकर हमें संयम से ही चलना चाहिए। इसे भोग-विलास का साधन न बना देना चाहिए। यह वह 'सादन' है (यत्) = जो ('देवमानं') = देवमान इस नाम से (उच्यते) = कहा जाता है। यह देवताओं के निर्माण का स्थान है । 'सर्वा ह्यस्मिन् देवताः गावो गोष्ठ इवासते' सब देव तो इसमें रहते हैं। इन देवों के निवास के लिए ही इसका निर्माण हुआ है। [२] संयमी पुरुषों के द्वारा (अस्य) = इस देवमान नामक शरीर-गृह की (इयं नाडी:) = यह नाड़ी (धम्यते) = प्राणाग्नि के सम्पर्कवाली की जाती है । अर्थात् इस शरीर में रहकर अभ्यासी लोग प्राणसाधना करते हुए उस उस नाड़ी में प्राणों के निरोध के लिए यत्नशील होते हैं। इस प्रकार उस-उस नाड़ी को प्राणाग्नि के सम्पर्कवाला करते हैं । प्राणाग्नि के सम्पर्क से उसका पूर्ण शोधन हो जाता है । [३] (अयम्) = यह 'देवमान' नामक गृह में रहनेवाला व्यक्ति (गीर्भि:) = ज्ञान की वाणियों से व स्तुति - वचनों से (परिष्कृतः) = परिष्कृत व सुन्दर जीवनवाला बनता है। ज्ञान व ध्यान उसके जीवन को चमका देते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस शरीर में हमें संयमपूर्वक निवास करना है। इसे दिव्यगुणों की उत्पत्ति का स्थान बनाना है। इसकी नाड़ियों को प्राणाग्नि के द्वारा संतप्त करके शुद्ध करना है। ज्ञान व ध्यान से जीवन को परिष्कृत करना है। यह सूक्त इस बात पर बल देता है कि हम शरीर को 'पुरा अपि नव: ' सदा नवीन बनाए रखें। इसको एक रथ के रूप में देखें जिसकी बागडोर प्रभु के हाथ में है । इसे हम प्रभु को ठीक रूप में वापिस करनेवाले हों। और अन्त में इस शरीर को 'देवमान' समझकर चलें। इसे देवमान बनाने के लिए इसकी नाड़ियों को प्राणाग्नि से संयोग करें, अर्थात् प्राणायाम के अभ्यासी हों, अगले सूक्त के ऋषि ये प्राणायाम की अभ्यासी 'वातरशनाः मुनयः ' हैं, वात को, प्राण को ही अपनी मेखला बनानेवाले, मौनवृत्ति से चलनेवाले । ये बोलते कम हैं, क्रियामय जीवन को बिताते हैं । क्रियाशील होने से 'जूति', वायु की तरह निरन्तर क्रियाशील होने से 'वातजूति', ज्ञानपूर्वक क्रिया करने के कारण 'वि प्रजूति' तथा [वृष-अन] सुखवर्षक जीवनवाला बनने से यह 'वृषाणक' कहलाता है। निरन्तर क्रियाशीलता के कारण ही 'करिक्रतः ' है । क्रियाशीलता के कारण ही यह ' एतश' चमकता हुआ होता है [shining] । यह बुराइयों का संहार करने के कारण 'ऋष्यशृङ्ग' कहलाता है [ऋष् to kill], इसका ज्ञान इसकी बुराइयों का विध्वंस करता है। 'यह अपने जीवन में क्या करता है' ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-

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    विषय

    पाञ्चभौतिक देह नियन्ता आत्मा का आश्रय है। देह में स्थित वाणी, राजा की रणभेरी के तुल्य है।

    भावार्थ

    (यत् देवमानं उच्यते) जो देवों, इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान वा पांचों भौतिक पदार्थों की मात्राओं से बना कहा जाता है (इदं) यह (यमस्य सादनं) नियन्ता शासक बल राजा का मुख्य आसन (भवन) है। (इयम्) यह उसकी (नाडी) बाद्य भेरी आदि के तुल्य ही आत्मा की नाड़ी व वाणी (धम्यते) गति या शब्द करती है। और (अयम्) यह (गीर्भिः) नाना वाणियों से (परिष्कृतः) सुशोभित होता है। इति त्रयोविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कुमारो यामायनः॥ देवता—यमः। छन्दः– १—३, ५, ६ अनुष्टुप्। ४ विराडनुष्टुप्। ७ भुरिगनुष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यमस्य-इदं सदनम्) इदं शरीरं यमस्य मृत्योः सदनं शरीरस्य विनाश एव मृत्युस्तस्मात् (यत् देवमानम्-उच्यते) यत् देवानां देवैर्निर्मीयमाणम्, (अस्य-इयं नाडी धम्यते) अस्य-इयं नाडी प्राणनाडी-चलति (गीर्भिः-परिष्कृतः) वाग्भिः शोधितोऽलङ्कृतः आत्मा प्रसिद्धो भवति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    This body is the abode of the spirit, it is also the abode of death. It is said to be made of devas, divine evolutes of nature such as earth, water and others. This pulse of the body system beats, and as long as it beats the soul and body is celebrated and exalted with songs of adoration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शरीर मृत्यूचे घर आहे. पृथ्वी इत्यादी देवांपासून बनलेले आहे. त्याची प्राणनाडी चालते. ते पाहून जीवंत समजले जाते. या नवजाताला पारिवारिक लोक आपल्या वाणीने प्रशंसित करतात. ॥७॥

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